चुनाव सिर्फ सत्ता की लड़ाई न होकर विचारों का भी संघर्ष होता है। चुनाव प्रयोगशाला की तरह है, जिसमे राजनेता और जनता के बीच प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता और विचारकों की मध्यस्थ भूमिका अवकाश में चली जाती है। यह सत्य है कि चुनावी शोर-शराबे में वैचारिक प्रश्नों का तात्कालिक प्रभाव जो भी हो, लोकतंत्र को गुणात्मक बनाने में इसका दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है। विचार प्रवाह ही संख्या की बुनियाद को प्रभावी या निष्प्रभावी बनाता है।
2024 के लोकसभा चुनाव से पूर्व राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव के प्रधानमंत्री पर एक तंज ने लोकतंत्र को ही विमर्श का केंद्र बिंदु बना दिया। शायद उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि जब वे तंज कसेंगे कि मोदी का परिवार नहीं है, तो वह उनके और उन सबके लिए आईना बन जाएगा जो दलों और राजसत्ता को परिवार द्वारा नियंत्रित करते हैं। लोकतंत्र की समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि सर्वोच्च पद पर पहुंचने का सपना और सच आम लोगों और परिश्रमी कार्यकर्ताओं के कितना करीब है।
जब संविधान निर्माताओं ने 26 नवंबर, 1950 को संविधान में ‘हम भारत के लोग’ का भाव प्रकट किया था, तब उनके मन-मस्तिष्क में सार्थक लोकतंत्र की कल्पना रही होगी। मगर इसकी सार्थकता पर सवाल उन्हीं के बीच के लोगों से लगाया गया। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने, तब उनकी क्षमता और उनके समान स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले सेनानियो की कमी नहीं थी।
कांग्रेस के पास यथार्थ से उपजे संघर्ष के रास्ते बढ़े और आदर्श की पूंजी को बनाकर रखने वालों की बड़ी तादाद थी। पर वे थक चुके थे। औपनिवेशिक संस्कृति से संघर्ष को वे अपना पूर्वजन्म मानकर नेहरूवादी शासन में नए जन्म में प्रवेश कर गए थे। इसीलिए राज्य सत्ता और कांग्रेस दोनों परिवार केंद्रित होती चली गई।
इस संबंध में कांग्रेस के विचारवान नेता शंकरराव देव ने 1949 में तीन भाषण दिए थे, जिनमें कांग्रेस के मूल्यों से दूर होने और उसके पतन की भविष्यवाणी की थी। पर उनके शब्द अनसुने कर दिए गए। जब मुख्यधारा की बड़ी पार्टी अपसंस्कृति का शिकार होती है तब दलीय व्यवस्था पर उसका सबसे बुरा असर होता है। कांग्रेस परिवार का परिवार के लिए परिवार द्वारा की परिभाषा में सिमट गई। कल तक जो लोग संघर्ष कर कांग्रेस संस्कृति से लड़ रहे थे, ऐसे पेरियारवादी, लोहियावादी भी इसके संक्रमण से नहीं बच पाए।
मोदी पर तंज कसने वाले लालू हों या करुणानिधि की पार्टी डीएमके या ममता बनर्जी की तृणमूल, सभी परिवारवाद के दलदल में प्रवेश करते गए। परिवारवाद की दो विशेषताएं होती हैं। पहली, ये अपने परिवार के संघर्ष को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि एक वर्ग को उस परिवार के माध्यम से ही मुक्ति, सम्मान और समृद्धि दिखाई पड़ने लगती है। दूसरी, प्रगतिशील नारों एवं सिद्धांतों का मुखौटा इनके परिवार की समृद्धि, संपन्नता और आधिपत्य पर मखमल की चादर की तरह होता है।
सरदार पटेल ने एक बार कहा था, ‘लगाव का लाभ क्या होता है, मैं उसे अच्छी तरह समझता हूं।’ मोदी ने राजनीतिक या सार्वजनिक जीवन में सतर्कता के साथ अपने किसी भी परिवार के व्यक्ति, सगे-संबंधी को लगाव प्रकट करने का अवसर नहीं दिया। राजसत्ता जब नैतिक और आध्यात्मिक भाव को आत्मसात कर लेती है, तब राज्य एक वैचारिक प्रतिष्ठान बन जाता है, जो राजनीति के इतर भी प्रभावी होता है। मोदी इसी नई राजनीतिक धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
चुनावी राजनीति के बाहर रहने वालों ने परिवार, सगे-संबंधियों-मित्रों को अपने यश का लाभ नहीं लेने दिया। गांधी, विनोबा, बाबा आम्टे ऐसे अनेक नाम हैं। पर राजनीति में ऐसा होना कठिन होता है। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं और बड़ी संख्या में लोग ‘मोदी का परिवार’ के नाम से सोशल मीडिया में लालू के तंज का जवाब दे रहे हैं।
मोदी के परिवारवाद पर प्रहार लोकतंत्र के भूगोल को बदलने वाला सिद्ध होगा। विचार में प्रवाह की अपनी गति और क्षमता होती है। जब भी दुनिया के किसी हिस्से में संकीर्णता के विरुद्ध आवाज उठी, उसका प्रभाव स्थानीयता तक सीमित नहीं रहा। आज दुनिया के तैंतालीस देशों में राजतंत्र किसी न किसी रूप में है।
अमेरिका का समृद्ध लोकतंत्र भी परिवारवाद से मुक्त नहीं है। हाल में इंडोनेशिया का जनतंत्र भी परिवारवाद के चंगुल में फंस गया। राष्ट्रपति जोको विडोडो अपने पुत्र गिब्रान राकाबुमंग को प्रश्रय और प्रोत्सादन दे रहे हैं। यानी राहुल गांधी, स्टालिन, तेजस्वी यादव आदि जिस राजनीतिक संस्कृति से जुड़े हैं, वह दुनिया के अनेक लोकतंत्रों में साख जमाए है।
गणतंत्र की पूर्णता परिश्रमी और प्रतिबद्ध को मिले अवसर में होती है। राजनीति जब कुलीनवाद के प्रभाव में प्रश्रयवादी बन जाती है, तो इसका अंत कठोरता से जन-मुहिम में होता है। आदर्श और यथार्थ के बीच के अंतर को भरने के लिए ही 1972 में प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु बिहार के फारबिसगंज से उम्मीदवार बनकर उतरे। तब उन्हें राजनीति के ‘कील-कांटा’ का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। वे हार गए। अगर वे पीछे नहीं हटते, अनेक रेणु कूदते रहते तो शायद प्रगतिशीलता के ओट में परिवारवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता की अमरबेल नहीं जड़ जमा पाती। ‘मोदी का परिवार’ उसी अमरबेल पर मट्ठा की तरह है।