दारा सिंह चौहान को चुप रहने का इनाम मिला है। उत्तर प्रदेश की नोनिया चौहान जाति पिछड़े तबके में आती है। दारा सिंह उसके कद्दावर नेता माने जाते हैं। सियासी करियर की शुरूआत कांग्रेस से की थी। फिर 1996 में समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया। लेकिन, 2007 में बसपा से मोह हुआ और मायावती ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बना दिया।

बाद में 2009 में घोसी से बसपा टिकट पर ही लोकसभा पहुंच गए। पर बसपा से ही 2015 में मोहभंग हो गया और भाजपा में शामिल हो गए। योगी सरकार बनी तो 2017 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मंत्री भी बन गए। जनवरी 2022 में जब लगा कि हवा का रुख पलटने वाला है तो भाजपा छोड़कर फिर सपा में आ गए। सपा टिकट पर घोसी से विधानसभा चुनाव भी जीत गए।

लेकिन, सरकार तो भाजपा की ही फिर बन गई। मंत्रिपद की ख्वाहिश पूरी कैसे होती। लिहाजा एक साल बाद सपा से इस्तीफा देकर फिर भाजपा में शामिल हो गए। विधानसभा की सदस्यता भी छोड़नी पड़ी। उपचुनाव हुआ तो भाजपा ने उन्हें ही उम्मीदवार बना दिया। लेकिन, इस बार सपा के सुधाकर सिंह से मात खा गए। अब भाजपा ने दिनेश शर्मा के इस्तीफे से खाली हुई विधान परिषद सीट के उपचुनाव में उन्हें उम्मीदवार बना दिया। उनका जीतना भी तय है। संकेत मिल रहे हैं कि लोकसभा चुनाव से पहले चौहान को उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्रिपद भी मिल जाएगा।

फिर बदलेगा नाम

चर्चा है कि तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव अपनी पार्टी भारत राष्टÑ समिति (बीआरएस) का नाम बदलेंगे। उन्होंने तेलंगाना राष्टÑ समिति (टीआरएस) का नाम बदलकर पिछले साल जब बीआरएस किया था तो यह संदेश देने की कोशिश की थी कि वे अखिल भारतीय स्तर की राजनीति करेंगे। पर विधानसभा चुनाव में उन्हें करारा धक्का लगा। उनकी पार्टी के नेताओं ने उन्हें सलाह दी।

बताते हैं कि चंद्रबाबू नायडू ने बेशक राष्टÑीय स्तर की राजनीति की पर पार्टी का नाम नहीं बदला। वह तेलगूदेशम ही रहा। जब तक प्रदेश में पार्टी मजबूत नहीं होगी तब तक राष्टÑीय महत्वाकांक्षा परवान नहीं चढ़ पाएगी। सूबे में लोकसभा की 17 सीटें हैं। टीआरएस ने 2019 में नौ सीटें जीती थी। कांगे्रस को महज तीन सीटें ही मिल पाई थी। अब सूबे में कांग्रेस सत्ता में है। ऐसे में केसीआर के लिए मौजूदा नौ सीटों को बचाना बड़ी चुनौती होगी।

नेताओं का श्रमदान

राम मंदिर समारोह को लेकर पूरा देश भक्तिमय है। इसके मद्देनजर पूरे देश के मंदिरों व धार्मिक स्थलों में साफ-सफाई की मुहिम चल रही है। देश की राजधानी दिल्ली के अंदर हजारों की संख्या में मंदिर हैं। दिल्ली में मुहिम का असर यह हुआ कि भाजपा के चार नेताओं ने चौबीस घंटे के अंदर एक ही मंदिर में हाजिरी लगाई और श्रमदान किया। नई दिल्ली स्थित हनुमान मंदिर में यह नाजारा देखने को मिला।

जहां पहले दिन केंद्र के दो वरिष्ठ नेता सफाई करने पहुंचे। ये भी नेता अलग- अलग समय पर पहुंचे थे। इसके बाद एक अन्य केंद्रीय मंत्री भी अगले दिन साफ-सफाई करने के लिए इसी मंदिर में हाजिरी लगाने पहुंचे। वहां मौजूद लोगों का कहना था कि यह दुर्लभ दृश्य भी हमें देखने के लिए मिल रहा है।

बेकाबू बागी

पश्चिम बंगाल की सियासत भी कमाल की है। तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद हैं दिव्येंदु अधिकारी। तमलूक लोकसभा सीट से 2019 में चुने गए थे। पर 2021 से वे अपनी ही पार्टी के विरोध का कोई अवसर नहीं चूकते। विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता सुभेंदु अधिकारी के छोटे भाई जो ठहरे। सुभेंदु ने तो तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया था।

नंदीग्राम सीट से विधानसभा चुनाव लड़े थे और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हराया था। पर दिव्येंदु भला इस्तीफा क्यों दें। वे तो 2021 में भी चोरी छिपे ही सही अपने भाई का समर्थन कर रहे थे। ममता बनर्जी को चुनौती देते रहते हैं। इसी हफ्ते तो बाकायदा गृहमंत्री अमित शाह को चिट्ठी लिख दी। अपनी ही नेता ममता बनर्जी पर गंभीर आरोप लगा दिया।

फरमाया कि राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के दिन 22 जनवरी को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राज्य में दंगे भड़का सकती हैं। ममता अपनी समप्रीति यात्रा की आड़ में समाज को बांटने का काम कर सकती हैं। लिहाजा कोलकाता में केंद्रीय बलों को तैनात किया जाना चाहिए। ममता के इस कार्यक्रम को रद्द कराने के लिए सुभेंदु अधिकारी ने तो कलकत्ता हाईकोर्ट में जनहित याचिका भी लगा दी।

खुलेआम पार्टी विरोधी गतिविधियों में लिप्त दिव्येंदु अधिकारी के खिलाफ अयोग्यता की कार्रवाई तो हो नहीं सकती। पार्टी से निष्कासित किया तो वह सदन में भी अपनी मर्जी के मालिक बन जाएंगे। तभी तो कोई नोटिस तक नहीं भेजा ममता ने अपने इस बागी सांसद को।

कर्नाटक में भी कलह की आहट

कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के बेटे यतींद्र ने कांग्रेस पार्टी को एक और मुश्किल में डाल दिया है। यतींद्र ने कह दिया कि लोकसभा में पार्टी कर्नाटक में ज्यादा सीटें जीत लेगी तो सिद्धारमैया पूरे पांच साल मुख्यमंत्री बने रहेंगे। राज्य में पिछले साल कांगे्रस की सरकार बनने पर सिद्धारमैया के साथ बीके शिवकुमार भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थे।

आखिर आलाकमान ने उन्हें सिद्धारमैया की वरिष्ठता का वास्ता देकर समझाया। उपमुख्यमंत्री और पार्टी का सूबेदार बनाया गया बदले में शिवकुमार को। चर्चा तो यह भी है कि आलाकमान ने सिद्धारमैया को ढाई साल और डीके शिवकुमार को भी बाद की इतनी ही अवधि के लिए मुख्यमंत्री पद देने का भरोसा दे रखा है। सिद्धारमैया के बेटे के बयान से मुख्यमंत्री पद को लेकर गुटबाजी जारी रहने की नकारात्मक ध्वनि निकलती है।

तभी तो बेटे के बड़बोलेपन पर खुद सिद्धारमैया ने सफाई दी कि मुख्यमंत्री का फैसला पार्टी का शीर्ष नेतृत्व करता है कोई और नहीं। गनीमत है कि डीके शिवकुमार ने इस बयान की प्रतिक्रिया में कोई सफाई देने की जरूरत नहीं समझी। लेकिन गहलोत और बघेल प्रसंग को देखते हुए कांग्रेस को इस मसले पर सतर्क हो जाना चाहिए।

संकलन : मृणाल वल्लरी