आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी विपक्ष के दर्जे की मांग पर अड़े हैं। मायावती और ममता बनर्जी की पारिवारिक कलह सुर्खियां बटोर रही है, जबकि महाराष्ट्र में महायुति सरकार के अंदरूनी मतभेद खुलकर सामने आ गए हैं। दिल्ली में ‘आप’ सरकार की मुफ्त बस सेवा की यादें ताजा हैं, लेकिन आगे इसका भविष्य अधर में है। वहीं, प्रशांत किशोर के चुनावी मैदान में उतरने को लेकर अब भी सस्पेंस बरकरार है।

दर्जे की दरखास्त

जगन मोहन रेड्डी चाहते हैं कि उनकी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस को विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा मिल जाए। आंध्र विधानसभा की कुल सदस्य संख्या 175 है, जिसमें जगन मोहन की पार्टी के विधायकों की संख्या महज 11 है। नियमानुसार, मुख्य विपक्षी दल की सदस्य संख्या सदन की कुल संख्या के दस प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए। इस नाते जगन मोहन का कोई अधिकार नहीं बनता। हां, सूबे की सरकार चाहे तो ऐसा संभव है। विधानसभा चुनाव पिछले साल जून में हुए थे। तब से जगन मोहन की पार्टी विधानसभा अध्यक्ष और सरकार से मुख्य विपक्षी दल का दर्जा देने की दो बार अपील कर चुकी है। पार्टी ने दिल्ली विधानसभा की मिसाल दी है, जहां भाजपा को 70 में से केवल तीन सदस्य होने के बावजूद मुख्य विपक्षी दल का दर्जा मिल गया था। पर कोई दलील चंद्रबाबू नायडू पर असर करती नहीं दिख रही। वैसे भी नेता प्रतिपक्ष नियुक्ति संबंधी कई अहम समितियों में शामिल होता है, लिहाजा नायडू इस नजरिए से भी जगन मोहन को नेता प्रतिपक्ष की हैसियत नहीं देंगे। इसी तरह की कोशिश महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना की तरफ से भी की जा रही है। वहां भी 288 सदस्यों के सदन में जरूरी 29 के स्थान पर ठाकरे की पार्टी के विधायक 20 ही हैं। सो, देवेंद्र फडणवीस भी दरियादिली नहीं दिखाने वाले।

पारिवारिक परेशानी

राजनीतिक दल और दोनों की मुखिया महिला। दोनों ने कठोर राजनीतिक श्रम से सत्ता का मुकाम हासिल किया। अब उत्तराधिकार के मामले में दोनों पारिवारिक कलह से गुजर रही हैं। बसपा की अध्यक्ष मायावती लंबे समय से अपने उत्तराधिकारी को लेकर असमंजस में हैं। उन्होंने पहला भरोसा अपने भतीजे आकाश आनंद पर किया। बहुत जल्द यह भरोसा टूट गया और उन्होंने आकाश आनंद को किनारे कर दिया। वहीं, पश्चिम बंगाल में इन दिनों चर्चा आम है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अपने सांसद भतीजे अभिषेक बनर्जी से पटरी नहीं बैठ रही है। इस अनबन की जड़ में अभिषेक की थाई पत्नी रुजिरा को माना जा रहा है। रुजिरा से दीदी की कतई नहीं पटती। घर के झगड़े की खबरें बाहर भी आ ही जाती हैं। चर्चा तो यहां तक है कि अभिषेक के तार भाजपा के शिखर नेतृत्व से जुड़े हैं।

‘आप’ की गुलाबी याद

केजरीवाल तो दिल्ली की सत्ता से चले गए, लेकिन उनकी सरकार की गुलाबी यादें अभी मौजूद हैं। दिल्ली सचिवालय के गलियारों में अभी इसी पर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। दिल्ली सचिवालय की महिला कर्मचारी आपस में केजरीवाल के दिए मुफ्त बस यात्रा के तोहफे के बारे में बात करती नजर आईं। महिलाओं के लिए मुफ्त बस सेवा आम आदमी पार्टी की सरकार की अहम योजनाओं में शामिल थी। इस सफर के लिए महिलाओं को दिल्ली परिवहन निगम की बसों में गुलाबी रंग का टिकट लेना होता है। इस टिकट के बिना बस में यात्रा करना अवैध है। इस योजना को आगे जारी रखने का फैसला अब भाजपा सरकार को करना होगा, जिसके लिए आगामी बजट में प्रावधान करना जरूरी होगा।

दोहरी दुविधा

महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति के घटक दलों में सब कुछ सहज और सामान्य नहीं है। एक तरफ उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे भाजपा को परोक्ष रूप से चुनौती दे रहे हैं, तो दूसरी तरफ राकांपा के नेता और दूसरे उपमुख्यमंत्री अजित पवार को अपने अंदरूनी पार्टी संकट से निपटना पड़ रहा है। अपने मंत्री धनंजय मुंडे से उन्हें दबाव में त्यागपत्र दिलाना पड़ा है। दरअसल, बीड जिले के एक सरपंच संतोष देशमुख की पिछले साल नौ दिसंबर को हुई हत्या में मुंडे के नजदीकी वाल्मिक कराड का नाम उछला था। हत्यारों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर जिले में ग्रामीणों ने आंदोलन भी किया था और धरना भी दिया था। सत्ता पक्ष और विपक्ष ने बीड की कानून व्यवस्था की तुलना बिहार की कानून व्यवस्था से कर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की घेरेबंदी की थी। फडणवीस ने उसके बाद ही मामले की न्यायिक जांच और एसआईटी के गठन का ऐलान किया था। वे चाहते थे कि मुंडे इस्तीफा दें। पर न मुंडे मूड में थे और न अजित पवार ऐसा चाहते थे। उल्टे वे तो यह कहकर मुंडे का बचाव कर रहे थे कि हत्या में उनकी कोई भूमिका नहीं है। बहरहाल, सरकार दबाव में आई तो तीन मार्च को मुंडे को इस्तीफा देना पड़ा। अजित पवार की दुविधा दोहरी है। एक तो मुंडे उनकी पार्टी के इकलौते ओबीसी मंत्री थे, ऊपर से उनके करीबी भी। अब या तो उन्हें मुंडे की जगह छगन भुजबल को मंत्री बनवाना होगा या फिर वे मुंडे के बेदाग साबित होने तक मंत्रिपद को खाली रखेंगे।

रणनीतिकार का रहस्य

प्रशांत किशोर खुद विधानसभा चुनाव लड़ेंगे या नहीं, अभी तक इस पर रहस्य बरकरार है। चुनावी रणनीतिकार के रूप में पहचान बनाने के बाद प्रशांत किशोर ने पिछले साल बिहार में अपनी जन सुराज पार्टी बनाई थी। साथ ही आने वाले विधानसभा चुनाव में सूबे की सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान भी कर रखा है। बिहार की पदयात्रा तो उन्होंने पार्टी गठन से पहले ही कर ली थी। कहने को तो प्रशांत किशोर ने यह भी कहा था कि वे तेजस्वी यादव के खिलाफ राघोपुर सीट से चुनाव लड़ सकते हैं। पिछले दिनों हुए एक सर्वेक्षण में उन्हें काफी लोगों ने बतौर मुख्यमंत्री अपनी पसंद बताया था। लेकिन उनके चुनाव लड़ने पर संशय 26 फरवरी को तमिलनाडु में की गई उनकी घोषणा से ही हुआ है। पीके ने एलान किया था कि वे तमिलनाडु की नई बनी पार्टी ‘टीवीके’ को अगले साल विधानसभा चुनाव लड़वाएंगे। तमिलनाडु के 2021 के विधानसभा चुनाव में वे डीएमके का चुनावी प्रबंधन संभाल रहे थे। तमिलनाडु में चुनाव प्रबंधन करेंगे तो जाहिर है कि बिहार में इस साल नवंबर में होने वाले चुनाव पर ध्यान कैसे दे पाएंगे?

संकलन: मृणाल वल्लरी