उत्तर प्रदेश में बिजली संकट, संसद में विपक्ष का हंगामा, बंगाल में मतदाता सूची का विवाद और दक्षिण भारत में भाजपा की रणनीति—देशभर में राजनीति तेज है। बिजली मंत्री अरविंद शर्मा की बेबसी हो या नीतीश कुमार की घोषणाओं की बौछार, इन घटनाओं में सत्ता की अंदरूनी उठापटक झलकती है। विपक्ष मुद्दों पर अड़ा है, भाजपा हर मोर्चे पर पकड़ मजबूत करना चाहती है। सवाल है—किसका दांव चलेगा?
हटा सका न कोय
उत्तर प्रदेश में इन दिनों बिजली का बुरा हाल है। ऊर्जा मंत्री एके शर्मा से जुड़ी एक घटना से स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। वे राज्य के बिजली और नगर विकास मंत्री हैं। राजनीति में आने से पहले आइएएस अफसर थे और गुजरात में तैनात थे। कोरोना काल में वीआरएस लेकर जब गुजरात से उत्तर प्रदेश लौटे तो हवा चली कि प्रधानमंत्री राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से नाराज हैं और शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। पर ऐसा हुआ नहीं। शर्मा को प्रधानमंत्री ने अपने संसदीय क्षेत्र की देखरेख सौंप दी। पार्टी में पद भी मिल गया। बाद में एमएलसी बने और फिर मंत्री बन गए। अरविंद शर्मा पिछले दिनों अपने जिले मऊ में एक कार्यक्रम में थे। अचानक बिजली गुल हो गई। मंत्री को अपने जूते तलाशने के लिए मोबाइल की टार्च जलानी पड़ी। उनकी मुख्यमंत्री से खटपट जग जाहिर है। उन्होंने पिछले दिनों बेबसी भरे बयान दिए। मसलन वे मंत्री जरूर हैं पर एक जेई का तबादला भी नहीं कर सकते। विभाग के इंजीनियर उन्हें विफल करने पर आमादा हैं। बिजली विभाग के नियमित कर्मचारी उनके खिलाफ आंदोलनरत हैं। वे मुख्यमंत्री से बिजली विभाग अपने हाथ में लेने का अनुरोध कर चुके हैं। दूसरी तरफ संविदा कर्मचारी उनका साथ दे रहे हैं। मुख्यमंत्री और मंत्री के इस झगड़े में मंत्री समर्थक यही राग अलाप रहे हैं कि जाको राखे साईयां, हटा सके न कोई।
नई रणनीति हो गई नाकाम
संसद में विपक्ष दो हफ्ते से लगातार नई मतदाता सूची, अमेरिका के बयान जैसे अहम मुद्दों पर केंद्र सरकार को घेर रहा है। लगातार चल रहे इस हंगामे को शांत करने के लिए केंद्र सरकार संसद में नई रणनीति के साथ आई। इसके तहत लोकसभा अध्यक्ष पैनल में शामिल वरिष्ठ समाजवादी पार्टी के नेता अवधेश प्रसाद को सदन संचालन का मौका दिया। इसका असर भी सदन में साफ नजर आया। सत्तापक्ष व विपक्ष के सांसदों ने उनका आसन पर आने के बाद जोरदार स्वागत किया। हालांकि इस स्वागत का असर विपक्ष की मांग पर नहीं पड़ा। विपक्ष बिहार मतदाता सूची पर अपनी मांग को लेकर हंगामा करता रहा और चंद ही मिनटों में सत्ता पक्ष की रणनीति धरी की धरी रह गई।
बंगाल की बारी
बिहार के बाद चुनाव आयोग ने मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की पश्चिम बंगाल में शुरूआत कर दी है। ममता बनर्जी इसको लेकर बेहद आक्रामक हैं और विरोध की तैयारी कर रही हैं। शायद इसी वजह से आयोग पश्चिम बंगाल में इस कवायद को किस्तों में कर रहा है। शुरू में 11 जिलों के नाम जारी किए हैं। साथ ही इन जिलों की 2002 की मतदाता सूची को भी अपलोड किया गया है। आयोग के हिसाब से जिनके नाम 2002 की सूची में हैं, उन्हें केवल फार्म फरना है, कोई दस्तावेज नहीं देना होगा। जबकि 2002 के बाद बने मतदाताओं को फार्म के साथ नागरिकता प्रमाणित करने वाला दस्तावेज भी देना होगा। आयोग ने कहा है कि बाकी जिलों की मतदाता सूची भी जल्दी जारी की जाएगी। बिहार को लेकर यह मुद्दा पहले से सुप्रीम कोर्ट में है। अदालत का रुख देखने के बाद ही अपनी रणनीति तय करेंगी ममता।
दक्षिण का दर्द
दक्षिण के तीन राज्यों आंध्र, तेलंगाना और कर्नाटक की तरह केरल और तमिलनाडु में अपना प्रभाव नहीं बढ़ा पाने की भाजपा की कसक किसी से छिपी नहीं है। इसके लिए वह हर तरह की कोशिश भी कर रही है। फिलहाल उसने सारा ध्यान केरल पर केंद्रित किया है। इस सूबे में वाम मोर्चे की सरकार है। हालांकि लोकसभा में कांग्रेस को अच्छी सफलता मिली थी। भाजपा को भी उम्मीद लोकसभा चुनाव के नतीजों से ही बंधी है। जहां पार्टी ने पहली बार अपना खाता खोलने में तो सफलता हासिल की ही, एक सीट पर वह मामूली अंतर से हारी। कांगे्रस के कई नेता पहले ही भाजपा में आ चुके हैं। अब तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर का पार्टी में आना तय माना जा रहा है। भाजपा की कोशिश कांग्रेस की अंदरूनी गुटबाजी का फायदा उठाने की है। सूबे के ज्यादातर कांग्रेसी नेता केसी वेणुगोपाल के बढ़ते प्रभाव से दुखी हैं। पर वे जानते हैं कि राहुल गांधी केवल वेणुगोपाल की सलाह से चलते हैं। पिछले दिनों कांग्रेस को तिरुवनंतपुरम के अपने जिलाध्यक्ष पलोदी रवि को हटाना पड़ा। उनका एक बयान वायरल हुआ था कि भाजपा अगले विधानसभा चुनाव में 60 सीटों पर बेहतर प्रदर्शन करेगी। कांग्रेस का घाटा होगा और सत्ता में फिर वाम मोर्चा ही आ जाएगा। पार्टी सफाई दे रही है कि रवि ठहरे थरूर के समर्थक, सो ऐसी बातें कर रहे हैं। लेकिन रवि ने जो कहा, भाजपा की रणनीति वही है। कांग्रेस कमजोर हो, बेशक फिर वाम मोर्चा सत्ता में आ जाए।
खुद के विरुद्ध
नीतीश कुमार अपनी ही नीतियों के उलट फैसले कर रहे हैं। वे पूरी तरह भाजपा के वश में दिख रहे हैं। नीतीश की सरकार ने चुनाव से ठीक पहले लोक लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा दी हैं। पहले सामाजिक सुरक्षा पेंशन 400 रुपए माहवार से बढ़ाकर 1100 रुपए की। फिर 125 यूनिट मुफ्त बिजली का एलान कर दिया। अब आशा और ममता कार्यकर्ताओं का मानदेय बढ़ाकर एक हजार से तीन हजार कर दिया है। मुफ्त सुविधाओं की शुरुआत अरविंद केजरीवाल ने की थी। नीतीश ने इसके लिए उनकी आलोचना की थी। यहां तक कि उनकी सरकार में ही पिछले दिनों जब गरीबों को 100 यूनिट मुफ्त बिजली का प्रस्ताव आया था तो उन्होंने न केवल विरोध किया था बल्कि विधानसभा में खड़े होकर तेजस्वी यादव पर हमला भी किया था और मुफ्त सुविधाओं के एलान की सियासत को गैर जिम्मेदाराना बताया था। अब जिन सुविधाओं को नीतीश ने चुनाव से पहले ही लागू कर दिया है, उन्हें तेजस्वी, कांग्रेस और प्रशांत किशोर सत्ता में आने के बाद देने का वादा कर रहे हैं। मत भूलिए कि यह नीतीश का नहीं भाजपा का दांव है जिसके जरिए उसने कई राज्यों में चुनाव जीते हैं।