संसद में चुटीले संवाद, सियासी गठबंधनों में बढ़ती दरारें, और नेताओं की महत्वाकांक्षा—यह हफ्ता भारतीय राजनीति के कई दिलचस्प रंगों को दिखा गया। शिवराज सिंह चौहान राज्यसभा में ‘किसानों के लाडले’ के रूप में उभरे, जबकि सपा और कांग्रेस के बीच लोकसभा चुनाव से पहले तनातनी ने नए सवाल खड़े कर दिए। महाराष्ट्र में शिंदे और फडणवीस की खींचतान और कर्नाटक में सिद्धारमैया-शिवकुमार का सत्ता संघर्ष, राजनीति के बदलते समीकरणों को उजागर कर रहा है।

संसद में ’लाडला’

राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ सदन में अपने चुटीले संवाद से माहौल बना देते हैं। राज्यसभा में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रश्नकाल में सांसदों के सवालों के जवाब दे रहे थे। कांग्रेस सदस्य जयराम रमेश द्वारा एमएसपी पर उनके विचार पूछे जाने पर चौहान ने कहा कि एमएसपी के बारे में मेरे विचार स्पष्ट हैं। हम 50 प्रतिशत से अधिक लाभ पर एमएसपी तय करेंगे और किसानों की उपज भी खरीदेंगे। आपने किसानों की उपज नहीं खरीदी, हम उसे खरीदेंगे और उच्च एमएसपी तय करेंगे—जब कांग्रेस सत्ता में थी, तो उसने कभी किसानों की उपज एमएसपी पर नहीं खरीदी और किसान खून के आंसू बहाते रहे, लेकिन मेरे लिए किसान की सेवा भगवान की पूजा की तरह है। रमेश ने तब संवैधानिक पद पर आसीन सभापति द्वारा मंत्री को एमएसपी पर किसानों से बात करने के लिए कहे गए शब्दों की याद दिलाई। इस पर सभापति धनखड़ ने कहा कि उन्होंने कृषि मंत्री के साथ यात्रा की थी और उन्हें किसानों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का भरोसा है। धनखड़ ने कहा, “जाते और वापस आते समय मंत्री मेरे साथ थे। मैं आश्वस्त हुआ कि जिसकी पहचान देश में ‘लाडली’ के नाम से थी, अब वह किसान का ‘लाडला’ होगा। मुझे उम्मीद है कि ऊर्जावान मंत्री अपने नाम ‘शिवराज’ के अनुरूप काम करके दिखाएंगे।” उन्होंने शिवराज से कहा, “मैंने आपको ‘किसान के लाडले’ नाम दिया।”

दोस्ती में दरार

संसद सत्र के दौरान सपा और कांग्रेस के गठबंधन में दरार साफ दिख रही है। लोकसभा चुनाव में दोनों के गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में भाजपा के सभी 80 सीटें जीतने के दावे की धज्जियां उड़ा दी थी। उसके बाद कांग्रेस को मिल रही हार ने उसकी अहमियत कम की। विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनाव ने सपा और कांग्रेस के बीच अविश्वास को बढ़ा दिया। लोकसभा में कांग्रेस अडाणी को लेकर अड़ी थी तो सपा की चिंता संभल का मुद्दा रही। अखिलेश ने लोकसभा में इस मुद्दे पर भाजपा को घेरा तो उसी दिन राहुल ने लोकसभा छोड़ संभल जाने का प्रयास किया। साफ है कि मुसलमान वोट बैंक को लेकर दोनों ही जरूरत से ज्यादा चौकन्ने हैं। सपा को डर है कि कहीं कांग्रेस उसके जनाधार को ही न समेट ले। अब लोकसभा में अखिलेश यादव और राहुल गांधी की सीटें अलग-अलग होने से सपा की नाराजगी उजागर हुई है।

शपथ तक का नखरीला सफर

एकनाथ शिंदे ने कोशिश तो खूब की अपना जलवा दिखाने की। लेकिन आत्मविश्वास से लबरेज फडणवीस ने संकेत दे दिए कि वे बिना शिंदे के भी शपथ लेने को तैयार हैं। आखिर शिंदे को उनकी पार्टी के नेताओं ने समझाया कि बात बिगाड़ने से नुकसान होगा। उनके नखरों के कारण ही राजभवन को गुरुवार को पत्र भेजने में समय लगा। खिसियानी बिल्ली के अंदाज में उपमुख्यमंत्री पद की नई परिभाषा गढ़ दी कि ‘डेडीकेटिड टू कामन मैन’। अजित पवार पर तंज भी कस दिया कि उन्हें तो सुबह-शाम कभी भी शपथ लेने का पुराना अनुभव है। मुख्यमंत्री न बन पाने का ठीकरा चाचा शरद पवार के सिर फोड़ने वाले बेचारे अजित पवार को छठी बार उपमुख्यमंत्री पद के साथ सब्र करना पड़ा।

बगावती बयार

कर्नाटक में कांग्रेस की गुटबाजी भविष्य में गंभीर परिणाम दे सकती है। मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार की खेमेबंदी अक्सर सतह के ऊपर आ जाती है। ताजा विवाद शिवकुमार के इस बयान से पैदा हुआ कि मुख्यमंत्री पद के लिए उन्होंने सिद्धरमैया के नाम पर इस शर्त के साथ सहमति दी थी कि पांच में से दोनों ढाई-ढाई साल कुर्सी संभालेंगे। यह सही है कि चुनाव के बाद कर्नाटक में मुख्यमंत्री के चयन में कांग्रेस को मशक्कत करनी पड़ी थी। तब आलाकमान ने महत्त्वाकांक्षी शिवकुमार को उपमुख्यमंत्री पद के साथ ही संतुष्ट कर दिया था। हालांकि उनकी संतुष्टि के लिए उनका प्रदेश अध्यक्ष का पद भी बहाल रखा था। शिवकुमार पिछले एक दशक में पार्टी के संकट मोचक रहे हैं। इस नाते उनकी महत्त्वाकांक्षा मुख्यमंत्री बनने की है। यह बात अलग है कि सिद्धरमैया वरिष्ठ भी हैं और पिछड़े तबके के भी। उन्होंने ढाई-ढाई साल राज करने के शिवकुमार के बयान को गलत करार दिया। लगे हाथ यह जरूर कह दिया कि वे पार्टी के अनुशासित सिपाही हैं और जब आलाकमान कहेगा, पद छोड़ देंगे। कहने और करने में तो फर्क होता है। राजस्थान में कांग्रेस इसे भुगत चुकी है। सचिन पायलट को ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद देने के अपने वादे को आलाकमान पूरा नहीं कर पाया था। कर्नाटक में भी निकट भविष्य में दो नेताओं की महत्त्वाकांक्षा राजस्थान जैसी बगावत की नौबत ला सकती है।

आम आदमी’ जो कहता है

शिक्षा जगत में बदले ढांचे का असर राजनीति में भी दिखने लगा है। जेएनयू, डीयू से लेकर विभिन्न विश्वविद्यालयों के शिक्षक राजनीति में अपना मुकाम बनाते रहे हैं। राकेश सिन्हा से लेकर मनोज झा जैसे शिक्षकों के बाद राजनीति में प्रवेश हुआ है अवध ओझा का। अवध ओझा उस कोचिंग संस्कृति के अग्रदूतों में से हैं जो शैक्षणिक जगत में भी चिंता का विषय रही है। कोचिंग गुरु और यूट्यूब के मिलन ने जिन नव नायकों को खड़ा किया है उनमें अवध ओझा प्रमुख हैं। कांग्रेस और भाजपा से टिकट न मिलने के कारण उन्होंने आम आदमी पार्टी का दामन थामा। उनके आपनामी दुशाला ओढ़ते ही यूट्यूब से ही लिए गए उनके बयान वायरल होने लगे जो उन्होंने अरविंद केजरीवाल के खिलाफ दिए थे। यूट्यूब नायकों के वचनों की सदा उनका पीछा करती ही रहती है। एक मीडिया संस्थान के लिए दिए जा रहे साक्षात्कार को उन्हें ऐसे ही सवाल-जवाब के कारण बीच में रोक देना पड़ा। आम आदमी पार्टी में यूं भी नव-नायकों की उम्र छोटी रही है तो लोग अभी से ओझा और ‘आप’ के रिश्ते के आगे के भविष्य पर सवाल उठा रहे हैं।