यूपी उपचुनाव में बसपा का दलित जनाधार खिसकने और चंद्रशेखर आजाद के उभार ने मायावती की राजनीति को गंभीर चुनौती दी है। इससे गठबंधन की जरूरत समझने का समय आ गया है। बीजेपी केंद्र सरकार को स्थिर रखने के लिए एकनाथ शिंदे को खुश रखने पर मजबूर है, क्योंकि उनके सात सांसद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उधर, बीजेपी और कांग्रेस दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री चेहरा तय करने में असमर्थ हैं, जिससे दोनों दलों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। इस बीच नेहरू-गांधी परिवार के तीन सदस्य संसद में हैं, जो 1980 के बाद का एक खास राजनीतिक संयोग है।
गठबंधन के बिना
उत्तर प्रदेश में इस महीने हुए विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनाव के नतीजे बसपा के लिए खतरे की घंटी हैं। बारह वर्ष के दौरान जिस पार्टी की सुप्रीमो मायावती सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रही, अब उनकी ऐसी बुरी दशा देख किसे अचरज नहीं होगा। बसपा के लिए खतरे का असली संकेत तो उसके दलित जनाधार का खिसकना है। संसद के दोनों सदनों में आज पार्टी का एक भी नुमाइंदा नहीं है। आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण अब उत्तर प्रदेश के दलितों के नए योद्धा के रूप में उभर रहे हैं। उपचुनाव में कई सीटों पर तो चंद्रशेखर की पार्टी के उम्मीदवारों को बसपा से कहीं ज्यादा वोट मिले हैं। लोकसभा चुनाव नगीना से अपने दम पर जीतकर चंद्रशेखर ने बसपा को कड़ी चुनौती दी थी। उन्हें पांच लाख से ज्यादा वोट मिले थे। जबकि बसपा के उम्मीदवार को महज तेरह हजार। जमानत भी नहीं बच पाई थी। चंद्रशेखर ने एक दशक से भी कम समय में दलित हितों के लिए संघर्ष करके अपनी अलग पहचान बनाई है। जबकि मायावती सत्ता से हटने के बाद कभी सड़क पर नहीं दिखी। मीरापुर विधानसभा सीट पर बसपा उम्मीदवार को महज 3248, सीसामऊ में 1410 और कुंदरकी में 1099 वोट मिले हैं। मायावती को अब इतना तो समझ आ ही गया होगा कि दूसरे दलों से चुनाव पूर्व गठबंधन न करने की अपनी रणनीति को छोड़कर ही बच सकता है बसपा का वजूद।
केंद्र में शिंदे
एकनाथ शिंदे की इतनी मान-मनौव्वल क्यों कर रही है भाजपा? जबकि विधानसभा में उसके अपने ही 132 सदस्य चुने गए हैं। सरकार बनाने और चलाने के लिए शिंदे के 57 विधायकों पर भाजपा की कतई निर्भरता नहीं है। पार्टी अजित पवार के अलावा निर्दलियों का भी जुगाड़ कर सकती है। शरद पवार और शिवसेना के विधायकों को तोड़ना भी कोई मुश्किल काम नहीं। पर शिंदे के समर्थन की सूबे से ज्यादा अहमियत केंद्र की सरकार को है। उनके लोकसभा में सात सदस्य हैं। केंद्र सरकार के पास अभी 272 के जरूरी आंकड़े से 21 ज्यादा यानी 293 सांसदों का समर्थन है। ऐसे में कोई एक सहयोगी पार्टी केंद्र सरकार को अस्थिर नहीं कर सकती। शिंदे के सात सांसदों को अलग कर दें तो अकेले चंद्रबाबू नायडू ही अपने 17 सांसदों के दम पर सरकार को गिरा सकते हैं। यही असली मजबूरी है भाजपा के सामने शिंदे को खुश रखने की।
जारी है चेहरे पर चर्चा
दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस से मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा, यह राजनीतिक हलकों में बड़ा सवाल है। दोनों ही दलों में इस सवाल को ही हर बार लगातार हो रहे नुकसान की वजह भी माना जा रहा है। कांग्रेस पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के कामकाज को आधार बना रही है और आम आदमी पार्टी पर हमलावर भी है। यहां भी इस पद के दावेदार का चेहरा गायब है। इसका संकट यह भी है कि अगर अंत में चुनावी गठबंधन हो जाता है तो इस स्थिति में कांग्रेस का पूरा गणित बिगड़ जाएगा क्योंकि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में इसका नुकसान उठा चुकी है। अंदरखाने पार्टी में अभी भी गठबंधन में चुनाव मैदान में जाने का बड़ा डर भी चुनौती बना हुआ है।
संसद में परिवार
प्रियंका गांधी के वायनाड से लोकसभा में आ जाने के बाद नेहरु-गांधी परिवार के एक साथ तीन सदस्य पहली बार संसद में पहुंचे हैं। मेनका गांधी के परिवार को भी जोड़ें तो सोनिया, मेनका, राहुल और वरुण चार सदस्य एक साथ सांसद रहे पर बात राजीव गांधी के परिवार की कर रहे हैं। सोनिया राज्यसभा की सदस्य हैं। प्रियंका की मांग तो उत्तर प्रदेश के कांगे्रसी कर रहे थे। यह राजनीतिक संयोग रहा कि राहुल गांधी इस बार वायनाड और रायबरेली दोनों सीटों से जीत गए। चर्चा थी कि वे रायबरेली छोड़ सकते हैं। ऐसा होता तो उपचुनाव में प्रियंका रायबरेली से लड़ती। पर पार्टी ने केरल को ज्यादा सुरक्षित मानते हुए प्रियंका को वायनाड से उतारने में भलाई समझी होगी। यही सोचकर राहुल ने रायबरेली को चुन लिया। इससे पहले इंदिरा गांधी और संजय गांधी 1980 में एक साथ लोकसभा पहुंचे थे। बाद में इंदिरा के साथ राजीव रहे। अब मां और भाई-बहन तीनों सांसद हैं। इससे पहले संसद में सिंधिया परिवार के नाम भी यह आंकड़ा दर्ज है। विजय राजे सिंधिया और उनके बेटे माधव राव सिंधिया तो 1971 में भी एक साथ लोकसभा पहुंच गए थे पर 1989 में तो मां के साथ पुत्र माधव राव और बेटी वसुंधरा राजे सिंधिया भी लोकसभा में आ गई थी। यानी इस बार संसद में 1989 का दोहराव हुआ है। फर्क इतना है कि सिंधिया परिवार के तीनों सदस्य तब लोकसभा में थे। अब सोनिया गांधी राज्यसभा की सदस्य हैं।
पहली परीक्षा में नाकाम किशोर
प्रशांत किशोर अपनी पहली ही चुनावी परीक्षा में नाकाम दिखे। जन सुराज पार्टी बना वे राजनीति में कूद पड़े थे। दावा किया था कि बिहार की जनता अब मौजूदा राजनीतिक दलों से उकता चुकी है। उसे नई राजनीति चाहिए। ऐसा राजनीतिक दल जो नौजवानों के सपनों को हकीकत में बदले। जन सुराज पार्टी बदलाव लाकर सूबे को विकास की पटरी पर स्थापित करेगी। पीके ने पार्टी के स्थापना दिवस पर ही यह एलान भी कर दिया कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में वे सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगे। विधानसभा चुनाव से पहले चार सीटों के उपचुनाव की घोषणा हुई तो पीके ने इन चारों सीटों इमामगंज, बेलागंज, रामगढ़ और तरारी में अपने उम्मीदवार उतार दिए। किसी भी सीट पर जीतना तो दूर उनका कोई उम्मीदवार दूसरे नंबर पर भी नहीं आ पाया। रामगढ़ में 6513 तो तरारी में 5592 वोट ही मिल पाए। इमामगंज में 37103 और बेलागंज में 17285 वोट लेकर तीसरी ताकत बन जाने की खुशफहमी जरूर पाल ली होगी। प्रशांत किशोर को अहसास हो गया होगा कि दूसरे दलों के लिए चुनावी रणनीति बनाने और मैदान में खुद उतर कर जनता से वोट मांगने में कितना फर्क है।
संकलन: मृणाल वल्लरी
