देश की राजनीति इन दिनों कई परतों में उलझी हुई है। भाजपा अध्यक्ष पद को लेकर संघ और सरकार के बीच खींचतान है, तो कांग्रेस कर्नाटक और महाराष्ट्र में असमंजस से घिरी है। सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार की तनातनी के बीच सत्ता संतुलन बना हुआ है, वहीं महाराष्ट्र में उद्धव-राज की नजदीकी कांग्रेस को असहज कर रही है। दिल्ली में कपूरथला हाउस एक बार फिर सियासी सुर्खियों में है, जबकि बंगाल में टाटा और ममता की नजदीकी नए समीकरणों की ओर इशारा कर रही है। हर मोर्चे पर राजनीतिक चुप्पी में उबाल है।

अध्यक्ष व अटकलें

भाजपा के नए अध्यक्ष के फैसले में हो रही बेजा देरी से इस चर्चा को बल मिर रहा कि इस बार आरएसएस ने हस्तक्षेप बढ़ाया है। लोकसभा चुनाव में अपेक्षित सीटें नहीं मिलने से केंद्रीय जोड़ी की धमक संघ के सामने कमजोर हुई है। संघ अब ऐसा अध्यक्ष चाहता है जो उसकी विचारधारा में रचा और पोषित हो। संगठन कौशल में निपुण हो, सहज और विनम्र हो। साथ ही सरकार में बैठे लोगों से प्रभावित होकर फैसले न करे। आरोप है कि जगत प्रकाश नड्डा संघ की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। वे सरकार की कठपुतली बने रहे। संघ के नेतृत्व को नड्डा की यह टिप्पणी भी अखरी कि अब भाजपा सशक्त है और उसे संघ की जरूरत नहीं। भाजपा की तरफ से मनोज सिन्हा, मनोहर लाल खट्टर, भूपेंद्र यादव और धर्मेद्र प्रधान के नाम संघ को भेजे गए बताए जाते हैं। लेकिन संघ ने सहमति नहीं दी। संघ की तरफ से प्रस्तावित संजय जोशी के नाम पर इधर रजामंदी नहीं। तभी तो संघ प्रमुख ने नागपुर में नेताओं के 75 वर्ष पर सेवानिवृत्त होने की मोरोपंत पिंगले की सलाह को दोहराया। भाजपा ने 2014 के बाद आडवाणी, जोशी, यशवंत सिन्हा और शांता कुमार जैसे दिग्गजों को मार्गदर्शक मंडल में भेजा था। सितंबर में मोदी और भागवत दोनों 75 के हो जाएंगे। इस दबाव को भी संघ की अपनी पसंद का अध्यक्ष बनवाने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है।

कलह का अंत?

कर्नाटक में कांग्रेस का सत्ता संघर्ष क्या वाकई थम गया है? मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के आत्मविश्वास से तो यही मान सकते हैं। सिद्धरमैया ने दो बातें कही हैं। एक वे पूरे पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बने हैं। दूसरी, डीके शिवकुमार को भी इसका ज्ञान है। शिवकुमार से जब सिद्धरमैया की टिप्पणी की बाबत पूछा गया तो जवाब दिया कि उनके पास विकल्प क्या है। लेकिन क्या शिवकुमार इतनी आसानी से हथियार डाल सकते हैं? ऐसा होता तो वे प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ चुके होते। वे उपमुख्यमंत्री तो हैं ही। वे भी पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाए रखना चाहते हैं। शिवकुमार ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं। वे कहीं रणनीति के तहत सिद्धरमैया को खुशफहमी पालने का अवसर तो नहीं दे रहे। उन्होंने 20 मई 2023 को मुख्यमंत्री पद संभाला था। इस नाते ढाई साल नवंबर में पूरे होंगे। सो, अक्तूबर में फिर खींचतान हो सकती है कर्नाटक में।

कपूरथला हाउस की कथा

दिल्ली की सियासत में सबसे सक्रिय रहे चेहरों की सियासत अब कपूरथला हाउस में फिर से चमक रही है। कपूरथला हाउस पुराने सियासी चेहरों का सबसे पसंदीदा ठिकाना है क्योंकि अब भाजपा सरकार बनने के बाद सचिवालय से आम आदमी पार्टी की दूरियां हो गई हैं। इस जगह से न सिर्फ दिल्ली बल्कि पंजाब की गतिविधियों पर भी नजर रखी जा रही है। लेकिन कपूरथला हाउस में अब तक सक्रिय चेहरों को यह बदलाव पसंद नहीं आ रहा है। ये नेता सीधे तौर पर पार्टी संयोजक से जुड़े हैं, जिस वजह से कोई खुलकर इनके खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पा रहा है। हालांकि दबी आवाज में दिल्ली के इन नेताओं की उपस्थिति को अवैध कब्जा जरूर बताते नजर आ रहे हैं।

दुविधा में कांग्रेस

महाराष्ट्र में बन रहे नए सियासी समीकरणों ने कांग्रेस की बेचैनी बढ़ाई है। मराठी अस्मिता के नाम पर उद्धव ठाकरे ने अचानक चचेरे भाई राज ठाकरे से हाथ मिला लिया। राज ठाकरे की एमएनएस और उद्धव की शिवसेना का मिलकर बृहनमुंबई पालिका चुनाव लड़ना अब तय माना जा रहा है। इससे शरद पवार को कोई परेशानी नहीं दिख रही। जबकि उद्धव की शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा का गठबंधन है। राज के साथ हाथ मिलाने से पहले उद्धव ने कांग्रेस से कोई बात नहीं की। सत्ता के लिए कांग्रेस ने उद्धव के साथ हाथ मिलाने के बारे में तो अपने वोट बैंक को सफाई दे दी थी कि धर्मनिरपेक्षता की नीति को कतई आंच नहीं आएगी। पर अब तो सवाल राज ठाकरे का है। जो भाषा और क्षेत्रीयता के मामले में कांग्रेस से कतई मेल नहीं खाते। बिहार में विधान सभा चुनाव है। वहां भाजपा कांग्रेस को घेरना चाहेगी कि मुंबई के गैर मराठी भाषियों को लेकर वह राज का साथ लेने वाले उद्धव से रिश्ते जारी रखेगी या तोड़ेगी। इतना तो साफ नजर आ रहा है कि कांगे्रस को बृहनमुंबई पालिका चुनाव में अकेले उतरना होगा। जाहिर सी बात है कि ठाकरे बंधु मुंबई पालिका में दबदबा कायम रखना चाहेंगे। दोनों के साथ आने से एकनाथ शिंदे की शिवसेना कमजोर होगी। शरद पवार शायद यही चाहते होंगे। तब भाजपा फिर उद्धव से हाथ मिला ले तो किसी को अचरज नहीं होगा। दुविधा में तो कांग्रेस फंसी है। न निगलते बन रहा है और न उगलते।

बंगाल में टाटा की उम्मीद

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के रिश्ते पिछले डेढ़ दशक से टाटा समूह के साथ खटास भरे रहे हैं। रतन टाटा की स्वप्न परियोजना नैनो कार के लिए वाम मोर्चे की सरकार ने सिंगूर में जमीन दी थी। ममता बनर्जी ने इसके विरोध में जोरदार आंदोलन किया था। तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। पश्चिम बंगाल के विरोध से दुखी टाटा को राज्य सरकार ने गुजरात में जमीन दे दी थी। यह बात अलग है कि नैनो कार कामयाब नहीं हुई और इसी वजह से टाटा ने उसका उत्पादन बंद कर दिया था। ममता बनर्जी 2011 से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। उनके 14 साल के मुख्यमंत्री काल में टाटा समूह में अब तक तीन अध्यक्ष हुए हैं-रतन टाटा, साइरस मिस्त्री और नटराजन चंद्रशेखरन। कोई ममता बनर्जी से नहीं मिला। अब जाकर चंद्रशेखरन पहली बार ममता से मिलने कोलकाता गए। इसे रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलने का संकेत भर नहीं माना जा सकता। राज्य में अगले साल विधान सभा चुनाव होंगे। यह भी हो सकता है कि टाटा समूह को ममता बनर्जी की सत्ता में वापसी की उम्मीद दिख रही हो। अन्यथा एक साल की मुख्यमंत्री मानकर तो यह कवायद नहीं होती।