बीते 1 माह के दौरान जब अशोक गहलोत ने एक से ज्यादा मौकों पर यह विश्वास जताया कि 2023 के चुनाव में कांग्रेस फिर से परचम लहराने जा रही है तो लोगों को हैरत हुई। एक ऐसा सूबा जहां पिछले दो दशकों में हर पांच साल पर सरकार बदल रही हो वहां ऐसे आत्मविश्वास पर संदेह के बादल छाना स्वाभाविक ही है, लेकिन आखिरकार कांग्रेस ने दिखा दिया कि उम्दा रणनीति से किस तरह से बाजी जीती जा सकती है। दो असेंबली सीटों पर हुए उपचुनाव परिणाम भाजपा के लिए बुरा सपना साबित हो रहे हैं। पार्टी ने इन चुनाव में न केवल एक सीट गंवाई, वह वल्लभनगर सीट पर तो चौथे स्थान खिसक गई।
वल्लभनगर (उदयपुर) व धरियावद (प्रतापगढ़) विधानसभा सीटें कांग्रेस ने बड़े अंतर से जीतीं। धरियावद सीट पर भाजपा तीसरे स्थान पर रही। यहां कांग्रेस के नगराज मीणा जीते। भाजपा के खेत सिंह निर्दलीय से भी पीछे रहे। कांग्रेस ने यह सीट भाजपा से छीनी है। 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में धरियावद सीट भाजपा के गौतम लाल मीणा ने जीती थी। उनका कोरोना के कारण निधन हो गया था। दिवंगत गौतम लाल मीणा के पुत्र कन्हैया मीणा ने पार्टी द्वारा प्रत्याशी नहीं बनाए जाने पर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में पर्चा दाखिल किया, हालांकि बाद में पार्टी ने उन्हें नामांकन वापस लेने के लिए मना लिया, लेकिन उनके मैदान में उतरने से डैमेज तो हो ही गया था।
वल्लभनगर में भाजपा उम्मीदवार हिम्मत सिंह झाला चौथे नंबर पर रहे। कांग्रेस की प्रीति सिंह शक्तावत ने यहां से जीत दर्ज की। निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने वाले भाजपा के पूर्व विधायक और जनता सेना के प्रमुख रणधीर सिंह भिंडर का प्रदर्शन भगवा पार्टी के उम्मीदवार से कहीं बेहतर रहा। कांग्रेस ने न केवल सीट जीती बल्कि जीत का अंतर भी बड़ा कर लिया। 2018 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस उम्मीदवार गजेंद्र शक्तावत केवल 3719 वोटों से जीते थे, लेकिन अब उनकी पत्नी प्रीति शक्तावत ने 20 हजार से ज्यादा मतों से जीत हासिल की है। अब 200 सीटों वाली असेंबली में कांग्रेस की सीटें 106 से बढ़कर 108 हो गई हैं। भाजपा की 71 सीटें हैं। रालोपा के तीन, माकपा व ट्राइबल पार्टी के दो-दो विधायक हैं। 13 MLA निर्दलीय हैं।
बीजेपी के प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनियां ने विधानसभा उपचुनाव में पार्टी की हार को स्वाभाविक व परिस्थितिजन्य बताया। पूनियां ने ट्वीट किया कि आलोचनाओं से बच कर सीख और सबक़ लेकर आगे बढ़ना है। लेकिन जानकारों की मानें तो बीजेपी की हार का सबसे बड़ा कारण पार्टी का दोफाड़ होना है। वसुंधरा राजे की सतीश पूनिया से खींचतान के चलते वर्कर्स का मनोबल रसातल में पहुंच रहा है। पार्टी ने जो रणनीति बनाई वो भी समझ से परे है। दिवंगत विधायकों के परिवार के सदस्यों को टिकट न देने से मामला बिगड़ा तो खींचतान ने उसमें तड़का लगा दिया।
2013 के चुनाव में कांग्रेस रसातल में पहुंच गई थी। असेंबली में उसके केवल 21 विधायक ही थे, लेकिन 2018 के चुनाव में पार्टी ने जीत हासिल करके सरकार बनाई और टेंपो बरकरार रखा। खास बात है कि बीजेपी शासन के दौरान हुए चुनावों में भी कांग्रेस बाजी मारती रही थी। लेकिन कांग्रेस शासन में भाजपा कहीं पर भी नहीं दिख रही। इसके पीछे गहलोत की आत्म विश्वास और उम्दा रणनीति कारक है। कांग्रेस ने उप चुनावों में दिवंगत नेताओं के परिजनों पर दांव लगाया। इससे पार्टी को सहानुभूति हासिल हुई। जहां ऐसा नहीं हो सका वहां से जीतने वाले घोड़े को ही मैदान में उतारा गया। यही वजह है कि 2018 के बाद हुए 7 उपचुनावों में से 5 में कांग्रेस ने जीत हासिल की।