अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जब 90 के दशक में भाजपा को सत्ता में लाने की कवायद में जुटे थे तब अपनी अद्भुत वाकपटुता और आम लोगों से सहज घुलमिल जाने के कौशल की बदौलत सुषमा स्वराज पार्टी में सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक के रूप में उभर कर सामने आईं। 90 के दशक और 2000 के प्रारंभ में चुनाव प्रचार में उनकी सबसे अधिक मांग रहती थी। खासतौर पर हिंदी पट्टी के इलाके में पार्टी के शीर्ष नेताओं में सुषमा स्वराज को उनकी संतुलित, आक्रामक और बेहद सधी भाषा में विषयों को रखने तथा ‘भारतीय नारी’ के रूप में उनकी छवि के कारण लोग सबसे अधिक सुनना पसंद करते थे। आडवाणी के साथ खड़ी नजर आने वाली सुषमा लोगों के बीच अपने व्यापक प्रभाव के कारण राजनीति में आगे बढ़ती चली गई। इसका ही परिणाम था कि वह चार बार लोकसभा के लिए चुनी गईं।

वह दक्षिण दिल्ली से दो बार लोकसभा के लिए चुनी गई। साल 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 13 दिनों की सरकार और 1998 में दोबारा सरकार बनने पर वह सूचना व प्रसारण मंत्री बनीं। सुषमा स्वराज का सबसे प्रसिद्ध चुनावी मुकाबला 1999 में सामने आया जब वह बेल्लारी से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ भाजपा की उम्मीदवार बनीं। कुछ महीनों के लिए वह दिल्ली की मुख्यमंत्री भी रहीं और पार्टी ने उन्हें चुनाव में दिल्ली में भाजपा को दोबारा सत्ता में वापसी कराने का दायित्व सौंपा था। हालांकि, कम समय मिलने के कारण वह ऐसा चमत्कार नहीं कर सकीं।

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साल 1999 में सोनिया गांधी के खिलाफ चुनावी मुकाबले में भाजपा ने सुषमा स्वराज को भारतीय नारी के प्रतीक और सोनिया गांधी को विदेशी बहू के रूप में पेश किया था। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव जीतने में सफल रहीं लेकिन सुषमा स्वराज बेल्लारी सीट पर खासा प्रभाव छोड़ने में सफल रहीं। सुषमा स्वराज को 3.58 लाख वोट मिले जबकि सोनिया गांधी को 4.14 लाख वोट प्राप्त हुए थे। भाजपा के सत्ता में आने के बाद उनका कद बढ़ता गया। भाजपा के सत्ता से बाहर होने पर वाजपेयी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। इसके बाद 2009 में सुषमा स्वराज को लोकसभा में पार्टी का नेता बनाया गया। हिंदुत्व से जुड़ाव के कारण वह आरएसएस की भी पसंद थीं और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए एक समय भाजपा नीत राजग की तरफ से उनका नाम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर सुझाया था।