Punjab News: 1971 के युद्ध के बाद रिश्तों को सही बनाने के लिए 2 जुलाई 1972 को भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला एग्रीमेंट हुआ था। इसके 53 साल बाद आज पंजाब के बॉर्डर के पास वाले गांव के लोग याद करते हैं कि कैसे शांति समझौते ने उनकी सुरक्षित घर वापसी का रास्ता तय किया। 1971 के युद्ध के दौरान, पाकिस्तान ने पंजाब के सीमावर्ती जिले फाजिल्का के बखू शाह और मुहम्मद पीर गांवों के कम से कम 300 नागरिकों को हिरासत में लिया था। शिमला समझौते पर साइन होने के कुछ महीने बाद ही इन गांव वालों को रिहा किया गया।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, शिमला एग्रीमेंट के तहत यह तय किया गया कि युद्ध के दौरान देशों ने जिन भी लोगों को हिरासत में लिया है या नजरबंद किया है। उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। बखू गांव के कश्मीर सिंह ने भी उस वक्त की बातों को याद कर इंडियन एक्सप्रेस को बताया, ‘हम चार महीने (दिसंबर-अप्रैल 1972) तक साहीवाल जेल में बंद रहे, उसके बाद हमें हड़प्पा के एक कैंप में भेज दिया गया।
कश्मीर सिंह ने कहा कि शिविर में मेरी पत्नी को प्रसव पीड़ा हुई और उसे जीप में साहीवाल जिला अस्पताल ले जाया गया। मुझे उसके साथ जाने की इजाजत नहीं थी। कैंप में लौटने के बाद एक पाकिस्तानी पुलिसकर्मी ने मुझे मेरे बेटे के जन्म की सूचना दी। मैं बहुत खुश था, लेकिन हमारे पास इस पल का जश्न मनाने के लिए कोई साधन, पैसा या एक चम्मच चीनी भी नहीं थी। शिविर में सभी बंदियों ने मिलकर उसका नाम रवेल सिंह रखा था।’
मेरे बेटे की झलक पाने के लिए पाकिस्तानी जमा होते थे – कश्मीर सिंह की पत्नी
कश्मीर सिंह की पत्नी ने बताया कि कैसे पाकिस्तानी उनके बेटे की एक झलक पाने के लिए आसपास जमा हो जाते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा साइन किया गया शिमला समझौता, पहलगाम आतंकवादी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद दोनों पड़ोसियों के बीच पैदा हुए तनाव की वजह से अब स्थगित है।
क्या है ऑपरेशन सिंदूर जिसने उड़ाए पाकिस्तान के होश?
मुहम्मद पीर गांव की मौजूदा सरपंच चिंदो बाई उस समय आठ साल की थीं। चिंदो ने कहा, ‘गोलीबारी शुरू हो गई थी और एक अधिकारी आया। हम सभी को पकड़ लिया गया और पाकिस्तान ले जाया गया। हमें साहीवाल जेल में रखा गया। गांव का आधा हिस्सा हमारे साथ था। हमारे बुजुर्गों ने कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की वजह से ही हम रिहा हुए और घर लौट सके।’
कश्मीर सिंह भी 16 सितंबर 1972 को वापस लौटे
कश्मीर सिंह ने कहा, ‘हम 16 सितंबर, 1972 को वाघा बॉर्डर के जरिये भारत लौटे। हम उस दिन को कभी नहीं भूल सकते। वो दृश्य आज भी हर रात मेरी आंखों के सामने घूमते हैं। घर लौटने की सारी उम्मीदें खत्म हो गई थीं, लेकिन हम आखिरकार वापस आ गए।’ कश्मीर सिंह को भी 16 सितंबर 1972 को वाघा में भारतीय अधिकारियों को सौंपा था। 16 सितंबर 1972 की रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, बदले में भारत ने अपनी हिरासत में मौजूद सभी 700 पाकिस्तानी नागरिकों को वापस भेजने पर सहमति जताई थी। युद्ध भारत की जीत, बांग्लादेश के निर्माण और 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों के सरेंडर के साथ खत्म हुआ था।
गांव में केवल तबाही थी – कश्मीर सिंह
पाकिस्तान से लौटने पर सभी ने कहा कि गांव में केवल तबाही थी। कश्मीर सिंह ने कहा, ‘पाकिस्तानी सेना ने दरवाजे और खिड़कियां तक लूट ली थीं और हैंडपंप उखाड़ दिए थे। हमारे घर तबाह हो गए थे; खेत बंजर हो गए थे। उन्होंने पीछे कुछ भी नहीं छोड़ा। हमें अपनी जिंदगी फिर से शुरू करनी पड़ी और सब कुछ फिर से बनाना पड़ा। हम उस सदमे और गरीबी से कभी बाहर नहीं निकल पाए। हमारे बच्चे अभी भी बिना नौकरी के हैं। जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव होता है, तो हम सबसे पहले किनारे पर आ जाते हैं।’
कश्मीर ने कहा, ‘अपने घरों को छोड़कर फिर से घर बनाने के बारे में सोचना भी हमें बुरे सपने देता है। हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि वह हमें सुरक्षित इलाकों में जमीन दे ताकि हम अपने घर बना सकें और फिर जितनी चाहें उतनी लड़ाइयां लड़ सकें। लेकिन अब हमारी कौन सुनेगा जब पिछले पांच दशकों से किसी ने हमारी नहीं सुनी? कोई भी याद नहीं करता कि हमने अपने देश के लिए क्या-क्या सहा है।’ ऑपरेशन सिंदूर का असर