प्रशांत महासागरीय क्षेत्र के लीपीय देशों के संगठन पैसिफिक आइलैंड फोरम की हाल में बैठक हुई। चीन के विदेश मंत्री वांग यी और आस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री पेनी वांग के दौरों के इस क्षेत्र में दौरों के बाद इन देशों ने बैठक बुलाने की जरूरत समझी। बैठक में विमर्श का विषय था- बाहरी और अंदरूनी दबावों से कैसे बचें।
सात जून को हुई इस बैठक को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक रूप से रूचि रखने वाले भारत समेत तमाम देशों की कूटनीतिक सक्रियता बढ़ गई है। प्रशांत क्षेत्र के लीपीय सदस्य देशों ने बाहरी और अंदरूनी दबावों से अपने क्षेत्र को बचाने के लिए आपसी मतभेदों को भुला कर और साथ मिलकर काम करने का निश्चय किया।
18 सदस्यों वाले इस संगठन की स्थापना 1971 में तब हुई थी, जब चीन इस क्षेत्र में अपने कदम बढ़ा रहा था। शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में इस संगठन को अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का साथ मिला। बीते कुछ साल में यह संगठन चर्चा में नहीं है। वर्ष 2021 से तो इस संगठन की बैठक नहीं हुई। मुखिया के चुनाव को लेकर मतभेद और आपसी विवाद बढ़ गए थे। अब हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर चीन एवं अमेरिका-आस्ट्रेलिया की कूटनीतिक होड़ बढ़ने के साथ ही इन देशों को यह अहसास होने लगा है कि उनके सामने दो पाटों के बीच बुरी तरह पिसने की नौबत है। यही कारण कि 12-14 जुलाई के बीच फिजी की राजधानी सुवा में इस संगठन के सदस्य मिल बैठ कर मतभेदों को दूर करने और संगठन में सुधार लाने को तैयार हुए हैं।
पिछले लगभग दो दशकों में चीन ने दक्षिण प्रशांत के द्वीपसमूह देशों पर काफी ध्यान दिया है। व्यापक आर्थिक निवेश, व्यापार संबंधों और ढांचागत क्षेत्र में सहयोग से चीन के इन तमाम देशों से संबंधों में व्यापक परिवर्तन आए हैं। इनकी शुरुआत इस क्षेत्र के तमाम देशों के साथ कूटनीतिक संबधों की शुरुआत से हुई।
दक्षिण-प्रशांत के तमाम देश पहले चीन की बजाय ताइवान को औपचारिक मान्यता दे कर उसके साथ संबंध बनाए हुए थे। पिछले लगभग एक दशक में यह स्थिति तेजी से बदली है और दक्षिण प्रशांत के कई देशों ने अपनी वफादारियां चीन से जोड़ ली हैं। जब यह गतिविधियां हो रही थीं, तब अमेरिका और आस्ट्रेलिया ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब चीन इन देशों के साथ सामरिक और सैन्य सहयोग की पींगें बढ़ाने की गुपचुप कोशिश में लगा तो कूटनीतिक सक्रियता बढ़ी। चीनी विदेश मंत्री की हाल ही में हुई दक्षिण-प्रशांत द्वीपसमूहों की यात्रा में सैन्य सहयोग संबंधी समझौते नहीं हो पाए।
यह साफ हो गया कि सैन्य मोर्चे पर इन देशों को साथ लाने में अभी वह समर्थ नहीं है। चीन की कमजोरी के साथ-साथ यह भी उजागर हुआ कि तमाम वादों और इरादों के बावजूद पिछले कई दशकों से अमेरिका और आस्ट्रेलिया ने दक्षिण-प्रशांत के द्वीपसमूह देशों की ओर ध्यान नहीं दिया था। दरअसल, मई महीने के आखिर में चीनी विदेश मंत्री वांग यी दक्षिण-प्रशांत के देशों के दस – दिवसीय दौरे पर निकले।
अपने दौरे में वांग यी ने सोलोमन द्वीपसमूह, किरिबाती, सामोआ, फिजी, टोंगा, वानुआतू, पापुआ न्यू गिनी के साथ-साथ तिमोर लेस्त का भी दौरा किया। तिमोर पिछले काफी सालों से आसियान की सदस्यता लेने की कोशिश में है। उन्होंने चीन और पैसिफिक आइलैंड देशों की दूसरी विदेश मंत्री स्तरीय बैठक में भी हिस्सा लिया। माइक्रोनेशिया कुक द्वीपसमूह और निआउ के मंत्रियों के साथ आनलाइन वार्ता भी की।
इन तमाम बैठकों के पीछे एक बड़ी योजना यह थी कि किसी तरह पूरे क्षेत्र के साथ सोलोमन द्वीपसमूह की तर्ज पर सुरक्षा समझौतों पर दस्तखत हो जाएं। वांग यी के दौरे की शुरुआत में मीडिया में चर्चा आम थी कि वांग यी इस दौरे में कुछ बड़ा करने वाले हैं।
लेकिन बैठकें बेनतीजा रहीं, क्योंकि इन देशों में सुरक्षा समझौते को लेकर आमराय नहीं बन पाई और वांग यी को खाली हाथ लौटना पड़ा। सोलोमन द्वीपसमूह के साथ चीन के सुरक्षा समझौते से चूकी अमेरिकी और आस्ट्रेलियाई सरकारों को फिजी में इस बात की भनक लग गई कि मामला गंभीर है और चीन की योजना प्रशांत द्वीपसमूहों में व्यापक सैन्य पकड़ बनाने की है। इसी डर के चलते आनन-फानन में दक्षिण प्रशांत के तमाम देशों को समझा-बुझा कर चीन के साथ समझौता न करने की गुपचुप अपील की गई, जो रंग लाई।
नजदीकियों में मोड़
एक ओर चीन दक्षिण-प्रशांत के देशों को दोस्त और खुद को अच्छा भाई बताकर सुरक्षा समझौता करना चाहता था। तो दूसरी ओर आस्ट्रलियाई विदेश मंत्री ने भी दक्षिण-प्रशांत के देशों को परिवार बता कर उनसे नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश की। इन सबसे अलग कुक द्वीपसमूह के प्रधानमंत्री मार्क ब्राउन ने पैसिफिक आइलैंड फोरम में सुधारों और संगठन के देशों के साथ मिलकर काम करने को यह कह कर परिभाषित किया कि एक सच्चा परिवार ही आखिरकार साथ रहता है।