हार्वर्ड कालेज की स्थापना 1636 में हुई थी। वह हार्वर्ड विश्वविद्यालय का केंद्रीय हिस्सा है। पिछली चार शताब्दियों में उसमें कई नए स्कूल-कालेज जोड़े जा चुके हैं, लेकिन उन सबमें गौरवपूर्ण स्थान हार्वर्ड कालेज का ही है। वह स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम प्रदान करता है। बेहतर नतीजों के चलते, 2022 में साठ हजार से अधिक छात्रों ने आवेदन किया था, मगर दो हजार से कम को दाखिला मिल पाया। जैसा कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘‘हार्वर्ड कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। इसमें प्रवेश उत्कृष्ट ग्रेड, शानदार अनुशंसा पत्रों, या खास प्रतिकूल परिस्थितियों से पार पाने की क्षमताओं पर निर्भर हो सकता है। यह आपकी जाति पर भी निर्भर कर सकता है।’’

पहले मुकाबला श्वेत और अश्वेत अमेरिकियों के बीच था। जब मुझे हार्वर्ड बिजनेस स्कूल में दाखिला मिला, तो लगभग 750 की कक्षा में, कुछ काले अमेरिकी, मुट्ठी भर एशियाई (चार भारतीय मूल के) और कुछ अफ्रीकी थे। मगर अब अमेरिका नाटकीय रूप से बदल गया है। दाखिले की लड़ाई अब गोरे, काले, एशियाई, हिस्पानी, अफ्रीकी और मध्यपूर्व के छात्रों के बीच है। ताजा अदालती लड़ाई ‘स्टूडेंट्स फार फेयर एडमिशन’, ‘इंक’ द्वारा हार्वर्ड कालेज के अध्यक्ष और अध्येताओं के खिलाफ शुरू हुई थी।

दूसरा मामला एक अन्य पुराने विश्वविद्यालय, नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय यानी यूएनसी के खिलाफ था। सामान्यतया यूएनसी में हर साल 43,500 आवेदन आते हैं, मगर 4200 नए विद्यार्थियों को प्रवेश मिलता है।

प्रतिकूलता बनाम समानता

दोनों मामलों में केंद्रीय मुद्दा यह था कि क्या नस्ल (एक प्रतिकूल कारक) को चयन का एक प्रासंगिक मानदंड माना जा सकता है। 4 जुलाई, 1776 को तेरह ब्रिटिश उपनिवेशों द्वारा अपनी स्वतंत्रता की घोषणा के बाद से यह मुद्दा अमेरिका को परेशान कर रहा है। इसी मुद्दे के कारण गृहयुद्ध (1861-1865) हुआ।

नस्ल बनाम समानता की संवैधानिक गारंटी का मुद्दा 1896 से अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में उलझा हुआ है। इस मुद्दे का परीक्षण अमेरिकी संविधान के चौदहवें संशोधन के आधार पर किया गया था, जिसमें लिखा है: ‘‘कोई भी राज्य ऐसा कानून नहीं बनाएगा या लागू करेगा जो संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिकों के विशेषाधिकारों या प्रतिरक्षा को कम कर देगा; न ही कोई राज्य कानूनी प्रक्रिया के बिना किसी व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति से वंचित करेगा; न ही अपने अधिकार क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को समान कानूनी सुरक्षा से वंचित करेगा।’’इन मौलिक अधिकारों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में भी लगभग अक्षरश: शामिल किया गया।

चौदहवें संशोधन का इतिहास श्वेत और अश्वेत अमेरिकियों के बीच नस्ल संबंधों के इतिहास और विकास को दर्शाता है। 1896 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने ‘अलग किंतु बराबर’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया। 1954 में ‘ब्राउन बनाम बोर्ड आफ एजुकेशन’ मामले में इसे उलट दिया गया, जिसमें कहा गया था कि ‘अलग-अलग समान नहीं हो सकते’।

नस्लीय भेदभावपूर्ण कानूनों को ‘कड़ी जांच’ के अधीन रखा गया और केवल तभी लागू करने का प्रावधान किया गया था जब ‘बाध्यकारी सरकारी हित’ लागू हों और नस्ल का उपयोग ‘बहुत तंग’ हो। बाद के दो निर्णयों- कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ‘रीजेंट्स बनाम बक्के’ (1978) और ‘ग्रुटर बनाम बोलिंगर’ (2003)- में न्यायालय ने इस दृष्टिकोण की पुष्टि की कि ‘‘छात्र निकाय में विविधता राज्य-हित का विषय है, जो विश्वविद्यालय प्रवेश में नस्लीय उपयोग को उचित ठहराया सकता है’’। न्यायालय ने छात्रों के चयन पर विश्वविद्यालयों के फैसले को भी टाल दिया।

बीस वर्षों के बाद, कानून के उपरोक्त कथन को पलट दिया गया है। विडंबना यह है कि कानून को बहुसंख्यक श्वेत अमेरिकियों के कहने पर नहीं, बल्कि एक छात्र संगठन के कहने पर दुबारा लिखा गया है, जो अन्य अल्पसंख्यकों, खासकर एशियाई-अमेरिकियों के प्रतिनिधित्व का दावा करता है!

रिपब्लिकन बनाम डेमोक्रेट

हार्वर्ड और यूएनसी मामलों का निर्णय छह न्यायाधीशों में से तीन के बहुमत से किया गया। उन्हें रूढ़िवादी और उदारवादी करार दिया गया है। छह ‘रूढ़िवादी’ न्यायाधीशों, मुख्य न्यायाधीश जान राबर्ट्स और जस्टिस थामस, अलिटो, गोरुश, कवानुघ और बैरेट को रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों द्वारा नियुक्त किया गया था। तीन ‘उदार’ न्यायाधीशों, जस्टिस सोतोम्योर, कगन और जैक्सन, डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों द्वारा नियुक्त किए गए थे। सतही तौर पर, यह रूढ़िवादी बनाम उदार न्यायाधीश का मामला है; पर वास्तव में यह रिपब्लिकन-नियुक्त बनाम डेमोक्रेट-नियुक्त न्यायाधीशों का मामला है।

ठीक ऐसा ही 6:3 के समान बहुमत से ‘नियोजित पितृत्व बनाम केसी’ मामले में हुआ था। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने ‘रो बनाम वेड’ (1973) के फैसले को पलट दिया, जिसमें एक महिला को अपना गर्भपात कराने का अधिकार दिया गया था। सर्वेक्षणों से पता चलता है कि साठ फीसद अमेरिकी ‘केसी’ के फैसले से असहमत हैं।

हार्वर्ड और यूएनसी मामलों में निर्णय, राजनीतिक कार्यपालिका को न्यायाधीशों का चयन करने की शक्ति के खतरे को दर्शाता है। एक राष्ट्रपति, जिसकी पार्टी सीनेट को नियंत्रित करती है, किसी को भी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर सकता है, अगर नामांकित व्यक्ति राष्ट्रपति की राजनीतिक पार्टी की विचारधारा से जुड़ा हो। संविधान के मूल सिद्धांत, संवैधानिक इतिहास और नैतिकता, मिसालें, जनमत का विकास और सबसे ऊपर, वर्तमान लोकाचार और बहुसंख्यक लोगों की इच्छाएं खिड़की से बाहर फेंक दी गई हैं।

न्यायाधीशों की प्राथमिकताएं

यह भारत के लिए एक सबक है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का चयन करने के लिए कार्यपालिका (प्रधानमंत्री) को सशक्त बना कर पूर्व-कालेजियम स्थिति पर वापस लौटना अत्यधिक ध्रुवीकृत राष्ट्र में खतरनाक साबित होगा। शक्ति को विशेष रूप से कालेजियम के पास आरक्षित रखना भी उतना ही अस्वीकार्य है, क्योंकि कालेजियम के पांच न्यायाधीशों की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं और पूर्वाग्रह हैं।

हालांकि शायद ही किसी अयोग्य न्यायाधीश को उच्च न्यायपालिका में नियुक्त किया गया हो, लेकिन ऐसे कई मामले हैं जिनमें योग्य व्यक्तियों को नजरअंदाज कर दिया गया या कालेजियम की सिफारिशों को सरकार ने खारिज कर दिया या अत्यधिक देरी की। इसके अलावा, न्यायालयों में विविधता और प्रतिनिधित्व को बड़ा नुकसान पहुंचा है।

समानता वांछित मानदंड है, प्रतिकूलता एक कठोर वास्तविकता है, विविधता एक महसूस की जाने वाली आवश्यकता है। इन तीनों को संतुलित करने के लिए, हमारे पास ऐसे न्यायाधीशों को चुनने का एक तंत्र होना चाहिए, जो संविधान के मूल सिद्धांतों के प्रति वफादार हो।