किसी भी चुनाव के बाद, विशेष रूप से राज्यों के चुनावों के बाद, बहुत शोर होता है। विजेता जोर-शोर से जश्न मनाते हैं और हारने वाली पार्टियों के लोगों के बीच आरोप- प्रत्यारोपों का शोर-शराबा होता है। चार राज्यों के चुनावों के परिणाम घोषित होने के बाद अपेक्षाकृत शांति असामान्य रही। यदि यह प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के परिपक्व व्यवहार का प्रमाण है, तो हम इसका स्वागत कर सकते हैं। अगर इसका मतलब कांग्रेस के स्तर पर लापरवाही है, तो यह चिंता का विषय है।
मैं अपनी गलती मानते हुए शुरुआत करता हूं। पिछले हफ्ते के स्तंभ में मैंने छत्तीसगढ़ के चुनाव को कांग्रेस के पक्ष में बताया था। मैं गलत था। भाजपा 35 के मुकाबले 54 सीटों के बड़े अंतर से विजयी हुई। कांग्रेस ने शुरू से ही राज्य पर दावा किया था और लगभग सभी चुनाव विश्लेषकों ने इस दावे को स्वीकार किया था। मैंने भी कुछ लोगों के साथ बातचीत के आधार पर इसे स्वीकार किया था। भाजपा को छोड़कर हर कोई परिणाम से आश्चर्यचकित था। यह पता चला कि सामान्य, एससी और एसटी सीटों पर कांग्रेस के वोट शेयर में गिरावट आई है। कांग्रेस 2018 में जीती 14 एसटी सीटों पर भाजपा से हार गई। इससे भाग्य तय हो गया।
नतीजे अप्रत्याशित नहीं
आपको याद होगा कि मैंने राजस्थान और मध्य प्रदेश के संबंध में कांग्रेस के दावों को सही नहीं माना था। राजस्थान में गहलोत सरकार ने अच्छा काम किया था, लेकिन सत्ता विरोधी लहर उसके गले की फांस बन गई थी। गहलोत सरकार के 17 मंत्री और कांग्रेस के 63 विधायक हार गए। यह मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ भारी नाराजगी का संकेत है। आंतरिक सर्वेक्षण में नाराजगी का खुलासा नहीं हो सका था। हो भी क्यों न। वर्ष 1998 से राजस्थान के मतदाताओं की भाजपा और कांग्रेस को अदल-बदल कर सरकार में लाने की आदत जो हो गई है।
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने उल्लेखनीय विफलताओं और भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच योजनाएं लागू कीं। लाभार्थियों, विशेष रूप से महिलाओं को लाभ हस्तांतरित किए गए। पर्यवेक्षक लाडली बहना योजना और अन्य योजनाओं की ओर इशारा करते हैं। यह राज्य हिंदुत्व की प्रयोगशाला रह चुका है। आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों ने यहां गहरी जड़ें जमा रखी हैं। ये संगठन काफी सक्रिय थे। भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े पैमाने पर संगठन-संचालित प्रयास की आवश्यकता थी, और कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से उस तरह की कोशिश नहीं की। भाजपा ने केंद्रीय मंत्रियों और मौजूदा सांसदों सहित बड़े कद के उम्मीदवारों के साथ राज्य में जीत हासिल की। समय और संसाधनों के बड़े ‘निवेश’ का शानदार फायदा उठाते हुए भाजपा ने 163 सीटें जीतीं। कांग्रेस को 66 सीटें ही मिल सकी।
तेलंगाना के बारे में मैंने बीआरएस सरकार के खिलाफ ग्रामीणों में असंतोष की लहर को महसूस किया था और एक आश्चर्य की भविष्यवाणी की थी। के चंद्रशेखर राव को अलग राज्य हासिल करने और लाभकारी योजनाओं को शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। उदाहरण के लिए, रायथु बंधु- जिससे किसानों को धन हस्तांतरित किया गया। लेकिन सत्ता चार जोड़ी हाथों (सभी एक परिवार के) में केंद्रित रही। भ्रष्टाचार के आरोप, हैदराबाद केंद्रित विकास, स्व में लीन मुख्यमंत्री और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी ने सरकार के खिलाफ लहर पैदा की। हैदराबाद में 16 सितंबर, 2023 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद तुक्कुगुडा रैली में मजबूत सत्ता विरोधी लहर दिखाई दी थी। रेवंत रेड्डी ने आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान के जरिए कांग्रेस को जीत दिलाई।
भाजपा का प्रदर्शन
राज्य | प्राप्त मत | वोट शेयर |
छत्तीसगढ़ | 72,34,968 | 46.27 |
मध्य प्रदेश | 2,11,13,278 | 48.55 |
राजस्थान | 1,65,23,568 | 41.69 |
तेलंगाना | 32,57,511 | 13.90 |
कांग्रेस का प्रदर्शन
राज्य | प्राप्त मत | वोट शेयर |
छत्तीसगढ़ | 66,02,586 | 42.23 |
मध्य प्रदेश | 1,75,64,353 | 40.40 |
राजस्थान | 1,56,66,731 | 39.53 |
तेलंगाना | 92,35,792 | 39.40 |
काफी कम अंतर
हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में हार के बावजूद कांग्रेस के मत बने हुए हैं। आंकड़े गवाही दे रहे हैं। अच्छी खबर यह है कि द्वि-ध्रुवीय, प्रतिस्पर्धी राजनीति जीवंत है। चार राज्यों में कांग्रेस के मतों की हिस्सेदारी 40 फीसद (लगभग 2018 के बराबर) है, जो चुनावी लोकतंत्र के लिए अच्छा है। हालांकि, भाजपा ने सभी चार राज्यों में वोट की हिस्सेदारी में वृद्धि की और चार राजधानी शहरों और शहरी क्षेत्रों में अधिकांश सीटें जीतीं। दूसरी अच्छी खबर यह है कि मध्य प्रदेश को छोड़कर मतों में अंतर बहुत कम है। छत्तीसगढ़ में 4.04 फीसद का अंतर आदिवासी वोटों के शिफ्ट होने के कारण था। एसटी के लिए आरक्षित 29 सीटों में से भाजपा ने 17 और कांग्रेस ने 11 सीटें जीतीं। राजस्थान में 2.16 फीसद का अंतर कम था।
बदल गई है चुनावों की शैली
अंतर को पाटा नहीं जा सकता लेकिन इसके लिए चुनावों की बदली हुई प्रकृति की समझ की आवश्यकता होगी। चुनाव अब भाषण बनाम भाषण, रैली बनाम रैली, नीति बनाम नीति या घोषणापत्र बनाम घोषणापत्र नहीं हैं। वे आवश्यक हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। अंतिम छोर तक प्रचार, बूथ प्रबंधन और निष्क्रिय मतदाता को मतदान केंद्र तक लाने के आधार पर चुनाव जीते या हारे जाते हैं। इसके लिए प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में समय, ऊर्जा, मानव और वित्तीय संसाधनों के भारी निवेश की आवश्यकता होती है, जो परिणामों के जरिए भाजपा ने सफलतापूर्वक किया।
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की हवा है। इसके अलावा, भाजपा हिंदुत्व के एजंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगी, जिससे कम से कम हिंदी भाषी राज्यों में मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो सके। इससे संघवाद, धर्मनिरपेक्षता, संस्थागत स्वतंत्रता, व्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता, गोपनीयता और भयमुक्त माहौल को नुकसान पहुंच सकता है। आखिरकार, यह पर्याप्त नहीं होगा कि हम भारतीय लोग एक सरकार चुन लें; जरूरी यह होगा कि लोकतंत्र के स्तंभों को ढहाए जाने से बचाया जाए।