बीजेपी की कद्दावर नेता और विदेशी मंत्री सुषमा स्वराज ने 2019 लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने की इच्छा जताई है। पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के बीच स्वराज की यह घोषणा राजनीतिक गलियारों में खलबली मचाने के लिए काफी है। हर जगह उनकी कार्यशैली और मौजूदा मोदी सरकार में उनकी स्थिति की समीक्षा होने लगी है। हालांकि, उन्होंने अपने बयान में एक स्पेस छोड़ रखा है। जिसके मुताबिक आखिरी फैसला पार्टी को लेना है। मगर बीते 4 सालों की परिस्थितियों के हवाले से सियासी चिंतक उनके खराब स्वास्थ्य के अलावा मोदी सरकार में साइडलाइन होना बड़ी वजह बता रहे हैं। इसी साल बतौर विदेश मंत्री उनके एक फैसले की वजह से वह ट्रोलिंग का शिकार हुईं। इस दौरान वह बिल्कुल अकेली नज़र आयीं और पार्टी के नेता भी इस मसले पर बोलने से कतराते हुए देखे गए।

मोदी सरकार में सुषमा की स्थिति: जुलाई 2018 में जब सुषमा स्वराज पर ट्रोल हावी थे। तब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में ट्रोल पर लिखे एक लेख में स्वराज का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया और उनके राजनीतिक दर्शन की सराहना की। चिदंरबम ने अपने लेख के जरिए मोदी सरकार की कार्यशैली को भी कटघरे में खड़ा किया। उन्होंने लिखा, ” वह (सुषमा स्वराज) सुशिक्षित, शालीन और व्यक्तित्व की धनी हैं। वह आदर्श हिंदू नारी की भाजपाई छवि से अपनी पहचान जोड़ने के लिए सजग रही हैं। वह कई बार चुनाव जीती हैं। 2009 से 2014 के दौरान लोकसभा में विपक्ष की नेता थीं। एक ऐसा पद जो संसदीय लोकतंत्र में, पार्टी के जीतने की सूरत में उन्हें प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बनाता था।”

इसी लेख में चिंदबरम नरेंद्र मोदी को सुषमा स्वराज को पीएम नहीं बनने देने के लिए जिम्मेदार बताते हैं। उन्होंने लिखा, ” बीजेपी ने 2014 का चुनाव जीता, पर पार्टी की नेता और फलस्वरूप प्रधानमंत्री बनने की उनकी राह, भारी ऊर्जा और राजनीतिक कौशल से भरे एक बाहरी खिलाड़ी ने रोक दी। सुषमा स्वराज ने लालकृष्ण आडवाणी के साथ मिलकर नरेंद्र मोदी के आरोहण का विरोध किया था, लेकिन वह इसमें नाकाम रहीं।”

चिदंबरम का पूरा लेख यहां पढ़ें- दूसरी नज़र भीड़ के निशाने

विदेश मंत्रालय में अलग पहचान: मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में सुषमा स्वराज बतौर विदेश मंत्री अपनी अलग पहचान रखने वाली शख्सियत के रूप में मशहूर रही हैं। हालांकि, विदेश नीति के मामलों में उनकी कोई स्वायत्त पहल चर्चा नहीं बटोर सकी है। लेकिन, विदेश मंत्री रहते हुए आम लोगों की छोटी-मोटी परेशानियों को तुरंत हल करने की उनकी कोशिशें हमेशा सुर्खियों में रही हैं। आम आदमी का पासपोर्ट का मसला हो या विदेश में फंसे भारतीयों की स्वदेश वापसी। हर मुमकिन कोशिश में उनकी सक्रिय भूमिका रही है। इसी सक्रियता के क्रम में वह एक बार ट्रोल के निशाने पर रहीं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक एक अंतर-धार्मिक जोड़े ने एक अधिकारी पर पासपोर्ट जारी नहीं करने का आरोप लगाया और अपनी शिकायत ट्वीटर पर डाल दी। जिसके बाद सुषमा ने संज्ञान लिया और आरोपी अधिकारी का ट्रांसफर कर दिया गया। इसके अलावा उसके खिलाफ जांच शुरू हो गयी। लेकिन, उनकी यह कोशिश कट्टर हिंदूवादी संगठनों को रास नहीं आयी। उन्हें सोशल मीडिया पर जमकर ट्रोल किया गया। हालांकि, इस मसले पर सुषमा ने कभी भी खुलकर अपनी बात नहीं कही।

राजनीतिक शख्सियत: बीते लगभग 4 सालों से सुषमा स्वराज की बोली कभी-कभार ही सुनने को मिली है। अधिकांश समय उन्होंने चुप्पी साधे ही रखी है। वर्ना 2014 से पहले उनके बयान हमेशा सुर्खियों में रहते थे। स्वराज को शुरुआत से ही राजनीतिक गतिविधियों से पाला पड़ गया था। 14 फरवरी 1952 को उनका जन्म अंबाला छावनी में संघ से जुड़े पिता के यहां हुआ। 70 के दशक में ही विद्यार्थी परिषद से नाता जुड़ गया और शादी के बाद चूंकि उनके पति स्वराज कौशल, सोशलिस्ट नेता जॉर्ज फर्नांडिस के काफी करीबी थे, इसलिए सक्रिय राजनीति में भी उनकी ख़ास पैठ होती चली गयी। आपातकाल के वक्त जयप्रकाश के आंदोलन में उन्होंने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया और इस दौरान जनता पार्टी की सदस्य बन गयीं। 1977 में उन्होंने अंबाला छावनी से विधानसभा चुनाव जीता और देवीलाल की सरकार में 1977-1979 के बीच प्रदेश की श्रम मंत्री रहीं। इसके बाद 25 साल की उम्र में कैबिनेट मंत्री बनने का भी रिकॉर्ड बनाया।

80 के दशक में बीजेपी के अस्तित्व में आने के साथ ही उन्होंने अपना नाता इस दल से जोड़ लिया। 1987 से 1990 तक उन्होंने लगातार बतौर विधायक अंबाला छावनी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। बीजेपी-लोकदल सरकार में वह शिक्षा मंत्री भी रहीं। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीति में उन्हें 13 दिन की वाजपेयी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। इसके बाद 1998 में दक्षिणी दिल्ली से उन्होंने लोकसभा चुनाव जीता और इस बार फिर वाजपेयी सरकार में उन्हें दूरसंचार के अतिरिक्त प्रभार के साथ-साथ सूचना और प्रसारण मंत्रालय दिया गया। मार्च 1998 से अक्टूबर 1998 तक वह इस पद पर रहीं। लेकिन, जल्द ही उन्हें दिल्ली की जिम्मेदारी दे दी गयी। 12 अक्टूबर 1998 को सुषमा स्वराज ने दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला। हालांकि, जल्द ही 3 दिसंबर 1998 को सीएम पद से इस्तीफा देकर राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गयीं। सितंबर 1999 में उन्हें सोनिया गांधी के खिलाफ कर्नाटक के बेल्लारी संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया गया। इस दौरान स्वराज अपने चुनावी सभाओं में कन्नड बोलती दिखायी दीं। हालांकि, 7 फसदी के मार्जिन से वह चुनाव हार गईं। अप्रैल 2000 में दोबारा राज्यसभा में उनकी दोबारा वापसी हुई। फिर उन्होंने 2000 से 2003 तक केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री के तौर पर अपना काम किया।

2009 के लोकसभा चुनाव में भले बीजेपी हार गयी। लेकिन, मध्य प्रदेश की विदिशा सीट से चुनाव लड़ रहीं सुषमा स्वराज ने 4 लाख से भी अधिक मतों के अंतर से अपने प्रतिद्वंदी को हरा दिया। 2009 से 2014 तक वह पंद्रहवीं लोकसभा में सदन की नेता विपक्ष रहीं। साल 2016 में किडनी के रोग से ग्रसित होने की वजह से एम्स में उनकी किडनी ट्रांसप्लांट करनी पड़ी। इसके कुछ ही महीनों बाद स्वराज अपना मंत्रालय संभालने में जुट गईं।