रंजना मिश्रा
अब एक नया तथ्य सामने आया है कि पृथ्वी के अंदर सतह से सात सौ किलोमीटर नीचे एक विशाल महासागर छिपा हुआ है। यह महासागर ‘रिंगवुडाइट’ नामक खनिज में स्थित है, जो पृथ्वी की ऊपरी ‘मेंटल’ में पाया जाता है। ‘मेंटल’ पृथ्वी की सतह के नीचे पैंतीस किलोमीटर से 2900 किलोमीटर तक फैला हुआ है।
रिंगवुडाइट की क्रिस्टल संरचना में हाइड्राक्साइड आयन होते हैं। यह स्पंज की तरह होता है, जो पानी को अपने अंदर सोखने की क्षमता रखता है। रिंगवुडाइट एक अत्यंत घना खनिज है, जो पृथ्वी के गहरे भागों में उच्च दबाव और तापमान के कारण बनता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के नीचे मौजूद महासागर में पृथ्वी की सतह के सभी महासागरों से तीन गुना अधिक पानी मौजूद हो सकता है। प्रसिद्ध भूविज्ञानी स्टीव जैकबसेन ने यह रोमांचक खोज की है।
वैज्ञानिक कई दशक से गहरे पानी की तलाश कर रहे हैं। यह खोज उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि है। यह खोज अमेरिका में दो हजार से अधिक भूकम्पमापी संयंत्रों की मदद से की गई है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह पानी पृथ्वी के अंदर ही बना है। यह ज्वालामुखी विस्फोटों और अन्य भूवैज्ञानिक गतिविधियों के माध्यम से सतह पर आता है।
यह खोज बेहद महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह पृथ्वी के जल चक्र को समझने में हमारी मदद कर सकती है। इससे यह समझने में भी मदद मिल सकती है कि पृथ्वी पर जीवन कैसे शुरू हुआ और पृथ्वी की प्लेटें कैसे गति करती हैं, भूकम्प कैसे आते हैं। हालांकि यह खोज अभी शुरुआती चरण में है और वैज्ञानिकों को बहुत शोध करने की आवश्यकता है। वैज्ञानिक यह भी अध्ययन कर रहे हैं कि इस पानी का पृथ्वी के जलचक्र और जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है।
यह संभव है कि यह महासागर पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति का स्रोत हो और यह हमें अन्य ग्रहों पर जीवन की खोज में भी मदद कर सकता है। हालांकि, इस महासागर का अध्ययन करना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि यह पृथ्वी की सतह से बहुत गहराई में स्थित है। वैज्ञानिकों को भूकंपीय तरंगों का उपयोग करके ही इस महासागर का अध्ययन करना होगा और यह एक धीमी और जटिल प्रक्रिया है।
यह अब भी स्पष्ट नहीं है कि इस महासागर में पानी किस रूप में मौजूद है। यह तरल पानी, बर्फ या किसी अन्य रूप में हो सकता है। वैज्ञानिकों को यह भी पता लगाना होगा कि यह महासागर पृथ्वी के अन्य भागों से कैसे जुड़ा हुआ है। वैज्ञानिक यह भी पता लगाने की कोशिश करेंगे कि क्या इस पानी का उपयोग किया जा सकता है। यह खोज हमें भविष्य में पानी की कमी से निपटने में भी मदद कर सकती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी पर पानी लगभग 4.6 अरब साल पहले आया था। पृथ्वी की सतह का लगभग 71 फीसद हिस्सा पानी से ढका है। अधिकतर पानी खारा है, जो पीने या खेती योग्य नहीं है। पृथ्वी का केवल तीन फीसद पानी ताजा है, जो पीने और खेती के लिए उपयोगी है। पृथ्वी की सतह पर पानी की उत्पत्ति को लेकर कई सिद्धांत हैं।
प्लेट टेक्टोनिक्स सिद्धांत बताता है कि पृथ्वी की सतह लगातार गतिमान है और टकरा रही है। इस गति के कारण, पृथ्वी के मेंटल में मौजूद पानी क्रस्ट में दरारों के माध्यम से सतह पर आ सकता है। ज्वालामुखी सिद्धांत के अनुसार, ज्वालामुखी विस्फोटों के माध्यम से पृथ्वी के मेंटल से पानी सतह पर आ सकता है। दरअसल, ज्वालामुखी विस्फोटों से निकलने वाली गैसों में जल वाष्प भी शामिल होता है, जो बाद में वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिर जाता है।
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि क्षुद्रग्रहों और धूमकेतुओं के पृथ्वी से टकराने के बाद उसके प्रभाव से पानी उत्पन्न हुआ होगा। एक और सिद्धांत कहता है कि पृथ्वी पर पानी रासायनिक प्रतिक्रियाओं से बना था। पृथ्वी के शुरुआती वायुमंडल में हाइड्रोजन और आक्सीजन गैसें मौजूद थीं और इनकी प्रतिक्रिया से पानी का निर्माण हुआ। अब भी इस विषय पर शोध जारी है और यह पता लगाया जाना है कि किस सिद्धांत ने सबसे बड़ा योगदान दिया है।
वैज्ञानिक जैकबसेन के अनुसार, पृथ्वी की सतह के नीचे मिले महासागर के पानी का पृथ्वी के अंदर रहना ही ठीक है। अगर इतना पानी धरती पर आ गया तो पूरी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी और पहाड़ों की चोटियों के अलावा कुछ नहीं दिखेगा। अब दुनिया के वैज्ञानिक भूकम्पीय डेटा इकट्ठा करना चाहते हैं, जिससे पानी की समझ को और मजबूत किया जा सके। इस खोज के बाद अब यह संभावना जताई जा रही है कि शायद समय के साथ पृथ्वी की सतह के नीचे मौजूद महासागर से ही समुद्र बाहर निकले होंगे।
2014 में प्रकाशित ‘डिहाइड्रेशन मेल्टिंग ऐट द टाप आफ लोअर मेंटल’ नामक शोध पत्र निचले मेंटल के शीर्ष पर खनिजों के निर्जलीकरण से उत्पन्न पिघलने की प्रक्रिया का विस्तृत विवरण प्रदान करता है। निचले मेंटल के शीर्ष पर निर्जलीकरण और पिघलना एक जटिल प्रक्रिया है, जो पृथ्वी के आंतरिक भाग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह प्रक्रिया भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट और प्लेट विवर्तनिकी जैसी घटनाओं को प्रभावित करती है।
दरअसल, पिघला हुआ मैग्मा कम घनत्व वाला होता है और ऊपर की ओर उठता है, जिससे मेंटल में संवहन धाराएं बनती हैं। ये धाराएं प्लेट विवर्तनिकी को चलाने में मदद करती हैं। पिघला हुआ मैग्मा ज्वालामुखी विस्फोटों का स्रोत भी हो सकता है। मैग्मा के पिघलने से चट्टान कमजोर हो सकती है, जिससे भूकंप की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा, पिघले हुए मैग्मा में विद्युत प्रवाहकता होती है, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को उत्पन्न करने में योगदान देती है।
इस शोध में रिंगवुडाइट नामक खनिज के गुणों पर भी प्रकाश डाला गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि भूकम्पीय डेटा का अध्ययन करके पृथ्वी के अंदर मौजूद पानी के बारे में हमारी समझ को और बेहतर बना सकते हैं। यह ज्ञान हमें भविष्य में होने वाली प्राकृतिक आपदाओं की भविष्यवाणी करने और उनसे बचाव के लिए बेहतर तरीके विकसित करने में मदद कर सकता है।
यह खोज पृथ्वी के जलवायु को बेहतर ढंग से समझने में भी मदद करेगी। दरअसल, गहरे पानी में मौजूद खनिज और रसायन हमें पृथ्वी के जलवायु इतिहास के बारे में जानकारी दे सकते हैं। यह जानकारी हमें भविष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को बेहतर ढंग से समझने और भविष्यवाणी करने में मदद कर सकती है। गहरे पानी में खनिज और ऊर्जा के नए स्रोत हो सकते हैं।
इन संसाधनों की खोज हमें ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है। गहरे पानी में मौजूद सूक्ष्मजीव हमें जीवन की उत्पत्ति और विकास के बारे में जानकारी दे सकते हैं। यह खोज निश्चित रूप से वैज्ञानिक समुदाय के लिए एक बड़ी उपलब्धि है और इसमें मानव जाति के लिए कई संभावित लाभ हैं।