ये एक साल…..बड़ा बुरा होता है। याद है? यह बॉबी फिल्म के एक गीत की लाइन है… बचपन और जवानी के बीच का यह साल बड़ा बुरा होता है। लेकिन हम जो बात कहने जा रहे हैं वह फिल्मी न होकर राजनैतिक है। भारतीय राजनीति में एक साल ऐसा है जो प्रधानमंत्रियों के लिए बड़ा बुरा होता है। यह साल है सातवां। जैसे ही कोई प्रधानमंत्री इस साल में प्रवेश करता है, वह लड़खड़ाने लगता है। आप खुद याद कर लीजिए। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी। ये सब कार्यकाल के सातवें साल में लड़खड़ा गए। और, बाकी प्रधानमंत्री। बाकी सातवें साल तक पद पर टिक ही नहीं सके।

जवाहर लाल नेहरूः भले ही कांग्रसे संगठन सरदार पटेल को पसंद करता रहा हो लेकिन जिस आदमी को भारत और पूरे विश्व में प्यार किया जाता था, वह शख्स जवाहर लाल नेहरू ही था। नेहरू 1947 में प्रधानमंत्री के पद पर बैठे थे। कनाडा के राजनयिक एस्कॉट रीड नेहरू की तारीफ में लिखते हैं कि भारतीय जनता के लिए नेहरू वाशिंग्टन, लिंकन, रूज़वेल्ट और आइज़नहावर का मिलाजुला रूप हैं।

नेहरू के सामने पहली चुनौती कश्मीर पर हुए कबाइली हमले के रूप में आई थी। उस घटनाक्रम के लिए कांग्रेस को आज भी सुनना पड़ता हो लेकिन उस वक्त नेहरू उससे उबर कर बांधों, स्टील कारखानों, आइआइटियों और गुटनिरपेक्ष आंदोलन जैसे कामों में जुट गए थे। देश के बच्चे चाचा नेहरू जिंदाबाद के नारे लगाए जा रहे थे।

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फिर आया कार्यकाल का सातवां साल। इसी साल दलाई लामा तिब्बत से जान बचाकर भारत आए थे। इसी साल चीन ने सीमा पर झड़पें शुरू कर दी थीं। संसद में इन्हें लेकर सवाल उठने लगे थे। नेहरू इस बीच दो बड़े अनोखे काम कर चुके थे। उन्होंने तिब्बत पर चीन का वर्चस्व स्वीकार कर लिया था और इसी के साथ चीन के वर्चस्व को अस्वीकार करने वाले तिब्बत के बागी सत्ताधारी दलाई लामा को शरण दे चुके थे। चीन सीमा पर बदमाशियां करता रहा। नेहरू को दिखाई ही नहीं दिया। वे सांस्कृतिक कारणों से चीन के फैन थे। फिर वे चीन की क्रांति के भी फैन हो गए। संसद में उनकी खूब खिंचाई होती थी।

ऐसी ही किसी बहस में विपक्षी नेता ने वह जवाब दिया था जो आज जोक की तरह इस्तेमाल होता है। नेहरू ने सीमा के किसी क्षेत्र के लिए कह दिया था..अरे वहां तो घास भी नहीं उगती। जवाब में विपक्ष के नेता ने कहा था, उगता तो आपके (गंजे) सर पर भी कुछ नहीं तो क्या उसे भी चीन को दे दिया जाए। इस तरह सातवें साल 1959 में शुरू हुई फजीहत 1962 में चीन से जंग में हारने पर समाप्त हुई। कहते हैं कि नेहरू यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और दो साल बाद 1964 में उनकी मौत हो गई।

इंदिरा गांधीः प्रियदर्शिनी इंदिरा ने 1966 में जब प्रधानमंत्री पद संभाला था तो उन्हें गूंगी गुड़िया तक कहा जाता था। लेकिन यही महिला आगे चलकर लोकप्रियता के उस शिखर तक पहुंची, जहां दूसरों को पहुंचना अभी बाकी है। उनकी साख दिन-ब-दिन बढ़ती गई। पहले तो उन्होंने कांग्रेस के विरोधी खेमे को ध्वस्त किया, फिर रजवाड़ों का प्रिवीपर्स बंद किया और अंत में बैंको का राष्ट्रीयकरण कर डाला। हल्ला मचने लगा इंदिरा गांधी गरीबों की मसीहा हैं। इस इमेज के लिए उनका गरीबी हटाओ नारा बहुत काम आया। उनको आइरन लेडी कहा जाने लगा। भावुक और गरीब भारत उनमें देवी की छवि देखने लगा। 1971 में बांग्ला देश बनने के बाद तो उनके सियासी दुश्मन भी उनको दुर्गा अवतार के रूप में देखने लगे थे।

लेकिन, फिर आ गया सातवां साल यानी वर्ष 1975…वह साल जब गुड़ के गोबर होने की शुरुआत हुई। गुजरात और बिहार में 1974 से चल रहा जो छात्र आंदोलन भारत का नया इतिहास लिखने जा रहा था, वह इस साल काफी उग्र हुआ लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इससे फिलहाल कोई फर्क नहीं पड़ा, हालांकि आंदोलन में जेपी और उनके शिष्य भी कूद चुके थे। फर्क पड़ा 12 जून 1975 के दिन जब इलाहाबाद हाइकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने एक मामले की सुनवाई करते हुए इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा निर्वाचन को रद्द कर दिया।

फिर क्या था। देखते ही देखते छात्र आंदोलन जेपी की अगुवाई में राजनैतिक आंदोलन में बदल गया। कांग्रेस के दूसरे धड़े के लोग, जनसंघ और समाजवादी सब एक साथ मिल गए। आज के लालू, नीतीश, लालकृष्ण आडवाणी और यहां तक कि नरेंद्र मोदी तक इसी आंदोलन की देन हैं। एक वक्त ऐसा भी आया जब जेपी ना और पुलिस से सरकार के गलत आदेश न मानने की अपील कर रहे थे। इंदिरा ने ऐसे में अपने कुछ सलाहकारों के समझाने पर 25 जून 1975 को देश आंतरिक इमरजेंसी लगा दी। उसके बाद जेपी समेत लगभग सभी विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रेस सेंसरशिप लागू हो गई। बीस सूत्रीय कार्यक्रम चला और आबादी घटाने के मकसद से जबरन नसबंदियां की गईं।

लेकिन इंदिरा ने अंततः 1977 में इमरजेंसी हटाई और आम चुनाव हुए। कांग्रेस बुरी तरह हारी। इंदिरा 1979 के चुनावों में दोबारा सत्ता में आईं। लेकिन फिर वह बात नहीं रही। गलतियां होती गईं। ऑपरेशन ब्लू स्टार भी शायद गलती ही थी, जिसके नतीजे में ही कुछ दिन बाद अक्टूबर 1984 में उनकी जान चली गई।

डॉ मनमोहन सिंहः सातवें साल के प्रकोप से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नहीं बच सके। विपक्ष की नज़र में मजबूरी में प्रधानमंत्री बनाए गए इस शख्स ने जब 2004 में पद भार संभाला तो वित्त मंत्री के तौर में पहले से बड़ा नाम था। प्रधानमंत्री के रूप में भी उनका नाम बढ़ता ही गया। विपक्ष खासतौर पर भाजपाइयों के बीच मितभाषी प्रधानमंत्री भले ही मौनमोहन सिंह के रूप में जाने जाते थे लेकिन उनके कार्यकाल में भारत ने जो आर्थिक ऊंचाइयां छुईं उनको अगली सरकार अभी तक नहीं छू पाई है। यह उनके ही काल में हुआ कि विकास दर आठ और नौ प्रतिशत तक हो गई। उन्हीं के समय सेल्स टैक्स सरल होकर वैट बना। उदारीकरण की प्रक्रिया बढ़ी और उद्योगों के विकास के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र, सेज़ बनाए गए। मनरेगा, अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील और एक समय पर जीडीपी 10.08 का अंक छू गई।

इन तमाम जलवों के बीच आया मनमोहन का सातवां साल, यानी वर्ष 2011, जिसने उनको फिर नहीं उबरने दिया। यह साल मनमोहन और उनकी पार्टी कांग्रेस के लिए अन्ना हजारे का रूप ले कर आया। अन्ना ने जनलोक पाल के लिए वो जोरदार आंदोलन छेड़ा कि पूरा देश उनके साथ जुड़ सा गया। अरविंद केजरीवाल, उनकी टीम के नेता, किरन बेदी, योगेन्द्र यादव, आदि तमाम नेता उभर कर साथ आ गए। कहा जाता है कि आंदोलन के पीछे संघ और भाजपा का वैसे ही हाथ था जैसे जेपी आंदोलन के समय जनसंघ का हाथ था। अन्ना के आंदोलन के बाद जनलोकपाल भले ही न बना हो लेकिन मनमोहन और कांग्रेस सत्ता की सीढ़ी फिर न चढ़ सके।

नरेंद्र मोदीः भले ही मौजूदा प्रधानमंत्री की उपलब्धियां कांग्रेस और दूसरे विपक्षियों को न दिखें लेकिन ऐसा है नहीं। स्वच्छ भारत, गरीबों के घर में गैस चूल्हा, जीएसटी, धारा 370 का खात्मा, तलाक कानून और अयोध्या में राम मंदिर के लिए शिलान्यास आदि अनेक काम हैं जिनके लिए लोग मोदी का नाम लेते हैं। कट्टर समर्थक तो उनकी नोटबंदी को भी सराहते हैं। यही नहीं उन्हें दुनिया में भारत की अच्छी छवि निखारने वाले के रूप में भी जाना जाता है।

लेकिन, जैसा कि पिछले तीन प्रधानमंत्रियों ने देखा, यह सातवां साल बड़ा बुरा होता है। सो, मोदी जी के बिना कुछ किए शासन के सातवें साल यानी 2021 में कोरोना वाइरस ने उनकी छवि पर हमला करना शुरू कर दिया। तर्क करने वाले कह सकते हैं कि कोरोना तो 2020 में ही आ गया था। आ तो गया था लेकिन वह सरकार की छवि बिगाड़ने की बजाए उलटे बना कर गया था। शायद इसलिए कि वह छठा साल था। पिछले साल तो जब दुनिया के कई देश कोरोना वाइरस से जूझ रहे थे उस समय हम राष्ट्रपित ट्रम्प तक को हाइड्रोक्लोरोक्विन जैसी दवाइयां दे पा रहे थे। तो वही वही हुआ कि जो कोरोना 2020 मे बाल भी बांका नहीं कर पाया, उसने 2021 में मोदी जी की छवि को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया। सोशल मीडिया ही नहीं औपचारिक मीडिया भी विरोध में लिखने लगा। यहां तक कि विदेशों में भी उनके खिलाफ लिखा गया। कहा भी गया हैः

मनुज बली नहीं होत है, समय होत बलवान
भिल्लन लूटीं गोपियां वहि अर्जुन वहि बान