कोई भी भाषा जब मातृभाषा नहीं रह जाती, तो उसके प्रयोग की अनिवार्यता और उससे मिलने वाले रोजगार मूलक कार्यों में भी कमी आने लगती है। पिछले पचहत्तर वर्षों में हमारी भाषा और बोलियों के साथ यही होता रहा है। पर अब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत उल्लेखनीय पहल करते हुए केंद्र सरकार नए सत्र से पांच नए उपाय करने जा रही है। इनमें बच्चों को मातृ, घरेलू और क्षेत्रीय भाषा में पाठ्य पुस्तकें पढ़ाने पर जोर दिया जाएगा। इसके लिए बावन पाठ्य पुस्तकें तैयार की गई हैं। देश में ऐसी 121 भाषाएं हैं, जिन्हें क्षेत्रीय लोग स्थानीय स्तर पर लिखने और बोलने में प्रयोग करते हैं। जल्दी ही देश के बाकी राज्यों की आंचलिक भाषाओं में प्रवेशिकाएं उपलब्ध करा दी जाएंगी। यह विलुप्त हो रही मातृभाषाओं का अस्तित्व बचाने की परिवर्तनकारी पहल है।

क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। कोई भी भाषा कितने ही छोटे क्षेत्र में, भले कम से कम लोगों द्वारा बोली जाती हो, पर उसमें पारंपरिक ज्ञान का असीम खजाना होता है। ऐसी भाषाओं का उपयोग जब मातृभाषा के रूप में नहीं रह जाता, तो वे विलुप्त होने लगती हैं। खासकर आदिवासी और अन्य जनजातीय भाषाएं लगातार उपेक्षा का शिकार होने के कारण विलुप्त हो रही हैं। भारत में ऐसे हालात सामने आने लगे हैं कि किसी एक इंसान की मौत के साथ उसकी भाषा का भी अंतिम संस्कार हो जाता है। 26 जनवरी, 2010 को अंडमान द्वीप समूह की पचासी वर्षीय बोआ के निधन के साथ अंडमानी भाषा ‘बो’ भी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। इस भाषा को जानने, बोलने और लिखने वाली वह अंतिम इंसान थी। इसके पहले नवंबर 2009 में एक और महिला बोरो की मौत के साथ ‘खोरा’ भाषा का अस्तित्व समाप्त हो गया था।

किसी भी भाषा की मौत के साथ उस भाषा का ज्ञान भंडार, इतिहास, संस्कृति, उस क्षेत्र के भूगोल से जुड़े तमाम तथ्य भी खत्म हो जाते हैं। इन भाषाओं और इनके बोलने वालों का वजूद खत्म होने का प्रमुख कारण इन्हें जबरन मुख्यधारा से जोड़ना और आधुनिक शिक्षा देना रहा है। ऐसे हालात के चलते ही अनेक आदिम भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं।

भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्हें दस हजार से अधिक संख्या में लोग बोलते हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 121 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं। भाषा-गणना में उन भाषाओं और बोलियों को गिनती में शामिल ही नहीं किया गया, जिनके बोलने वालों की संख्या दस हजार से कम है। ‘नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी ऐंड लिविंग टंग्स इंस्टीट्यूट फार एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज’ के अनुसार हर पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है। सन 2100 तक भूमंडल में बोली जाने वाली सात हजार से भी अधिक भाषाओं का लोप हो सकता है। इनमें से पूरी दुनिया में सत्ताईस सौ भाषाएं संकटग्रस्त हैं। इन भाषाओं में असम की सत्रह भाषाएं शामिल हैं।

यूनेस्को द्वारा जारी एक जानकारी के मुताबिक असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं हैं। इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है। नई पीढ़ी के सरोकार असमिया, हिंदी और अंग्रेजी तक सिमट गए हैं। इसके बावजूद अट्ठाईस हजार देवरीभाषी, साढ़े पांच लाख मिसिंगभाषी और करीब उन्नीस हजार बेइटेभाषी लोग अभी बचे हैं। इनके अलावा असम की बोडो, कार्बो, डिमासा, विष्णुप्रिया, मणिपुरी और काकबरक भाषाओं के जानकार भी लगातार सिमटते जा रहे हैं। घरों, बाजारों और रोजगार में इन भाषाओं का प्रचलन कम होते जाने के कारण नई पीढ़ी इन्हें सीख-पढ़ नहीं रही है।

वही भाषाएं लिपियों के रूप में जीवित रह सकती हैं जो उपयोग में बनी रहती हैं। पूरी दुनिया में पंद्रह हजार से अधिक भाषाएं दर्ज हैं, लेकिन आज उनमें से आधी से ज्यादा मर चुकी हैं। इसका कारण इन्हें उपयोग से वंचित कर देना है। कई लोग भाषाओं की विलुप्ति का कारण आक्रांताओं के हमलों को मानते हैं। भारत में भी ऐसा ही माना गया, लेकिन यह तथ्य थोथा है। फ्रांस में भी यह भ्रम फैला हुआ है। फ्रेंच भाषियों को यह आशंका सता रही है कि वहां की युवा पीढ़ी अंग्रेजी के प्रति आकर्षित है, इसलिए वहां अंग्रेजी से मुक्ति के उपाय सुझाए जा रहे हैं। असल में, भाषा को उपयोगी बनाए रखने की जरूरत है। अगर भाषाएं बोलचाल के साथ पाठ्यक्रम, रोजगार और तकनीक की भाषा बनी रहती हैं तो वह विलुप्त नहीं हो सकतीं। नाइजीरिया और केमरून की बिक्या भाषाएं प्रयोग में न रहने के कारण लुप्त हुईं। इस भाषा को प्रचलन में बनाए रखने वाले एक-एक कर जब मरते चले गए तो उनके साथ भाषा भी काल में समाती चली गई।

वैसे भाषाओं का मरना हर युग और हर देश में एक सिलसिला बना रहा है। भारत की सबसे प्राचीन ब्राह्मी लिपि को आज बांचने वाला कोई नहीं है। इसी तरह एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया की अनेक भाषाएं और बोलियां मरती जा रही हैं।

प्रकृति की विलक्षणता और सामाजिक विविधता की युगों से चली आ रही पहचानों को हम भाषाओं के माध्यम से ही अलग-अलग रूपों में चिह्नित कर पाते हैं। भाषा के माध्यम से ही हम विकास का ढांचा खड़ा कर पाते हैं। इस विकास के साथ जो भाषा जुड़ी होती है, उसकी जीवंतता बनी रहती है। आज अंग्रेजी जहां भाषाओं के खत्म होने में खलनायिका साबित हो रही है, वहीं इसके महत्त्व को इसलिए नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह आधुनिक तकनीक के व्यावहारिक और व्यावसायिक उपयोग का विश्वव्यापी आधार बन गई है। दुनिया की युवा पीढ़ी विश्व समाज से जुड़ने के लिए अंग्रेजी की ओर आकर्षित है। मगर यदि अंग्रेजी इसी तरह पैर पसारती रही, तो दुनिया में भाषाई एकरूपता छा जाएगी, अनेक भाषाएं मर जाएंगी।

भारत की तमाम स्थानीय भाषाएं और बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण संकटग्रस्त हैं। व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा, अभियांत्रिकी तथा प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा बन जाने के कारण अंग्रेजी रोजगारमूलक शिक्षा का प्रमुख आधार बना दी गई है। इन कारणों से उत्तरोत्तर नई पीढ़ी मातृभाषा के मोह से मुक्त होकर अंग्रेजी अपनाने को विवश है। प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाओं में हीन भावना भी पनप रही है। भाषाओं को बचाने के लिए समय की मांग है कि क्षेत्र विशेष में स्थानीय भाषा के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और अन्य सरकारी दफ्तरों में रोजगार दिए जाएं।

इससे अंग्रेजी के फैलते वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और ये लोग अपनी भाषाओं और बोलियों का संरक्षण तो करेंगे ही उन्हें रोजगार का आधार बनाकर गरिमा भी प्रदान करेंगे। ऐसी सकारात्मक नीतियों से ही युवा पीढ़ी मातृभाषा के प्रति हीन भावना से भी मुक्त होगी? इस नजरिए से बावन क्षेत्रीय भाषाओें में पढ़ाई एक अनूठी और आवश्यक पहल है। भाषा संबंधी नीतियों में ऐसे ही बदलावों से लुप्त हो रही भाषाओं को बचाया जाना संभव होगा।