अरविंद कुमार मिश्रा
कार्बन उत्सर्जन की दर घटाने के लिए अनेक उपाय किए जा रहे हैं। जीवन-शैली के साथ वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण और खपत को पर्यावरण अनुकूल बनाया जा रहा है। कोरोना महामारी ने जहां हमें स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील बनाया, वहीं दुनिया भर की सरकारें स्वास्थ्य अवसंरचना को समावेशी बनाने में जुटी हैं। टीके और दवाओं की उपलब्धता न सिर्फ जानमाल की हानि कम करती है, बल्कि इसके वितरण का तरीका पर्यावरण पर असर डालता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर आइपीसीसी की रिपोर्ट आगाह कर चुकी हैं कि धरती के तापमान में डेढ़ फीसद की बढ़त कई तरह की त्रासदी लेकर आएगी। इनमें धरती पर संक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ना सबसे चिंताजनक है। आपदाएं प्राकृतिक हों या मानव निर्मित, चिकित्सा आपूर्ति तंत्र सबसे पहले बाधित होता है। यहां तक कि दुनिया के किसी हिस्से में भू-राजनीतिक तनाव का पहला असर दवाओं, टीके और स्वास्थ्य सेवाओं पर पड़ता है। ऐसे समय में जब जलवायु संकट स्वास्थ्य आपातकाल की शक्ल ले चुका है, दवाओं और टीकों की सार्वभौमिक उपलब्धता स्वास्थ्य सुरक्षा का आधार बनेगी।
‘आब्जर्व रिसर्च फाउंडेशन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में दवा उद्योग सातवां सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है। वार्षिक कार्बन उत्सर्जन में स्वास्थ्य क्षेत्र की 5.2 फीसद हिस्सेदारी है। यह 5 फीसद की दर से सालाना बढ़ रहा है। ऐसे में सामान्य और आपातकालीन दोनों स्थितियों में आवश्यक दवाएं, टीके, पीपीई किट और शल्य उपकरणों की आपूर्ति को अबाध बनाना होगा। चिकित्सा आपूर्ति तंत्र जितना टिकाऊ होगा, कार्बन उत्सर्जन उतना ही कम होगा। यह जानमाल के नुकसान को कम करने के साथ मुनाफाखोरी को भी नियंत्रित करता है।
भारत में टीके की समावेशन दर (कवरेज) 89 फीसद है। हेपेटाइटिस बी, रेबीज, डायरिया, टायफाइड, जापानी इंसेफ्लाइटिस बुखार, मीजल्स, पोलियो, कोरोना जैसी बीमारियों से बचाव में टीके अहम हैं। दुनिया का हर दूसरा टीका पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया से उत्पादित है। भारत बायोटेक इंटरनेशनल जैसी कंपनियां दुनिया भर में टीके की आपूर्ति कर रही हैं।
घरेलू मांग को पूरा करने के साथ भारत विभिन्न बीमारियों से जुड़े टीकों के उत्पादन का बड़ा वैश्विक केंद्र है। नेशनल मेडिकल लेबोरेटरी में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक 40 फीसद टीके की वैश्विक आपूर्ति भारत से हो रही है। भारत में तैयार टीके की उपलब्धता सौ से अधिक देशों में है।
भारत में एक सामान्य बच्चे को जन्म से किशोरावस्था तक दर्जन भर टीके लगाए जाते हैं। कुछ समय पहले बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘बी-मेडिकल’ ने भारत में एक नवाचार पेश किया है। कंपनी ने टीका भंडारण के लिए ऐसे रेफ्रीजरेटर तैयार किए हैं, जो सोलर पैनल से चलते हैं। इनमें बिजली कटौती के बावजूद टीके सुरक्षित रहते हैं।
इससे पहाड़ी और दूरस्थ इलाकों में दवाओं और टीकों की पहुंच आसान बनती है। टीके के भंडारण में हाइड्रोफ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन बढ़ा है, जिसमें वैश्विक ताप बढ़ाने की अत्यधिक क्षमता होती है। ग्रीनहाउस गैसों की शक्ल में कार्बन डाईआक्साइड के मुकाबले हाइड्रोफ्लोरो कार्बन कहीं अधिक घातक है। ऐसे में ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देने वाली ग्रीनहाउस गैसों पर आधारित पारंपरिक प्रशीतक के स्थान पर सोलर पैनल से चलने वाले रेफ्रीजरेटर का उपयोग बढ़ाना होगा।
स्वास्थ्य क्षेत्र के कार्बन उत्सर्जन को कम करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत की भौगोलिक और जनसांख्यिकी विविधता ने इसे और प्रासंगिक बना दिया है। अभी हमारा चिकित्सा आपूर्ति तंत्र मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन पर टिका है। इसे हरित परिवहन प्रणाली की ओर ले जाना होगा। दवाओं की आपूर्ति से लेकर अस्पतालों का संचालन जितना अधिक अक्षय ऊर्जा आधारित होगा, उसका लाभ पर्यावरण, चिकित्सा उद्योग और मरीजों को मिलेगा।
देश में दवाओं से जुड़ा उद्योग अगले सात साल में 130 अरब डालर का हो जाएगा। स्वास्थ्य क्षेत्र ऊर्जा की सबसे अधिक खपत वाला क्षेत्र बना रहेगा। चिकित्सा आपूर्ति शृंखला को अक्षय ऊर्जा आधारित बनाकर हम 2030 तक ऊर्जा खपत में गैर-जीवाश्म स्रोत की हिस्सेदारी 40 फीसद करने के करीब पहुंच सकेंगे। इसके समांतर ऐसी दवाओं के निर्माण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जिन्हें बनाने में ईंधन की खपत कम होती है। वहीं दवाओं के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल पर भी रोक लगानी होगी। इस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन भी चिंता जता चुका है।
देश के कई हिस्सों में ड्रोन के जरिए दवाओं की आपूर्ति का सफल प्रयोग किया जा चुका है। भारत जैसे देश में, जहां भौगोलिक विविधता के साथ जनसांख्यिकी वितरण में भिन्नता है, ड्रोन दवाएं, टीके, रक्त, चिकित्सीय जांच के नमूने, रपट, चिकित्सीय औजार और पोषक आहार की आपूर्ति में सहायक हैं। अधिकांश ड्रोन इलेक्ट्रिक इंजन से चलते हैं, जिनमें लीथियम पालीमर बैटरी का इस्तेमाल होता है। दवाओं की आपूर्ति करने वाले ड्रोन में प्रशीतन की व्यवस्था होती है।
इससे दवाएं, टीके और अन्य वस्तुएं खराब नहीं होती हैं। हालांकि अभी ड्रोन के इस्तेमाल को लेकर भारत में नियामकीय ढांचा प्रारंभिक स्तर पर है, इसे विस्तारित और स्पष्ट करने की जरूरत है। ड्रोन की उपयोगिता प्रत्यक्ष रूप से इससे जुड़े कौशल पर निर्भर करती है। इसे एआइ आधारित अनुप्रयोग से एकीकृत कर संसाधन की बचत की जा सकती है।
वर्तमान में दो तरह के ड्रोन काफी इस्तेमाल किए जा रहे हैं। पहला, ‘फिक्स विंग ड्रोन’, जिन्हें संचालित करने के लिए हवाई जहाज की तरह छोटा रनवे और लांचिग तथा लैंडिंग पैड की जरूरत पड़ती है। लंबी दूरी के लिए ये ड्रोन कारगर हैं, लेकिन इसके लिए काफी बुनियादी ढांचे की जरूरत पड़ती है। वहीं ‘वर्टिकल टेकआफ ऐंड लैंडिंग’ (वीटीओएल) ड्रोन को आसानी से उपयोग में लाया जाता है।
इसमें रनवे की जरूरत नहीं पड़ती है। इसकी दूरी और भारवहन क्षमता उनके उपयोग के आधार पर निर्धारित की जाती है। इन ड्रोन की खासियत है कि ये जिस जगह पर वस्तु की आपूर्ति करते हैं वहां से दूसरी वस्तु ला भी सकते हैं। जरूरत के मुताबिक एक से अधिक जगहों पर इन्हें उतारना संभव है।
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय जैसे राज्यों में ड्रोन के जरिए दवाओं की आपूर्ति प्रायोगिक परियोजना के तौर पर की गई है। विश्व आर्थिक मंच द्वारा ‘मेडिसन फ्राम स्काई’ अभियान अरुणाचल प्रदेश में संचालित किया जा चुका है। तेलंगाना में डब्लूूइएफ ने किसी भी एशियाई देश में इस तरह का पहला प्रयोग किया गया था।
यहां भारत निर्मित तीन सौ ड्रोन से पूर्वी कामेंग जिले में टीके की आपूर्ति की गई। देश में इस समय दो सौ से अधिक ड्रोन स्टार्टअप सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। इसी कड़ी में हिमाचल प्रदेश में छह सौ ड्रोनों के जरिए हवा से आठ हजार मेडिकल उत्पादों की खेप जरूरतमंदों को पहुंचाई गई।
रक्षा, कृषि, आंतरिक सुरक्षा, आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में जिस तेजी से ड्रोन का उपयोग बढ़ा है, उसी तरह वस्तुओं, विशेष रूप से दवा वितरण में ड्रोन उपयोगी साबित होंगे। इसके लिए ‘स्मार्ट वेयरहाउस’ परिकल्पना पर आधारित भंडारण केंद्र की परिकल्पना की गई है। स्मार्ट वेयरहाउस में रोबोटिक्स की अहम भूमिका होगी। केंद्र सरकार ने रोबोटिक्स पर राष्ट्रीय रणनीति बनाने का संकेत दिया है।
सार्वभौमिक स्वास्थ्य की ओर कदम बढ़ा रहे भारत के लिए ड्रोन और उससे जुड़ी सेवाएं वरदान साबित होंगी। उत्पादन और आपूर्ति के बीच ‘डेटा इन्वेंट्री’ की अहम भूमिका होती है। यह जितना अचूक होगा, उपभोक्ताओं के लिए चिकित्सा उत्पाद और सेवाएं उतनी ही लागत सक्षम होंगी। अंतत: यह पर्यावरण संरक्षण के प्रयास के रूप में हमारे सामने होगा। अब जरूरत इस बात की है कि वैश्विक स्तर पर दवाओं और टीके की आपूर्ति तंत्र को बेहतर बनाने से जुड़े नवाचार और निवेश को बढ़ावा दिया जाए।