जम्मू-कश्मीर के उरी में 18 सितंबर को हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ गया है। भारत पाकिस्तान को कूटनीतिक और आर्थिक तौर पर दुनिया में अलग-थलग करने की रणनीति अपना रहा है। इस दिशा में पहली बड़ी सफलता भारत को 28 सितंबर को मिली जब भारत द्वारा पाकिस्तान में होने वाले अगले दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) के 19वें सालाना सम्मेलन के बहिष्कार की घोषणा के तुरंत बाद तीन अन्य देशों (बांग्लादेश, भूटान और अफगानिस्तान) ने उसका समर्थन करते हुए दक्षेस सम्मेलन में न जाने की बात कही। वहीं नेपाल ने दक्षेस का सालाना सम्मेलन की जगह बदलने का प्रस्ताव दिया है। दक्षेस में भारत और पाकिस्तान समेत दक्षिण एशिया के कुल आठ देश सदस्य हैं। मालदीव और श्रीलंका ने अभी मौजूदा स्थिति पर अपनी राय जाहिर नहीं की है।
नरेंद्र मोदी सरकार के ताजा फैसले से ऐसा लगा रहा है कि वो दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को ‘अकेला’ करने में कामयाब हो रही है। लेकिन पाकिस्तान की सेहत पर इससे बहुत ज्यादा असर पड़ेगा ये सोचना अक्लमंदी नहीं होगी। दक्षेस की राजनीति हमेशा ही भारत और पाकिस्तान के ईर्द-गिर्द घूमती रहती है। इसके बाकी सदस्य देश इस हैसियत में नहीं होते कि वो अकेले दम पर कोई बड़ा फैसला ले सकें। आम तौर पर दक्षेस में भारत की छवि ‘बड़े भाई’ की है जिसके संग ‘शक्ति संतुलन’ बनाए रखने के लिए सभी ‘छोटे भाइयों’ को आपसी सहानुभूति रखनी होती है। लेकिन अभी दक्षेस के कई सदस्य देश आतकंवाद से किसी न किसी तरह पीड़ित हैं इसलिए वो इस मुद्दे पर भारत के साथ नजर आ रहे हैं। दक्षेस में भारत के प्रभाव को कम करने के लिए पाकिस्तान पहले ही चीन को उसका स्थायी सदस्य या आमंत्रित देश बनाने का प्रस्ताव 2014 में हुए पिछले दक्षेस सम्मेलन में दे चुका है, जो भारत के विरोध के कारण अमलीजामा नहीं पहन सका। दक्षेस सम्मेलन में न जाने का ये मतलब भी नहीं है कि दक्षेस देशों के बाकी सदस्य पाकिस्तान के संग अपने कारोबारी या कूटनीतिक रिश्ते भारत के लिए खराब कर लेंगे।
अभी तक मोदी सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के खिलाफ कोई बड़ी कूटनीतिक सफलता नहीं मिली है। दुनिया का कोई भी देश अभी तक खुलकर पाकिस्तान के खिलाफ भारत के साथ नहीं आया है। जबकि चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग ने अमेरिका में संयुक्त राष्ट्र आम सभा के दौरान ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात के बाद मीडिया से कहा कि चीन और पाकिस्तान हमेशा दोस्त रहेंगे। चीन ने भले ही कश्मीर का जिक्र नहीं किया हो लेकिन उसने साफ कर दिया कि वो दोनों संघर्षरत पड़ोसियों में से किसके साथ है। वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन में पाकिस्तान की परोक्ष आलोचना की। उन्होंने कहा कि आतकंवाद को बढ़ावा देने वाले राष्ट्रों को बाज़ आना होगा। लेकिन इससे ये नहीं माना जा सकता कि अमेरिका पूरी तरह भारत के साथ है। वो लगातार आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान को अहम साझीदार बताता रहा है।
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पाकिस्तान को चीन का समर्थन कितना मायने रखता है इसका पता तब भी चला जब भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता देने के मुद्दे पर चीन ने वीटो कर दिया। चीन ने अपरोक्ष तौर पर संकेत दे दिया कि वो एनएसजी सदस्यता के मामले में भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौले जाने के पक्ष में है। ऐसे में चीन के रहते हुए भारत संयुक्त राष्ट्र में भी पाकिस्तान के खिलाफ कोई प्रस्ताव पारित करा पाएगा इसमें संदेह है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन पांच स्थायी सदस्य देश हैं। संयुक्त राष्ट्र में कोई भी प्रस्ताव किसी भी एक स्थाई सदस्य के विरोध से ठंडे बस्ते में चला जाता है।
पिछले कुछ सालों में जिस तरह भारत और अमेरिका के बीच नजदीकियां बढ़ी हैं उसकी वजह से भले ही पाकिस्तान उससे दूर हुआ है लेकिन इससे उसे नए दोस्त भी मिले हैं। चीन तो उसके संग आर्थिक और सामरिक दोनों तरह के रिश्ते बेहतर बनाता जा रहा है, वहीं भारत का परंपरागत दोस्त रूस भी अब पाकिस्तान के संग सकारात्मक संबंध बनाने का इच्छुक नजर आ रहा है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में रूस स्वाभाविक तौर पर खुद को अमेरिका विरोधी खेमे में देखता है। ऐसे में भारत के सामने पाकिस्तान को दूर रखते हुए रूस और अमेरिका दोनों से अच्छे संबंध बना पाना काफी मुश्किल साबित होगा।
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यूरोप के प्रमुख देशों जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन ने भी अभी तक खुलकर भारत का समर्थन नहीं किया है। फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी इस्लामी चरमपंथ से सर्वाधिक प्रभावित यूरोपीय देशों में हैं। इन सभी देशों में उल्लेखनीय मुस्लिम आबादी है। ऐसे में ये देश भारत पाकिस्तान के बीच जारी रस्साकशी में एहतियात के संग पेश आते हैं। पाकिस्तान भारत के संग होने वाली किसी भी संघर्ष को मुस्लिम बनाम हिंदू के तौर पर पेश करने की कोशिश करता है। ऐसे में इन देशों के बीच के मसले पर अतिरिक्त सावधानी से पेश आना स्वाभाविक है।
जाहिर है पीएम मोदी और उनकी टीम कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान को दरकिनार करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं लेकिन वर्तमान वैश्विक परिस्थितियां, भू-राजनीति की कड़वी जरूरतें और दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाली अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के चलते आगे की राह कठिन नजर आ रही है।
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