सुरेंद्र किशोर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आभा मद्धिम होती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मोदी सरकार सर्वग्राही भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं कर रही है। बल्कि दलीय नेताओं से संबंधित विवादास्पद मामलों पर सरकार बचाव या चुप्पी की मुद्रा में है। यह सब इसके बावजूद हो रहा है कि खुद प्रधानमंत्री ने लालकिले से कहा था कि ‘न तो मैं खुद खाऊंगा और न ही किसी को खाने दूंगा’। अब खुद में पहले जैसी आभा पैदा करने का एकमात्र उपाय है कि मोदी सरकार भ्रष्टों पर कस कर कानून के कोड़े बरसाए। क्या ऐसा संभव है?
बिहार विधानसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर ऐसे मामलों ने भाजपा की नैतिक धाक के दावे पर सवालिया निशान लगा दिया है। पिछली 27 मई को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मनमोहन सिंह को याद करते हुए कहा था कि ‘किसी प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी उनकी निजी ईमानदारी तक ही सीमित नहीं होती बल्कि पूरी व्यवस्था से भ्रष्टाचार समाप्त करने की भी होती है’। अगर शाह इस कसौटी पर अपने प्रधानमंत्री को कसेंगे तो उन्हें कहां पाएंगे?
दिल्ली की ‘आप’ सरकार के लोग भले लर्निंग ड्राइविंग लाइसेंस के साथ सरकार की गाड़ी चला रहे हैं। वे कई बार बचपना भी कर जाते हैं। लेकिन कुल मिलाकर अरविंद केजरीवाल ने यह साबित कर दिया है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी शून्य सहनशीलता है और केंद्र सरकार उसे इसलिए परेशान भी कर रही है।
Also Read: आडवाणी के ‘आपात’ वचनों से विपक्ष को मिला एक और मुद्दा
सुषमा स्वराज-ललित मोदी मामले पर स्वतंत्रता सेनानी डाक्टर कैलाश नाथ काटजू का प्रसंग उल्लेखनीय है। डाक्टर काटजू 1948 से 1951 तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे। वहां के एक बड़े व्यापारी ने डाक्टर काटजू के पुत्र शिवनाथ काटजू को भारी पारिश्रमिक के साथ अपनी कंपनी के कानूनी सलाहकार के पद की पेशकश की। पैसे को देखते हुए शिवनाथ काटजू उस पद को स्वीकार कर लेना चाहते थे। उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखा। पिता ने जवाब में लिखा कि बड़ी खुशी की बात है कि मेरा पुत्र इतना योग्य हो गया है। लेकिन तुम यह पद स्वीकार करोगे तो मैं राज्यपाल पद से इस्तीफा दे दूंगा। शिवनाथ ने वह पद स्वीकार नहीं किया।
सुषमा स्वराज से काटजू जैसे ऊंचे मापदंड की तो उम्मीद नहीं की जाती, पर खुद नरेंद्र मोदी ने वैसे ही मापदंड की स्थापना का देश से वादा किया था। लेकिन कुछ ही महीनों के भीतर उनके कुछ सहयोगी उनके वादे का कचूमर निकाल रहे हैं और वे खुद मौन हैं। यह शायद इसलिए है क्योंकि उनके सहयोगीगण प्रधानमंत्री को सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से लड़ते हुए नहीं देख रहे हैं।
Also Read: मौजूदा मीडिया बनाम आपातकाल के दौर की पत्रकारिता
इधर भाजपा बिहार विधानसभा के अगले चुनाव में लालू प्रसाद के ‘जंगल राज’ को मुद्दा बनाना चाहती है। पर क्या ऐसा हो पाएगा? राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश बिहार में यह स्वाभाविक ही है कि जो कुछ दिल्ली में हो रहा है, उनकी गूंज बिहार में भी हो रही है।
केंद्र सरकार के सुषमा स्वराज का बचाव भी अनेक लोगों को अच्छा नहीं लगा है। बिहार चुनाव में राजग को इसकी सफाई देनी पड़ेगी। यात्रा दस्तावेज विवाद को लेकर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का नाम आने के बाद उन्होंने इस्तीफे की पेशकश की थी, पर उसे ठुकरा दिया गया।
राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक, इस पेशकश को ऐसे समय में ठुकराना जब बिहार का चुनाव सिर पर हो, भाजपा के लिए राजनीतिक घाटे का सौदा साबित हो सकता है। राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को लेकर भाजपा की चुप्पी मनमोहन सिंह के मौन की याद दिला रही है। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार भाजपा या तो वसुंधरा का बचाव करती या फिर उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा देती।
अगर बिहार में राजग को झटका लगा तो उसका असर अन्य राज्यों के आगामी चुनावों पर भी पड़ सकता है। और सबका मिलाजुला असर पड़ेगा 2019 के लोकसभा चुनाव पर। कांग्रेस बिना कुछ किए-धरे और खुद को सुधारे बिना पुनर्जीवित हो जाएगी तो उसके लिए नरेंद्र मोदी सरकार की वह कमजोरी ही जिम्मेदार होगी जो वह भ्रष्ट लोगों के लिए दिखा रही है। इस देश में भ्रष्टों से बेबाक लड़ाई करने पर बीच में ही सरकार जाने का खतरा जरूर रहता है। लेकिन इस तरह जो सरकार शहीद होती है वह अगले चुनाव में अधिक बहुमत पा जाती है। आम आदमी पार्टी इसका ताजा उदाहरण है।