क्षिप्रा माथुर
खेती को अभाव और संघर्ष के बीच एक ऐसे पेशे और जीवनशैली के तौर पर देखा जाता रहा है, जिसके बारे में ज्यादा सोचना नए दौर की फितरत के खिलाफ है। पर यह स्थिति अब दरक रही है। परंपरा और परस्परता के साझे के साथ खेती-किसानी की नई दुनिया नए सिरे से आकार ले रही है। इस दुनिया में एक तरफ श्रम और समन्वय है तो वहीं दूसरी तरफ समृद्धि की चाहत भी। नई सहकारी समझ के साथ खेतीबारी की इस दुनिया पर इस बार का विशेष।
भारत के किसान का मन कारोबारी कभी नहीं रहा। तंगदिली को उसने अपनी पहचान में कभी शामिल नहीं होने दिया। इसका खामियाजा भुगतता आ रहा देश का 80 फीसद किसान अपनी मेहनत की कमाई में कभी मुनाफा नहीं ले पाया। करीब पचास फीसद रोजगार देने वाली खेती किसानी में लगे ये किसान आज भी एक-दो हेक्टेयर की जोत के साथ किनारे पर हैं। देश की पूंजी में महज 15-20 फीसद भले दे रहे हों मगर महामारी जैसे दौर में भी लगातार बढ़ती रही खेती का साफा तो इन्हीं के सिर रहा है, जिसकी कद्र होनी चाहिए।
2020 में आने वाले सालों में देश में दस हजार किसान कंपनियां खड़ी करने और किसानों की आय को दुगनी करने की बात कही गई। इसके लिए कंपनी कानून में बदलाव हुआ और 6865 करोड़ का बजट रखा गया। तीन साल के लिए किसान कंपनी को 18 लाख की मदद, इक्विटी और ब्याज जैसी कई सहूलियतों के साथ ऐसा माहौल तैयार हुआ है कि किसान सिर्फ संगठन तक का दायरा नहीं रखें। अब उनके लिए नीतियों के पहिए हैं, जिनके जरिए वो उद्यमी की तरह अपनी कंपनी के मालिक भी रहेंगे साथ ही शेयरधारक और मुनाफे के हकदार भी। यह एक नया प्रयोग है जो सहकारिता क्रांति के अगले चरण की जमीन तैयार कर रहा है।
बदलती तस्वीर
महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य प्रदेश के किसानों ने इस मायने में बाजी मारी है कि वो एकजुट होकर कंपनियां बनाने की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। इस साल करीब 2500 कंपनियों के लक्ष्य को हासिल करना भले फिलहाल मुमकिन न हो लेकिन जागरूक किसानों के संगठनों ने अपनी-अपनी खूबी को भुनाने की कवायद शुरू कर दी है। इनके नतीजे आने वाले सालों में नजर आने चाहिए। देश का किसान मायूस चेहरे में नहीं, चुनरी-पगड़ी-फेंटा बांधे अपनी पैदावार की कीमत खुद तय करने वाले मजबूत मन के साथ छोटे-बड़े हर बाजार में दिखी ये तस्वीर बदलते भारत की सबसे खूबसूरत झांकी होगी।
सूखे से मुठभेड़
देश के करीब 624 सूखे इलाकों में से सवा सौ हर साल सूखे की चपेट में आते हैं। कहीं पानी कम बरसता है तो कहीं जमकर बरसने के बावजूद उन्हें संभालने की तैयारी नहीं होती। इसके अलावा सूखे इलाके वो भी हैं जहां समुदाय ही रूखे हैं। साझी संस्कृति से छिटकर एकल हासिल का शोर सनातन सोच की सबसे बड़ी बेचैनी है इस वक्त। राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक सहित नौ राज्य हैं जहां सूखा पड़ता है, पलायन होता है, दम तोड़ते हौसले के बीच किसानों के मन में मौत को गले लगाने का खयाल भी आता है। सरकारी योजनाओं के सिरे कभी पकड़ में आते हैं, कभी नहीं।
सूखे इलाकों के लिए जीने लायक इंतजाम को ही हमने सबसे बड़ा सवाल बना दिया है क्योंकि यहां के किसानों के लिए खेती कभी फायदे का सौदा नहीं रही। बिना पानी के क्या खेती, क्या अन्न, क्या घर और क्या सुकून। फिर भी ये हकीकत है कि देश को पैदावार देने वाली जमीन में 68 फीसद हिस्सेदारी इन सूखे इलाकों की ही है। इसलिए यहां हर बूंद को संभालना देश की आर्थिक सेहत के लिए बेहद जरूरी फिक्र है।
बेहतरी की बेचैनी
डिजिटल दौर में तेजी से तैरकर आती जानकारियों ने सूखे इलाकों के किसानों में जीवन की बेहतरी के लिए बेचैनी पैदा की है। खेती की समझ उन्हें भरपूर है। उन्हें मालूम है कि टिकाऊ खेती के लिए उन्हें कौन सी खाद, मिट्टी, बीज माफिक हैं और मौसम के बदलते या बिगड़ते मिजाज को कैसे सहना है। लेकिन पहला सिरा पानी का है। इसके साथ बाजार की पूरी लय बांधे बगैर बात नहीं बनती। महाराष्ट्र के सोलापुर इलाके का सूखा, जो कभी किसानी की बेहाली की वजह से सुर्खियों में रहा करता था आज अपनी नई पहचान के साथ खड़ा है। यहां के माढ़ा तालुक के युवाओं ने जमीन में दबे हुए बेंद नाम के ओढ़ा यानी छोटी नदी के निशान तलाशने शुरू किए और उसे जमीन खोद कर जिंदा करने का नामुमकिन सा काम सिर्फ इस बूते कर दिया कि पूरा गांव, पूरा समुदाय पूरे मन से साथ जुट गया।
नदी-नालों का बचाव
माढ़ा तालुक के कुरूड़ गांव की सुमन गावली सहित गांव के तमाम किसानों के साथ चलते हुए जब 12 गांवों और दो नगर पंचायतों से गुजरता हुआ 37 किलोमीटर लंबा बेंद नाला दिखाई देगा तो इस गांव सहित आस-पास के इलाकों के हजारों परिवारों की बदली तकदीर की कलकल भी सुनाई देगी। जहां खेती की जमीनों पर कारोबारियों और नेताओं की खराब होती नीयत की हकीकत हो गई है उस दौर में सुमन जैसे सैकड़ों परिवारों ने अपने नदी-नालों को जीवित करने के लिए उसके रास्ते में आई अपनी कीमती जमीनें दिल खोलकर दे दीं। बिना किसी शर्त, बिना मुआवजे के, दिल खोल कर। यही ईमानदारी और समझदारी इस दौर की सबसे खास खबर है, जिसे हम सुन पाएं तो ये ऐसे काम के लिए पक्का मन बनाने में असरदार हों।
माढ़ा की बेहतरी का बीड़ा उठाने वाले युवा धनराज शिंदे सूखी नदियों के मुहानों पर खड़े तमाम किसानों को साथ लेकर बदलाव के लिए निकले थे। समुदाय का अपना काम था, उन्हीं की खातिर था। इसलिए सारे किसानों ने धनराज के साथ मिलकर संगठन खड़ा कर लिया। साथ बैठकर हिसाब-किताब लगाया। पक्के काम के लिए किसान का हिसाब कभी कच्चा नहीं होता। काम पानी से होकर निकला और साल-दो साल में विट्ठलगंगा नाम से किसान कंपनी में तब्दील होकर किसानों की दबी हसरतों को जिंदा कर गया।
काम भी नाम भी
मिट्टी में दबे बेंदवाड़ा नाले की मरम्मत, खुदाई और छोटे बांध बनाकर पानी रोकने का सरकारी खर्च बैठा करीब नौ करोड़। पानी को गांव-गांव बांधने, खेतों के लिए नमी का बंदोबस्त करने और परंपरागत तरीकों को तरजीह देकर अपनी कीमत खुद तय करने का पूरा खाका था दिमाग में। इस शिद्दत ने नदियों को जीवित करने में जुटी ‘नाम फाउंडेशन’ का साथ हासिल किया और नौ करोड़ का काम संगठन और समुदाय की भागीदारी से 10-12 लाख में दो साल में ही हो गया।
अन्न की संभाल में जुटे समाज के बहाव का ये एक तट था, जिसने मिलजुलकर तटबंध तैयार कर लिए। कुरूड़ के बगल के ही गांव भोसरे में महेश आनंद, नितिन सुरभान, हनुमंत जगताप सहित कई किसान आज एक सुर में बात करते हैं कि जो पानी अब तक 600 फुट की गहराई पर पकड़ में आता था, बेंदवाड़ा नाले के जीवंत होने से अब 5-7 फुट तक आ पहुंचा है। इससे बेहतर और क्या। कमाई पहले के मुकाबले 5-6 गुना होने से काम की तलाश में घर से दूर जाना खत्म हुआ। मवेशियों की आबादी हर गांव में इंसानी आबादी की करीब तीन गुना है। सूखा पड़ने पर दूध की कमाई से ही गुजारा होता था, मगर हरा चारा भी नसीब नहीं था।
अब सब भरपूर है और भरेपूरे मन वाले यहां के करीब डेढ़ हजार से ज्यादा परिवारों वाला यह गांव खुद तो तर है ही मगर चाहता है कि आगे के और चार गांव जरूरतमंद हैं इसलिए आगे की खुदाई और हो, इस बार बाढ़ में टूटे बांधों की मरम्मत भी हो। किसान मन ही इस अहसास के साथ जीता है कि धरती में हम सब साथ पिरोए हुए हैं। अधूरापन रहा तो बाद में हम सबकी नमी में बना रहेगा।