किसी अपरिचित विदेशी द्वारा इस अपनत्व भरे ढंग से संबोधित किया जाना पाश्चात्य संस्कृति में पले-बढ़े उन श्रोताओं के लिए एक रोमांचक अनुभव रहा होगा। पता नहीं स्वामी विवेकानंद ने इस संबोधन का प्रयोग एक सोची-समझी रणनीति के तहत अपने श्रोताओं को चमत्कृत करने के लिए किया था या भारतीय संस्कृति में पगी उनकी मानसिकता के लिए यह संबोधन एक सहज स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी, जिसके लिए कोई तैयारी नहीं की गई होगी।

असल में यह संबोधन उनके श्रोताओं को मंत्रमुग्ध इसलिए कर गया कि अमेरिकी संस्कृति तब भी औपचारिकता को अपनत्व के ऊपर वरीयता देती थी। आज भी किसी जनसमूह को संबोधित करने वाला अमेरिकी वक्ता बहुत हुआ तो ‘माई फेलो अमेरिकन्स’ से अपनी बात शुरू करता है।

रोजाना के संभाषण में वहां अनौपचारिक ढंग से एक दूसरे का प्रथम नाम लेने का रिवाज है। यहां तक कि सास, ससुर और सौतेले मां-बाप भी नाम से ही बुलाए जाते हैं। बहुत हुआ तो एडवर्ड ‘एड’ बन जाता है और रॉबर्ट ‘बॉबी’। लेकिन भारतीय शैली में मोरारजी भाई, बहन मायावती, चाचा नेहरू आदि की तर्ज पर ‘भाई बॉबी’ या ‘विली दादा’ कहना वहां अजीब लगेगा।

विश्व के अधिकतर देशों में लोग एक दूसरे को संबोधित करते हुए मिस्टर, मिसेज, सेन्योर, सेन्योरा, और सिन्योरिटा आदि सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं या फिर लोगों के पद, व्यवसाय आदि उनके नाम के आगे जोड़ दिए जाते हैं, जैसे प्रोफेसर, इंजीनियर आदि।

थोड़ी और नजदीकी दिखानी हो तो डॉक्टर सिमट कर ‘डॉक’ तो बन सकता है, लेकिन मरीज के घर उसके पहुंचने की सूचना उस घर के बच्चे ‘डॉक्टर चाचा जी आए हैं’ कह कर नहीं देते। व्यवसाय से संबंधित शब्द नाम के पहले औपचारिकता के लिए हमारे यहां भी जोड़ लेते हैं, लेकिन जहां नजदीकी और अपनापा हो, वहां औपचारिकता को पारिवारिक रिश्तों की मिठास में बदल दिया जाता है।

आपसी संबोधन में रिश्तों की मिठास घोल देना भारतीय उपमहाद्वीप की विशेष परंपरा लगती है। यहां अपनत्व और निकटता से भरे जो संबोधन इस्तेमाल होते हैं, वह पश्चिम की कौन कहे, चीन, जापान जैसी प्राच्य संस्कृतियों में भी कम ही नजर आते हैं। चीन के अकेली संतान वाले परिवारों में किसी को भाई या बहन कहने की आदत पड़े भी तो कैसे।

पुराने चीनी रिवाज के मुताबिक नाम के पहले बड़े भाई के लिए ‘गे’, छोटे भाई के लिए ‘डी’ और छोटी बहन के लिए ‘मेई’ संबोधन जोड़ दिए जाते थे, लेकिन अब वहां व्यवसायसूचक शब्द, जैसे शिक्षक के लिए ‘जू’ लगाने की औपचारिकता अधिक लोकप्रिय है।

यों भी जब एक कॉमरेड दूसरे कॉमरेड की जासूसी करने और उसके हर क्रियाकलाप की चुगली पार्टी कार्यालय में करने को प्रतिबद्ध हो तो भाई साहेब, बहन जी और बेटा जैसे संबोधन की क्या तुक! अधिकतर साम्यवादी देशों में अपनापन जताने के लिए कॉमरेड शब्द प्रयुक्त होता है।

लेकिन यह शब्द मात्र सहयोगी से आगे क्या हो सकता है, जब उस शब्द की उत्पत्ति ही फ्रांसीसी भाषा के शब्द ‘कमारेद’ से हुई हो जो स्पेनी शब्द ‘कामारादा’ पर आधारित है और जिसका अर्थ कमरे में साथ बसर करने वाला व्यक्ति भर है।

यह व्यावहारिक संबोधन केवल इतना कहता है कि सारे साथी एक छत के नीचे, एक ध्येय से जुटे, एक राह के सहयात्री हैं। फिर इसमें देशी भैया, बचवा, प्राजी, बहनजी आदि संबोधनों की सोंधी सुगंध कहां से आए। लेकिन जैसे-जैसे वैश्वीकरण की तेज रफ्तार हमारे देश को वैश्विक आंगन में बदल रही है, हमारी ठेठ परंपराएं उसके आघात से ढहती जा रही हैं।

आज के युवा को कोई बुजुर्ग बेटा कह कर संबोधित करे तो वह पहले ही सतर्क हो जाता है कि किसी दकियानूसी उपदेश की बारिश होने वाली है। तरुणियों के लिए ‘बहन जी’ संबोधन गंवारूपन की ओर इंगित करता अपशब्द बन गया है।

एक तरफ प्रौढ़ महिलाओं को भी ‘आंटी’ कह कर बुलाया जाना खलता है तो उधर ‘भैया’ शब्द से संबोधित किया जाने वाला पुरुष अगर दूधवाले या रिक्शेवाले से ऊपर की आर्थिक हैसियत का है तो आहत हो जाता है। सभी अधेड़ होते पुरुषों को किसी के मुंह से ‘अंकल’ का संबोधन आज उतनी ठेस पहुंचाता है, जितनी केवल रसिकशिरोमणि केशव दास को किसी चंद्रबदन मृगलोचनी ने कभी बाबा कह कर पहुंचाई थी।

अकेलेपन के संत्रास से जूझती दुनिया में भारत उस सौभाग्यशाली देश के रूप में अब तक बचा हुआ था, जहां अपरिचितों से भी बात करते हुए उन्हें बेटा, बाबा, ताऊ और बेटी, बहनजी या माताजी जैसे शब्दों से संबोधित करके वसुधैव कुटुम्बकम की पवित्र भावना को व्यावहारिक जामा पहनाया जाता था। लेकिन शायद तेजी से रंग बदलते हुए भारत में स्नेह के ये संबोधन बहुत जल्द ग्रामीण और कस्बाई संस्कृति का ठप्पा समझ कर विस्मृति के कूड़ेदान में फेंक दिए जाएंगे।