राकेश सिन्हा
कांग्रेस ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, तीनों के सम्मिलित विचारों को भारत की मूल भावना पर आघात बताया है। उसके अनुसार भारत की छवि मोदी के नेतृत्व के कारण विदेशों में मलिन हो रही है। यह आलोचना विकास की नीतियों और परिणामों पर नहीं, राज्य के सांस्कृतिक, सामाजिक और वैचारिक पक्ष से जुड़ी हुई है। भले कांग्रेस अस्तित्व के संकट से गुजर रही हो, पर उसकी इस आलोचना ने स्वतंत्र भारत में वैचारिक पक्ष की भूमिका पर गंभीरता से विचार करने का एक अवसर दिया है।
किसी भी सरकार के आकलन का साधारणतया मूल आधार सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में लोक पक्षधर काम होता है। मोदी सरकार का आकलन भी इसी पैमाने से होना स्वाभाविक है। पर आठ वर्षों के शासनकाल में विमर्श का केंद्र बिंदु राजनीतिक-आर्थिक प्रश्नों की जगह वैचारिक पक्ष रहा है। यह सिर्फ भारत में विपक्ष तक सीमित नहीं है, बल्कि आक्सफोर्ड, कैंब्रिज, हार्वर्ड, जैसे यूरोप, अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भी भारत की प्रकृति में बदलाव ही विमर्श का केंद्र बन गया है। आखिर वे कौन से परिवर्तन हैं, जो पूर्व में आधिपत्य रखने वाले नेहरूवादी और मार्क्सवादी विचारधारा को पूर्णतया नापसंद हैं। इसका उत्तर स्वतंत्र भारत के कालखंड को दो स्पष्ट युगों में बांटता है- नेहरू युग और मोदी युग।
दोनों ही युगों में भारत की अस्मिता की खोज के संदर्भ बिंदु और संसाधन अलग हैं। मोदी की प्रतिबद्धता भारत की ज्ञान परंपरा के प्रति है, जो उनके भाषणों का आधार होता है। वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में व्याप्त दर्शन और भारतीय दार्शनिकों तथा संतों के विचारों के उद्धरणों का प्रभाव लोगों की मानसिकता पर साफ तौर पर दिखाई पड़ता है। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय दर्शन और साहित्य को मौलिक रूप में बढ़ने में यूरोप केंद्रित सोच सबसे बड़ी बाधक थी। उपनिवेशवाद का भले अंत हो गया, पर उसका वैचारिक पक्ष भारत के कुलीन नेतृत्व पर हावी था।
देश की आजादी के बाद सबसे जटिल प्रश्न राष्ट्रमंडल का सदस्य बनना था। कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग और सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसके विरोध में थे। जिस देश ने भारत के संसाधनों का शोषण और लोगों का दमन किया हो, उसके नेतृत्व को पुन: स्वीकार करना उचित नहीं था। पर ब्रिटेन अमेरिका के बाद भारत को सबसे महत्त्वपूर्ण देश मानता था और हर हाल में इसे अपने पक्ष में रखना चाहता था।
और वह सफल हुआ। प्रकारांतर से नेहरू के नेतृत्व ने आधुनिकता का संदर्भ बिंदु यूरोप को बना दिया। इसलिए स्वतंत्रता के पश्चात भी भारत की शिक्षा मैकालेवादी रास्ते पर ही कमोबेश चलती रही। एक लंबे समय तक यूरोप की राह पर नकलची की तरह चलते हुए भारत के विद्वान समाजशास्त्र, कला और विचार के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं कर पाए, न ही यूरोप की बराबरी कर सके। यूरोप द्वारा सृजित विचारों, परिभाषाओं और पद्धतियों में जीने के हम अभ्यस्त होते गए।
इस बौद्धिक वातावरण पर सीधा प्रहार मोदी के सामाजिक-सांस्कृतिक दर्शन में है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस चक्रव्यूह को तोड़ने में राज्य की भूमिका को महत्त्वपूर्ण माना गया। यानी राज्य विचारशून्य नहीं हो सकता है। इस संदर्भ में भारतीय दार्शनिक प्रो. कृष्णचंद्र भट्टाचार्य का 1931 में दिया गया भाषण उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि राजनीतिक दासता दिखाई पड़ती है, परंतु संस्कृति और विचारों की दासता दिखाई नहीं पड़ती और यह हमारे संपूर्ण जीवन-दृष्टि को अपनी मौलिकता से दूर कर देती है। इस वैचारिक दासता से मुक्ति ही ‘विचारों का स्वराज’ है।
2014 के बाद पुराने विचारों, संस्थाओं के आधिपत्य के बावजूद भारत की विरासत और ज्ञान परंपरा पर विमर्श बाध्यता बन गई। आखिर हजारों वर्षों के इतिहास में भारत की पहचान इसके दर्शन और संस्कृति से ही रही है। लेकिन नेहरूवाद ने उसके प्रति उपेक्षा और अपराधबोध दोनों ही भाव सृजित कर दिया था। आचार्य जेबी कृपलानी ने ‘माइनारिटीज इन इंडिया’ (1948) पुस्तक में लिखा कि वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत को निकाल देने के बाद भारत में कुछ और शेष नहीं रह जाता है। इस तरह की वैकल्पिक आवाज में निरंतरता और आग्रह की कमी के कारण यूरोप केंद्रित विमर्श हर क्षेत्र में हावी रहा। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है।
ग्रामीण जीवन न तो अपराधबोध, न ही उपेक्षा का शिकार हुआ। वे देश की विरासत और आध्यात्मिक दर्शन से जुड़े रहे। कुलीनतंत्र और नेहरूवादी राज्य उनकी इस ताकत का मूल्यांकन नहीं कर सका। इसी मन-मानसिकता ने मोदी को सांस्कृतिक परिवर्तन का जनादेश दिया है। उसका नैतिक पक्ष भारत की अस्मिता की मौलिकता को पुनर्स्थापित करना है।
नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पहलू आलोचनाओं से अविचल रह कर भारत केंद्रित सोच और व्यवहार को समृद्ध करना है। विदेशों में राज्याध्यक्षों को भगवद्गीता भेंट करना और महत्त्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारतीय दर्शन के पक्ष को संदर्भ के अनुकूल रखना उन्हें पूर्व के शासकों से अलग छवि प्रदान करता है।
भारतीय दर्शन और अध्यात्म के बीच दूरी न के बराबर है। इसे यूरोप केंद्रित विचारों ने सांप्रदायिक दर्शन के खांचे में रखा। यूरोप के चिंतक उसे अपने ज्ञान की समृद्धि के लिए उपयोग करते रहे, पर हम यूरोप से स्वेच्छापूर्वक संचालित होते रहे। नेहरूवादी युग में उन सभी केंद्रों और विचारों को तिरस्कार का सामना करना पड़ा, जो इस प्रवाह को रोकना चाहते थे। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा स्थापित भारतीय विद्या भवन उन्हीं में से एक है।
इसलिए मोदी ने आध्यात्मिक केंद्रों, दर्शनों और कृतियों को भारतीय राष्ट्र की यात्रा का एक आयाम माना। यही कारण है कि धर्मनिरपेक्षता की पश्चिम आरोपित परिभाषा का खोखलापन सामने आने लगा। इसका उदाहरण योग पर विमर्श है। जब 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में इसकी महत्ता को स्थापित करते हुए अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर भारी समर्थन हासिल किया, तब भारत में इसे हिंदू बहुमतवाद को थोपने का आरोप लगता रहा।
पतंजलि भारतीय नहीं, सांप्रदायिक अस्मिता के प्रतीक बन गए और अल्पसंख्यक समुदायों की सांस्कृतिक स्वतंत्रता को योग से खतरा बताया जाने लगा।
नेहरूवादी काल में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के नाम पर संस्थाओं, संरचनाओं और विचारों की ऐसी शृंखला विकसित होती गई, जिसमें संविधान सभा की मूल भावना ‘एक जन एक राष्ट्र’ खंडित होता रहा। मोदी के आलोचक उन्हें विविधता के शत्रु के रूप में दिखाते रहे।
परंतु लोकभावना और लोक बौद्धिकता मोदी के विचार और दृष्टिकोण में भारतीय अस्मिता का उभार देखती है। भारत के नेहरूवादी कुलीनों और उनके राजनीतिक नेतृत्व की जो विफलता थी, वही मोदी की सफलता की बुनियाद बन गई। सबसे उल्लेखनीय पक्ष है कि नेहरूवादी कुलीनों को दशकों से स्थापित मनोनुकूल संस्थाओं और विदेशी बौद्धिक जगत का समर्थन रहा है। पर इतिहास में विचार के साथ व्यक्तित्व की भूमिका अहम होती है।
मोदी ने उस जटिलता से टकराने में तनिक भी हिचक नहीं दिखाई। यह इसलिए भी गौरतलब है कि वैकल्पिक विचारों के पास विचारकों, शोधकर्ताओं का अभाव रहा है। लेकिन जब इस तरह की विषमता रहती है, तब नेतृत्व, लोकभावना और लोक बौद्धिकता का त्रिकोण परिवर्तन का आधार बनता है। संस्कृति के प्रति साझी अनुभूति का रास्ता खुलता है और इसी क्रम में भारत अपने दर्शन, संस्कृति और आध्यात्मिकता के आधार पर एक सभ्यतायी राष्ट्र की पहचान पुन: प्राप्त कर रहा है।
यही स्वतंत्र भारत को दो युगों- नेहरू और मोदी युग- में बांटने का आधार बन गया है। मौलिकता में स्थापित रीति-नीतियों और बौद्धिक तथा राजनीतिक प्रवाह और परंपरा को झकझोरने की अदम्य ताकत होती है। इसी का आभास मोदी के सामाजिक-सांस्कृतिक दर्शन से हो रहा है।