बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए रविवार को हुए मतों की गणना में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने एक बार फिर से राज्य में जीत दर्ज की। भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री, गृहमंत्री के साथ-साथ कई केंद्रीय नेताओं को चुनाव प्रचार के लिए उतारा गया था लेकिन अंतत: उसे हार का सामना करना पड़ा। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ममता बनर्जी द्वारा कुछ नए योजनाओं की शुरुआत की गयी थी जिसका असर विधानसभा चुनाव में देखने को मिला।
2016 के विधानसभा चुनाव में भारी जीत के तीन साल बाद तृणमूल कांग्रेस को 2019 के लोकसभा चुनाव में झटका लगा था। बीजेपी ने 40 प्रतिशत से अधिक वोट लाकर 40 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज कर ली थी। बीजेपी से मिली चुनौती के बाद तृणमूल कांग्रेस ने कई कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की जिनमें ‘दुआरे सरकार’ और ‘दीदी के बोलो’ योजना ने इस चुनाव में काफी प्रभाव डाला। ‘दीदी के बोलो’ योजना के तहत शिकायतों को लोग फोन के माध्यम से सीधा मुख्यमंत्री तक पहुंचा सकते हैं।
इसके अलावा भी पिछले एक दशक में, तृणमूल ने रूपाश्री, कन्याश्री, और साबूज साथी जैसी कई योजनाओं की शुरुआत की, जिससे गरीबों के बीच आर्थिक लाभ देखने को मिला। बीजेपी की तरफ से इन योजनाओं में भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाए गए लेकिन मतदाताओं पर इसका अधिक असर नहीं देखने को मिला।जमीन पर, दो चीजें स्पष्ट थीं। सबसे पहले, तृणमूल ने लोगों के लिए योजनाओं को और अधिक सुलभ बनाने पर ध्यान केंद्रित किया, साथ ही ‘दुआरे सरकार’ और ‘दीदी के बोलो’ ने पार्टी को यह जानकारी भी दी कि वे कहाँ गलत हो रहे थे।
ममता बनाम मोदी की लड़ाई का मिला फायदा: बंगाल विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया। लड़ाई के केंद्र में ममता बनाम मोदी और बहुत हद तक अमित शाह दिखने लगे जिसका फायद भी टीएमसी को मिला। प्रधानमंत्री द्वारा “दीदी, ओ दीदी” कहने का भी असर बंगाल के मतदाताओं पर देखने को मिला।
ध्रुवीकरण की राजनीति: बंगाल चुनाव में ध्रुवीकरण की राजनीति का असर भी रहा। हालांकि बीजेपी की तरफ से ममता बनर्जी पर ध्रुवीकरण करने के प्रयास का आरोप लगाया। ध्रुवीकरण की राजनीति का असर ये हुआ कि बीजेपी के विरोध में 30 प्रतिशत मुस्लिम वोट का असर दिखा और उस अनुपात में बीजेपी के साथ अन्य मतदाता नहीं जुड़ पाए।
संगठनात्मक अंतर: बंगाल में बीजेपी की हार के लिए बहुत हद तक टीएमसी की मजबूत संगठन का भी योगदान है। बीजेपी के पास टीएमसी की तरह मजबूत संगठन नहीं देखने को मिला। साथ बीजेपी में अधिकतर वहीं नेता थे जो पहले टीएमसी में रह चुके थे।