कई वर्षाें से हम यह सुन रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने अभूतपूर्व तरक्की की है और पिछले दस वर्ष में देश ग्यारहवें पायदान से पांचवीं आर्थिक महाशक्ति बनने की हद तक पहुंच गया है। तरक्की का कारवां रुका नहीं। वर्ष 2027 तक भारत के दुनिया की तीसरी आर्थिक शक्ति बन जाने की उम्मीद है। वर्ष 2047 में अपनी आजादी का शतकीय महोत्सव मनाते हुए भारत विकसित राष्ट्र बन जाएगा। ऐसी आशाजनक खबरें आती रहती हैं। मौजूदा सरकार देश की अर्थव्यवस्था को शिखर पर पहुंचाना चाहती है और इसके लिए वह अपने देश की मौद्रिक और निवेश नीति में एक संतुलन पैदा कर रही है।
यह भी कहा जा रहा है कि पूरी दुनिया के देशों, जिनमें अमेरिका, चीन और रूस भी शामिल हैं, के मुकाबले हमारी आर्थिक विकास दर कम है। वर्ष की पहली दो-तीन तिमाहियों में हमारी वृद्धि दर घट कर नकारात्मक संकेत दे रही है। कहां तो सात फीसद से ऊपर रहने के सपने थे और आर्थिक जानकारों का कहना था कि भारत को अगर तय समय में विकसित बनना है, तो उसे कम से कम 7.8 फीसद विकास दर हासिल करनी चाहिए।
कई क्षेत्रों में आर्थिक वृद्धि दर ने किया है खराब प्रदर्शन
यह विकास दर अभी दिवास्वप्न लगती है। इस समय विकास दर 6.2 फीसद है। पिछली तिमाही में इससे भी कम थी। इसीलिए भारत को यह संदेश दिया जा रहा है कि अपनी विकास दर बढ़ाए। कृषि और उद्योग का समावेशी विकास करे और दुनियाभर में अपने व्यापार और आर्थिक समझौते बढ़ाए। मगर अभी जो आंकड़े हमारे सामने आ रहे हैं, वे यह बताते हैं कि द्रुत गति से तरक्की करने की घोषणाओं के बावजूद भारत अचानक आर्थिक गिरावट की राह पर चल निकला है। कई क्षेत्रों में आर्थिक वृद्धि दर ने खराब प्रदर्शन किया है। विश्व बैंक कहता है कि भारत को अगर 2047 तक विकसित राष्ट्र बनना है या उच्च आय वाले देशों में शामिल होना है, तो हमारे देश की विकास दर 7.8 फीसद हो, जिसके हम इस समय करीब भी नहीं हैं।
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पिछड़े देशों की प्रकृति यह होती है कि वे उजले भविष्य के लिए कोई भी साहसिक कदम नहीं उठा पाते। इस साल पिछले छह महीनों में देश के शेयर सूचकांक में भारी गिरावट आई है। इसके बावजूद स्वप्नजीवी लोग न तो अपना पैसा वहां से लेने के लिए भगदड़ मचा रहे हैं और न ही कोई और वैकल्पिक मार्ग तलाश रहे हैं। सबसे अधिक बंदरबांट तो अमीरों और गरीबों में अंतराल बढ़ जाने से हुई है। अक्सर पूछा जाता है कि यह फीसद बढ़ कैसे गया? जबकि मौद्रिक नीति में साख नीति को नियंत्रित करके रखा गया था और जमा पर ब्याज दरें बढ़ा कर अधिक से अधिक पैसा इकट्ठा करने की कोशिश की जा रही थी, लेकिन गलत प्राथमिकताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि देश ने यह स्वर्ण अवसर गंवा दिया।
देश में व्यापार युद्ध की आशंका से शेयर बाजार का पैसा डूब रहा
किसी भी देश के दीर्घकालीन विकास के लिए बुनियादी उद्योगों की वृद्धि मुख्य होती है। इसके साथ-साथ खेतीबाड़ी की क्षमता भी बढ़नी चाहिए, क्योंकि कोविड महामारी के समय अगर कोई क्षेत्र मजबूत था, तो यह देश की कृषि थी, जिसका कुल उत्पादन पिछले वर्ष से भी अधिक हो गया है। सवाल अब यह होना चाहिए कि खिसकती हुई विकास दर को कैसे स्थायी बनाया जाए? इसके लिए देश में निवेश की व्यवस्था को सहज-सुलभ बनाया जाए, रास्ते के अवरोधों को हटाया जाए। देश का औसत आदमी रोजी-रोजगार की चिंता छोड़ कर निजी व्यवसायों में दखल देगा, ऐसी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए, लेकिन यह उम्मीद बार-बार होती है।
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देश में व्यापार युद्ध की आशंका से शेयर बाजार का पैसा डूब रहा है। पिछले पांच महीनों से शेयर बाजार कांप रहा है। अब डोनाल्ड ट्रंप धमकियां दे रहे हैं। उनका कहना है कि डालर ही विनिमय का माध्यम होगा। यहां तो जिस तरीके से अमेरिकी राष्ट्रपति ने ‘अमेरिका अमेरिकियों के लिए’ का नारा देकर डालर को अनिवार्य मुद्रा बनाने की चेष्टा की है और तीसरी दुनिया के देशों जिनमें भारत भी शामिल है, से कहा है कि यह शुल्क युद्ध केवल धमकी ही नहीं, ‘जैसे को तैसा’ नीति है। आप हम पर शुल्क लगाएंगे, तो हम भी ऊंची दरों से आप पर शुल्क लगाने में कसर नहीं छोड़ेंगे। ऐसा होगा तो तीसरी दुनिया के देशों के लिए अपना अस्तित्व बचा कर रखना कठिन हो जाएगा।
अमेरिका अपने शुल्क बढ़ाने से पीछे नहीं हट रहा है
मगर, राजकोषीय घाटा अर्थात सरकारी आमदनी से अधिक खर्च कुछ और ही बयान करता है। डालर का मूल्य लगातार बढ़ रहा है। रुपया विनिमय में कम हो रहा है। इस प्रकार डालर को सर्वशक्तिमान कर देने का सपना अमेरिका देख रहा है। चाहे भारत उसके कुल व्यापार का तीन फीसद से भी अधिक नहीं।। अमेरिका अपने शुल्क बढ़ाने से पीछे नहीं हट रहा है। नतीजा एक ही होगा कि देश में वृद्धि दर अपेक्षित आठ फीसद तक नहीं पहुंच पाएगी, क्योंकि अब शुल्क युद्ध शुरू हो गया है। इससे महंगे होते आयात और सस्ते हो रहे निर्यात की स्थिति बन गई है। संभवत: इन महंगे आयातों के कारण सरकार की कीमत नियंत्रण नीति पर असर पड़ा। वर्ष 2025 के अंत तक देश का घाटा विदेशियों के निरंतर निर्यात के बावजूद लगातार बढ़ता रहेगा। वास्तविक रूप में राजकोषीय घाटा पिछले वर्ष अप्रैल से लेकर जनवरी की तिमाही में 11,69,542 डालर रहा था। किसी भी देश का व्यापार घाटा उसकी आर्थिक दुर्दशा के बारे में बताता है। ऐसी हालत में सच्चाई क्या है?
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सच यही है कि हम अभी तक पर्यटन और सेवा क्षेत्र पर ही ज्यादा निर्भर कर रहे हैं। कृषि का विकास उस स्तर पर नहीं हो रहा, जिस स्तर पर भारत जैसे कृषिप्रधान देश में होना चाहिए। दूसरी ओर, शेयर बाजार कुछ और ही कहानी कह रहे हैं, क्योंकि भारतीय निवेश शर्तों से उदासीन होकर विदेशी निवेशक अपने निवेश की धड़ाधड़ बिकवाली कर रहे हैं। कहां तो हम सोच रहे थे कि भारत को चीन में आर्थिक स्थिति बिगड़ने के कारण निवेश की कमी का सामना करना पड़ेगा और कहां अब यह हालत है कि ‘चीन प्लस’ का यह शास्त्र गलत हो गया और अब बेहिसाब पैसा चीन की ओर ही जा रहा है। इस स्थिति को संभालने के लिए ट्रंप ने चीन पर दस फीसद शुल्क बढ़ा दिया, तो इसका असर भी प्रभावहीन ही रहा, बल्कि भारतीय निवेश को भी बाहर जाने का एक और विकल्प मिलता नजर आ रहा है। यही कारण है कि भारत में न तो वृद्धि अपेक्षित स्तर पर हुई और न ही देश में रोजी-रोजगार से लेकर खुशहाली का वातावरण पनप सका।