पिछले सप्ताह मैंने एक सुबह बिताई एक ग्रामीण आदिवासी बस्ती में। मुंबई से ज्यादा दूर नहीं है यह गांव और पहली नजर में ऐसा लगता है कि यहां गरीबी बिल्कुल है ही नहीं। सुंदर, समुद्रतटीय इस गांव में पर्यटन के आने से काफी समृद्धि आई है। जिस बाजार में कभी एक-दो छोटी दुकानें ही हुआ करती थीं कुछ साल पहले, अब कई रेस्तरां बन गए हैं जो रात को बत्तियों से चमकते हैं और पर्यटकों से भरे रहते हैं। समुद्र किनारे दिखते हैं घोड़ेवाले, घोड़ा-गाड़ी वाले, आसमान में गैस-बैलून की सवारी देने वाले और नारियल पानी बेचने वाले। जगह-जगह दिखती हैं रंग-बिरंगी प्लास्टिक कुर्सियां और मेज, जो कच्ची छतों के नीचे लगाए गए हैं और जहां बैठ कर पर्यटक कोंकण खाना, ताजी मछली और शुद्ध शाकाहारी खाने का मजा ले सकते हैं।
इस गांव में मैं कई बार आ चुकी हूं इसलिए कि यहां रहते हैं मेरे कुछ अमीर दोस्त, जिनकी समुद्र किनारे कोठियां हैं। यहां वे आते हैं जब भी उनको मुंबई से निकलने की फुरसत मिलती है। जिस दिन मैं इस गांव में आई थी पिछले सप्ताह, मेरी मुलाकात हुई मुंबई के कुछ कारोबारियों से। इनका कहना था कि उनकी राय में चुनाव परिणाम तय हैं। उनका कहना है कि मोदी को कोई हरा नहीं सकता है इस बार, क्योंकि मध्यम और अमीर वर्ग के जो लोग हैं, उन्होंने अपने जीवन में बहुत फर्क देखा है पिछले दस वर्षों में।
मुझे याद दिलाया उन्होंने कि ऐसा न सिर्फ सर्वेक्षण बताते हैं, इस बात का सबूत यह भी है कि बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां अब स्वीकार करती हैं कि उनके ‘लक्जरी’ चीजों के लिए अब भारत में बहुत बड़ा बाजार बन गया है। महंगी गाड़ियां, जिनकी कीमत लाखों में होती है, पहले से कहीं ज्यादा बिकने लग गई हैं। ‘एप्पल’ ने अपनी पहली दुकान खोली है मुंबई के जिओ-वर्ल्ड माल में और विदेशी डिजाइनर अपनी दुकानें खोल रहे हैं। जिओ वर्ल्ड माल में घूमने के बाद मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी विकसित देश में पहुंच गई हूं।
इन सब चीजों को ध्यान में रख कर मैं पहुंची थी उस आदिवासी बस्ती में। यह बस्ती गांव के चमकते बाजार से दूर, बहुत भीतर, रेल पटरी के आसपास बसी है, जहां पर्यटक कभी आते नहीं हैं। वहां जाते समय गांव के सरपंच ने मुझे बताया कि बस्ती के कोई अठारह घर रेलवे की जमीन पर हैं। रेल पटरी के इतने पास कि उनको हटाने की कोशिश चल रही है। ‘बेचारे लोगों का मालूम नहीं क्या होगा’, सरपंच ने कहा- ‘उनको मुआवजा नहीं, दूसरी जगह बसाने का आश्वासन दिया गया है, लेकिन वह जगह यहां से इतनी दूर है कि वहां ये रह नहीं सकेंगे’।
ये घर बसे हुए हैं रेल पटरी के दोनों तरफ और ऐसा लगता है जैसे धरती पर नहीं, कूड़े पर स्थापित किए गए हैं। इस बस्ती में कोई दो हजार आदिवासी लोग रहते हैं ऐसे घरों में, जिनको घर कहा नहीं जा सकता है। ये सब बने हैं कूड़े से चुनी हुई चीजों से, जिन्हें बेकार समझ कर किसी ने फेंक रखी हैं।
दीवारें बनी हैं प्लास्टिक की चादरें, फटे पोस्टर की और छतें बनी हैं फेंके गए छप्पर और टीन की। मैंने जब एक भी पक्का घर नहीं देखा तो लोगों से पूछा कि उनको क्या प्रधानमंत्री आवास योजना से कोई मदद नहीं मिली है, तो जवाब सरपंच ने दिया- ‘जी मदद तो मिली है, लेकिन एक परिवार को घर बनाने के लिए सिर्फ एक लाख बीस हजार रुपए मिलते हैं और पक्का घर बनाने के लिए चाहिए कम से कम तीन लाख रुपए। तो कैसे बनाएंगे ये लोग पक्के घर?’
मैंने जब लोगों से पूछा कि सरकारी योजनाओं से उनको किस तरह के लाभ मिले हैं, तो उन्होंने कहा कि उज्ज्वला योजना से उनको गैस के चूल्हे तो मिले हैं, लेकिन एक सिलेंडर अब नौ सौ रुपए का हो गया है, जिसे खरीदने की क्षमता उनमें नहीं है। हर झुग्गीनुमा घर के बाहर दिखे लकड़ियों के ढेर, जिनसे लोग खाना पकाते हैं पुराने चूल्हों पर।
असली लाभ मिला है तो मुफ्त राशन योजना से। स्वीकार किया लोगों ने कि हर परिवार को राशन में मुफ्त अनाज मिलता है, जिसके बिना वे शायद गुजारा न कर पाते। मैंने जब पूछा कि उनकी सबसे बड़ी जरूरत क्या है तो सबने एक आवाज में कहा ‘पानी’। यहां पानी की कोई सुविधा नहीं है, इसलिए टैंकर आते हैं रोज पानी बेचने और जो खरीदने की क्षमता रखते हैं, वे खरीद लेते हैं। जिनके पास खरीदने की क्षमता नहीं है, उनकी मदद सरपंच करते हैं।
शौचालयों के बारे में पूछने की हिम्मत नहीं हुई। साफ जाहिर था कि जिनके मकान ही नहीं हैं, उनसे शौचालयों के बारे में पूछने का कोई मतलब नहीं था। सच पूछिए तो इतनी गरीबी देख कर मुझे याद आया कि महाराष्ट्र में बहुत साल पहले मैंने इस तरह की गरीबी तब देखी थी जब नंदूरबार के पहाड़ों में बच्चे भूख से मर रहे थे। सोनिया-मनमोहन के दौर में, जब अक्सर सरकारी योजनाएं नाम के वास्ते होती थीं।
इसलिए जब तक बच्चा भूख से मरने नहीं लगता था, उसको मुफ्त में अस्पतालों में इलाज नहीं दिया जाता था। कुछ दिन उसको अच्छा पोषण देकर वापस घर भेज दिया जाता था, जहां वह फिर से भूख से मरने लगता था। इससे अच्छा होता कि हर बच्चे के लिए गांव में दो वक्त के खाने का इंतजाम किया जाता, लेकिन कोई नहीं था सुनने वाला। सोनिया गांधी को आना था उस दिन भूख से मरते बच्चों का हाल जानने, लेकिन मौसम खराब था, इसलिए उनका हेलीकाप्टर उतर न सका। असली परिवर्तन ग्रामीण भारत में तब आएगा, जब राजनेता उड़ कर नहीं, पैदल चल कर दोबारा आना शुरू करेंगे।