हमारे देश में रिश्तों का तानाबाना बुरी तरह उलझ रहा है। महानगरों में बसे शिक्षित, सजग नागरिकों से लेकर गांवों कस्बों तक, करीबी संबंधों का बिखराव आपराधिक घटनाओं के रूप में सामने आ रहा है। खासकर पति-पत्नी के आपसी टकराव की स्थितियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आपराधिक घटना का रूप ले लेती हैं। साझा जीवन में आई दूरियों का नतीजा मन को झकझोर देने वाली कुछ घटनाएं तो अविश्वसनीय-सी लगती हैं। अपनों के साथ भी बर्बरता कर बैठने के अमानुषिक बर्ताव का उदाहरण बन जाती हैं।
हाल ही में पति-पत्नी के संबंध में आए बिखराव और अलगाव के चलते सामने आई एक घटना इंसानी व्यवहार में विकृतियों का उदाहरण बन गई। गोवा में हुई इस वारदात में एक मां ने अपने चार साल के मासूम बच्चे की जान ले ली। मामले की अहम वजह पति-पत्नी में चल रही अनबन है। सामने आया है कि उनतालीस साल की परिपक्व उम्र में इस बर्बर अपराध को अंजाम देने वाली महिला का विवाह 2010 में हुआ था। 2019 में एक बेटा हुआ।
उसके अगले ही वर्ष यानी 2020 में विवाद के चलते पति-पत्नी के बीच तलाक हो गया। न्यायालय ने आदेश दिया कि पिता अपने बच्चे से सप्ताह में एक बार मिल सकता है। इस बात को लेकर मां तनाव से घिर गई। वह न्यायालय के आदेश के अनुसार हर रविवार बेटे को पिता से नहीं मिलने देना चाहती थी। ऐसे में माता-पिता के आपसी संबंधों की उलझनें और भावनात्मक भरोसे की कमी एक बच्चे का जीवन लील गई।
हालांकि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और उच्च शिक्षित मां के सूझ-बूझ खो देने का यह अकेला मामला नहीं है। पति-पत्नी के संबंधों में पड़ी गांठें आए दिन किसी न किसी बच्चे का दम घोटती हैं। गरीबी के दुश्चक्र में फंसे परिवारों से लेकर सुविधासंपन्न लोगों तक, माता-पिता का अहंकार नई पीढ़ी का भविष्य अंधकार की ओर ढकेल रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभिभावकों की भूमिका निभा रहे दो इंसान यह समझ ही नहीं पाते कि उनके आपसी टकराव में बच्चों के मन-जीवन पर भी घाव लगते हैं।
वैवाहिक रिश्तों के बिखरते हालात में बच्चों का जीवन भी दुश्वार होता है। भविष्य के मायने तक न समझने वाले बच्चे आगामी जीवन को लेकर असुरक्षा से घिर जाते हैं। अकेलेपन का दंश उनके हिस्से आ जाता है। अपने अभिभावकों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल देखकर सामाजिक जीवन से भी कट जाते हैं। लंबे समय तक चलने वाले वैवाहिक विवाद से बच्चों के भावनात्मक और संवेदनात्मक जीवन पर ही नहीं, व्यावहारिक जीवन पर भी नकारात्मक असर पड़ता है।
अपने माता-पिता की अनबन देखने वाले बच्चों की सहज दिनचर्या और जरूरी दैनिक गतिविधियों में भी गड़बड़ी होने लगती है। विडंबना है कि आयु के जिस पड़ाव पर बच्चों को शारीरिक और मानसिक देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, वे अकेले पड़ जाते हैं। खुद बच्चे भी आपराधिक दुनिया का हिस्सा बन जाते हैं।
वैवाहिक अलगाव के अधिकतर मामलों में देखा जाता है कि बच्चों का संरक्षण अहंकार और असुरक्षा के भाव की लड़ाई बनकर रह जाता है। माता-पिता के बिगड़ते रिश्ते में बच्चे भी पीड़ा झेलते हैं। ऐसे मामलों को देखते हुए ही कुछ समय पहले उच्चतम न्यायालय ने तलाक के मामले में हर अभिभावक की चेतना को जगाने वाली टिप्पणी की थी। अदालत ने कहा था कि संरक्षण की लड़ाई में हमेशा बच्चों को नुकसान होता है।
बच्चे न केवल इसकी भारी कीमत चुकाते, बल्कि इस दौरान अपने माता-पिता के प्यार और स्नेह से भी वंचित रह जाते हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि बच्चे बिना गलती के यह पीड़ा भोगते हैं। चिंतनीय है कि कई मामलों में तो पति-पत्नी के बीच छिड़ी तलाक की जंग बरसों-बरस चलती है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अगर मध्यस्थता से वैवाहिक विवाद नहीं सुलझता, तो न्यायालयों को जितना जल्दी हो सके, ऐसे मामलों को सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। इस प्रक्रिया में लगने वाले हर दिन के लिए बच्चा बड़ी कीमत चुका रहा होता है।
समझना मुश्किल नहीं कि तलाक की प्रक्रिया के दौरान भी अभिभावकों के बीच की कड़वाहट, शिकायतें और आक्षेप लगाने का बर्ताव बच्चों को अपने भविष्य के प्रति आशंकित और आतंकित करता है। वहीं, तलाक के बाद बच्चों की अभिरक्षा, परवरिश और जिम्मेदारी विवाद का विषय बन जाता है। तलाक लेने की स्थितियों में भी न्यायिक नियमों के पालन के साथ ही मानवीय सहजता का भाव रखना जरूरी है।
खासकर उन लोगों के लिए, जो अभिभावक भी हैं। यह सच है कि पति-पत्नी के बीच उपजे आपसी मतभेदों के चलते स्थिति असहनीय हो जाए तो अलग हो जाने का मार्ग ही बचता है, पर बिखरते संबंधों के इस मोड़ पर भी संवेदनशीलता, सजगता और समझ की दरकार होती है। अलग होने के समय भी दोनों पक्षों का परिपक्व सोच के साथ परवरिश के साझा मोर्चे पर डटना जरूरी है। बच्चों के स्वास्थ्य और बेहतरी पर पारिवारिक संरचना के प्रभाव का मूल्यांकन करने वाले लगभग तीन दशक के एक शोध के अनुसार अपने विवाहित, जैविक माता-पिता के साथ रहने वाले बच्चों का शारीरिक, भावनात्मक और शैक्षिक विकास लगातार बेहतर होता है।
अलगाव के बाद भी सहज मन:स्थिति और ठहराव की कमी के कारण ही कभी एक-दूजे की जान लेने के मामले सामने आते हैं, तो कभी बच्चों का जीवन जोखिम में पड़ जाता है। गोवा की घटना को अंजाम देने वाली मां विदेश में शिक्षा ले चुकी है। 2021 में ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एथिक्स’ की सौ प्रतिभाशाली महिलाओं की सूची में शामिल रही है। आज की सजग स्त्री है। असल में ऐसे मामले मानवीय मन:स्थिति की उलझन का भी नतीजा होते हैं।
कभी पल भर का आक्रोश, तो कभी भविष्य से जुड़ी आशंकाओं के घेरे में इंसान ऐसी दर्दनाक घटनाओं को अंजाम देने से भी नहीं चूकते। निस्संदेह, सामाजिक-पारिवारिक संबंधों की उलझती गुत्थियां ऐसे अपराधों का धरातल तैयार करती हैं। इस मामले में भी एक मेधावी, उच्च शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला द्वारा अपने मासूम बच्चे का जीवन छीन लेने की मनस्थिति को गहराई से समझना आवश्यक है।
बच्चे को लेकर अभिभावकों में अलगाव के बाद भी सही ढंग से संवाद जारी रहता, तो यह स्थिति नहीं आती। सीधी बातचीत और दोनों के सहज मेल-मिलाप से महिला के मन में असुरक्षा के भाव नहीं पनपते। बच्चे के अपने पिता से मिलने को लेकर उपजी आशंकाओं का इस आपराधिक घटना की जड़ में होना तलाक लेने वाले हर अभिभावक को गंभीरता से ऐसे पहलुओं को समझने की जरूरत रेखांकित करता है। बदलते सामाजिक परिवेश में मन से लेकर जीवन तक बदल रहा हर पक्ष सकारात्मक नहीं है। विशेषकर घर-परिवार के मोर्चे पर नए सवाल, नई समस्याएं हमारे समक्ष चुनौती बनकर खड़ी हैं।
हमारे यहां विवाह विच्छेद के मामले दुनिया के बहुत से देशों के मुकाबले काफी कम हैं। बावजूद इसके, शादीशुदा जिंदगी से जुड़ी उलझनें अपराध के आंकड़ों में तेजी से बढ़ोतरी कर रही हैं। ‘वर्ल्ड आफ डेटा स्टैटिस्टिक्स’ के आंकड़े बताते हैं कि भारत में आज भी तलाक के मामले मात्र एक फीसद हैं। असली समस्या यह है कि तलाक के बाद भी न्यायिक निर्णय को मानने और सम्मानजनक ढंग से अपना-अपना जीवन जीने की समझ नदारद है। संबंधों के बनने-बिगड़ने के दौर में भी सहिष्णुता और विचार-व्यवहार की सकारात्मकता आवश्यक है।