वहां उन लोगों के शव विशेष वैज्ञानिक तरीके से रखे गए हैं, जिन्होंने अपने जीवन काल में मौत के बाद दोबारा जिंदा होना चाहा था। वे बीमारियों से मर गए। जीवन काल में उनकी उम्मीद रही कि आने वाले समय में तकनीक बेहतर होगी तो उनकी बीमारियां ठीक होंगी और वे लोग दोबारा जिंदा होंगे। इस उम्मीद में लोगों ने अपने शव सुरक्षित रखवाए हैं।

बड़े-बड़े टैंक के भीतर तरल नाइट्रोजन भरी है और साथ में रखे हैं शव और सिर। पूरे 199 लोगों के शव हैं, जिनके दोबारा जिंदा होने की उम्मीद ने उनके शरीर को इस हाल में रखा है। इस तरह शवों को रखने वाले उम्मीद कर रहे हैं कि भविष्य में विज्ञान इतना विकास कर लेगा कि ये लोग फिर से जिंदा होंगे।

शवों को इस तरह रखने का इंतजाम करने वाली ‘एल्कोर लाइफ एक्सटेंशन फाउंडेशन’ इन लोगों को ‘मरीज’ कहती है। इन लोगों की जान कैंसर, एमियोट्रोफिक लैटरल स्लेरोसिस या फिर इसी तरह की किसी बीमारी से गई जिसका आज इलाज मौजूद नहीं है। इस तरीके से सुरक्षित रखे शवों ‘क्रायोप्रिजर्व्ड’ कहा जाता है।

इन मरीजों में सबसे कम उम्र की हैं माथेरिन नाओवारातपोंग। दो साल की उम्र में इस थाई बच्ची की ब्रेन कैंसर से 2015 में मौत हो गई। एल्कोर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मैक्स मूर बताते हैं, ‘उसके मां बाप चिकित्सक थे और उसके दिमाग की कई बार सर्जरी की गई लेकिन दुर्भाग्य से कुछ काम नहीं आया। उन लोगों ने हमसे संपर्क किया।’ गैरलाभकारी फाउंडेशन का दावा है कि वह क्रायोनिक्स की दुनिया में सबसे आगे है। बिटकाइन के अगुआ हल फिने भी एल्कोर के मरीज हैं। 2014 में उनकी मौत के बाद उनका शव भी इसी तरह यहां रखा गया है।

‘कायोप्रिजर्वेशन’ की यह प्रक्रिया मिस्र में हजारों साल पहले मृत्यु के बाद लोगों के शवों को सुरक्षित रखने की परंपरा से अलग है। ममी बनाने के लिए दिल को छोड़ कर शरीर के अंदरूनी अंगों को बाहर निकाला जाता था। बाहर निकाले जाने वाले अंगों में दिमाग भी शामिल था। इसके बाद शव को सोडियम कार्बोनेट, सोडियम बाइ कार्बोनेट, सोडियम क्लोराइड और सोडियम सल्फेट के एक घोल की मदद से सुखा दिया जाता। फिर अंदर कई तरह के मसाले भर कर उन्हें सुरक्षित किया जाता था।

‘कायोप्रिजर्वेशन’ की प्रक्रिया किसी व्यक्ति की कानूनी रूप से मौत की घोषणा के बाद शुरू होती है। मरीज के शरीर से खून और दूसरे तरल निकाल दिए जाते हैं और उनकी जगह एक खास रसायन भर दिया जाता है। यह रसायन खासतौर से इसलिए तैयार किया गया है कि वह नुकसान पहुंचाने वाले बर्फ के कणों का बनना रोके। बेहद ठंडे तापमान पर शरीर को कांच जैसा बनाने के बाद मरीजों को एरिजोना के केंद्र में टैंकों के अंदर रख दिया जाता है। मूर का कहना है, ‘उन्हें यहां तब तक रखा जाएगा जब तक कि तकनीक विकसित नहीं हो जाती।’

इस तरह यहां रखने पर पूरे शरीर के लिए कम से कम दो लाख डालर का खर्च आता है। केवल दिमाग के लिए यह खर्च 80,000 डालर है। एल्कोर के 1,400 जीवित सदस्य इसका भुगतान जीवन बीमा की योजनाओं में कंपनी को लाभुक बना कर करते हैं। कंपनी को सिर्फ उतने ही पैसे मिलते हैं जितना इसका खर्च है। मूर की पत्नी नताशा विटा मूर इस प्रक्रिया को पसंद करती हैं और इसे भविष्य की यात्रा मानती हैं। उनका कहना है, ‘बीमारी या चोट का इलाज होता है या उन्हें ठीक किया जाता है और आदमी को नया शरीर या फिर पूरा नकली शरीर मिलता है या फिर उनके शरीर को दोबारा तैयार किया जाता है जिसके बाद वो अपने दोस्तों से फिर मिल सकते हैं।’

चिकित्सा के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोग इस बात से सहमत नहीं हैं। न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के ‘ग्रोसमान स्कूल आफ मेडिसिन’ के मेडिकल एथिक्स डिविजन के प्रमुख आर्थर काप्लान भी उनमें शामिल हैं। काप्लान का कहना है, ‘भविष्य के लिए खुद को जमा देने का ख्याल किसी विज्ञान फंतासी जैसा है। एक छोटा समूह है, जो इसकी संभावना को लेकर बहुत उत्साहित है।’