सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही कॉलेजियम के फैसले में दखल देने से इनकार करके विक्टोरिया गौरी मामले में चल रहे विवाद का पटाक्षेप कर दिया। लेकिन आजादी के बाद के दौर में एक अूठा मामला ऐसा भी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जज की नियुक्ति पर कैंची चला दी थी। ये मामला 1992 में सामने आया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि आजादी के बाद ये पहली बार हो रहा है जब जज की नियुक्ति पर गौर करना पड़ा।
1992 में केएन श्रीवास्तव को हाईकोर्ट के जज के तौर पर नियुक्ति दी गई थी। लेकिन उनको शपथ लेने से पहले ही शर्मसार होना पड़ गया। दरअसल गुवाहाटी हाईकोर्ट के जज के तौर पर उनका चयन किया गया था। राष्ट्रपति की तरफ से मंजूरी भी मिल गई। लेकिन उसी दौरान बार के एक धड़े ने केएन श्रीवास्तव की नियुक्ति पर एतराज जताया। बार का कहना था कि श्रीवास्तव ने कभी भी वकालत नहीं की। संविधान के सेक्शन 217 में साफ कहा गया है कि हाईकोर्ट का जज बनने के लिए वकालत करनी बहुत जरूरी है। बार का कहना था कि श्रीवास्तव मिजोरम सरकार के लॉ डिपार्टमेंट में सेक्रेट्री के पद पर तैनात थे।
बार के एतराज के बाद गुवाहाटी HC ने की थी सुनवाई
एक वकील की याचिका पर हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई की और पाया कि हाईकोर्ट का जज बनने के लिए जो पैमाना पूरा करना होता है उस पर केएन श्रीवास्तव खरे नहीं उतरते। हाईकोर्ट ने आदेश जारी किया कि राष्ट्रपति के नियुक्ति वारंट को लागू न किया जाए। हाईकोर्ट ने सरकार से श्रीवास्तव की नियुक्ति पर गौर करने के लिए कहा। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट के सुपुर्द कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ये बेहद शर्मसार करने वाला मामला
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि ये बेहद शर्मसार करने वाली स्थिति है कि हाईकोर्ट के एक जज की नियुक्ति के पैमाने पर वो विचार कर रहा है। शीर्ष अदालत का कहना था कि आजादी के बाद के तौर में ऐसी स्थिति कभी भी नहीं बनी कि एक तरफ एक शख्स हाईकोर्ट में घुसने की बाट जोह रहा है वहीं दूसरी तरफ उसकी योग्यता के पैमाने पर विचार किया जा रहा है।
हालांकि श्रीवास्तव के खिलाफ करप्शन और फंड में हेरफेर के भी आरोप थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन पर विचार नहीं किया। शीर्ष अदालत ने केवल इस पहलू पर नजर डाली कि वो हाईकोर्ट का जज बनने के योग्य हैं भी या नहीं। सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच का कहना था कि संविधान के 217(2)(a) के तहत हाईकोर्ट का जज बनने के लिए वकालत करना जरूरी है। लेकिन श्रीवास्तव ने मिजोरम सरकार के लॉ डिपार्टमेंट में जिस पद पर काम किया वो न्यायपालिका के दायरे में नहीं आता था। वो केवल कार्यपालिका का एक हिस्सा थे।
राष्ट्रपति के नियुक्ति वारंट को रोका गया
जस्टिस कुलदीप सिंह, जस्टिस पीबी सावंत, जस्टिस एनएम कसलीवाल की बेंच ने केएन श्रीवास्तव को हाईकोर्ट का जज बनने के लायक नहीं माना। तीन जजों की बेंच ने अपने फैसले में साफ तौर पर कहा कि श्रीवास्तव योग्यता के पैमाने पर हाईकोर्ट का जज बनने के लायक नहीं हैं। बेंच ने संविधान के आर्टिकल 219 का हवाला देकर सरकार को आदेश दिया कि श्रीवास्तव को हाईकोर्ट के जज की शपथ लेने से रोका जाए। खास बात है कि इस मामले में राष्ट्रपति की तरफ से नियुक्ति वारंट जारी होने के बाद भी श्रीवास्तव को हाईकोर्ट के जज की शपथ लेने से रोका गया।