जिला न्यायाधीशों के राष्ट्रीय सम्मेलन के समापन अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने लंबित मुकदमों और न्याय में देरी का उल्लेख करते हुए न्यायालयों को ‘तारीख पर तारीख’ देने और स्थगन की संस्कृति बदलने की नसीहत दी। इसके चलते अदालतों में लंबित मुकादमों की संख्या बढ़ती जाती है। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने स्पष्टीकरण दिया कि अदालतों में अठाईस फीसद जजों और सत्ताईस फीसद कर्मचारियों की कमी है। त्वरित न्याय के लिए इन कमियों को दूर करना जरूरी है।

जजों की कमी कोई नई बात नहीं है, 1987 में विधि आयोग ने हर दस लाख की आबादी पर जजों की संख्या दस से बढ़ाकर पचास करने की सिफारिश की थी। फिलहाल यह संख्या सत्रह है। अब अदालतों का संस्थागत ढांचा बढ़ा है। उपभोक्ता, परिवार और किशोर न्यायालय अलग से अस्तित्व में आ गए हैं। फिर भी काम संतोषजनक नहीं है। उपभोक्ता अदालतें अपनी कार्य संस्कृति के चलते अब बोझ साबित होने लगी हैं। बावजूद इसके, औद्योगिक घरानों के वादियों के लिए अलग से वाणिज्य न्यायालय बनाने की पैरवी की जा रही है।

अलबत्ता, आज भी ब्रिटिश परंपरा के अनुसार अनेक न्यायाधीश गर्मी में छुट्टियों पर चले जाते हैं। सरकारी नौकरियों में जबसे महिलाओं को आरक्षण का प्रावधान हुआ है, तब से हर विभाग में महिला कर्मियों की संख्या बढ़ी है। उन्हें 26 सप्ताह के प्रसूति अवकाश के साथ दो बच्चों की अठारह वर्ष की उम्र तक परवरिश के लिए दो वर्ष का ‘चाइल्ड केयर अवकाश’ भी दिया जाता है। अदालत से लेकर अन्य सरकारी विभागों में मामलों के लंबित होने में ये अवकाश बड़ा कारण बन रहे हैं। इधर कुछ समय से लोगों में यह धारणा बनी है कि न्यायपालिका से दबाव डलवा कर विधायिका और कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराए जा सकते हैं। इसलिए भी न्यायालयों में जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं, जो न्यायालय के बुनियादी कामों को प्रभावित करती हैं। जबकि प्रदूषण, यातायात, पर्यावरण और पानी जैसे मुद्दों पर अदालत की दखल के बावजूद बेहतर स्थिति नहीं बनी है।

जजों की छुट्टी भी है बड़ी वजह

न्यायिक सिद्धांत का तकाजा है कि सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए। दूसरे, आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला तय समय-सीमा में हो। मगर दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। इसकी एक वजह न्यायालय और न्यायाधीशों की कमी जरूर है, लेकिन यह आंशिक सत्य है। मुकदमों के लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा था कि, ‘न्यायाधीश भले निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन अगर वे कभी छुट्टी पर जाएं, तो पूर्व सूचना अवश्य दें, ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।’ दरअसल, सभी अदालतों के न्यायाधीश बिना किसी पूर्व सूचना के आकस्मिक अवकाश पर चले जाते हैं। गोया, मामले की तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है। उन्होंने यह भी कहा था कि ‘जब अस्पताल 365 दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं?’ हमारे यहां अस्पताल ही नहीं, राजस्व और पुलिस विभाग के लोग भी लगभग 365 दिन काम करते हैं। किसी आपदा के समय इनका काम और बढ़ जाता है। जबकि अदालतों पर कोई परोक्ष दबाव नहीं होता है।

यही प्रवृत्ति वकीलों में भी देखी जाती है। हालांकि वकील अपने कनिष्ठ वकील से अकसर इस कमी की वैकल्पिक पूर्ति कर लेते हैं। मगर वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते या मामले को मजबूती देने के लिए कोई दस्तावेजी साक्ष्य तलाश रहे होते हैं, तो वे बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। विडंबना है कि बिना किसी ठोस पड़ताल के, न्यायाधीश इसे स्वीकार भी कर लेते हैं। तारीख बढ़ाने का आधार बेवजह हड़तालें और न्यायाधीशों तथा अधिवक्ताओं के परिजनों की मौंते भी हैं। ऐसे में श्रद्धांजलि सभा कर अदालतें कामकाज को स्थगित कर देती हैं। जबकि इनसे बचने की जरूरत है। कड़ाई बरतते हुए कठोर नियम-कायदे बनाने का अधिकतम अंतराल पंद्रह दिन से ज्यादा का न हो। अगर किसी मामले का निराकरण समय-सीमा में नहीं हो पा रहा है, तो ऐसे मामलों को विशेष प्रकरण की श्रेणी में लाकर उनका निराकरण त्वरित और लगातार सुनवाई की प्रक्रिया के अंतर्गत हो। ऐसा होता है, तो मामलों को निपटाने में तेजी आ सकती है।

पांच साल में मामला खत्म करने की थी योजना

ऐसी ही सोच के चलते मुख्यमंत्रियों और न्यायाधीशों के एक सम्मेलन में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तू ने कहा था, ‘हम पूरी कोशिश करेंगे कि अदालतों में कोई भी मुकदमा पांच वर्ष से ज्यादा न खिंचे।’ यह न्याय प्रक्रिया के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण था। मगर हाल ही में हमने देखा कि अजमेर की अदालत में बत्तीस साल बाद छह दोषियों को सामूहिक बलात्कार के मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई। यानी निचली अदालत में ही एक मामले के निराकरण में बत्तीस साल लग गए। इसके आगे उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।

कई बार गवाहों की अधिक संख्या भी मामले को लंबा खींचने में मदद करती है। ग्रामीण परिवेश और बलवों से जुड़े मामलों में ऐसा अक्सर देखा जाता है। इस तरह के एक ही मामले में गवाहों की संख्या पचास तक देखी गई है। जबकि घटना के सत्यापन के लिए दो-तीन गवाह पर्याप्त होते हैं। इसका लाभ फरियादी के बजाय अपराधी को मिलता है। इसी तरह चिकित्सा परीक्षण से संबंधित चिकित्सक को अदालत में साक्ष्य के रूप में उपस्थित होने से छूट दी जाए। फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं यानी एफएसएल रपट समय से न आने के कारण भी मामला लंबा खिंचता है। एफएसएल की कमी होने के कारण अब तो सामान्य रपट आने में भी एक से ड़ेढ़ साल का समय लग जाता है। प्रयोगशालाओं में ईमानदारी न बरते जाने के कारण संदिग्ध रपटें भी आ रही हैं।

राज्य सरकारों का रवैया भी है जिम्मेवार

अदालतों में मुकादमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारों का रवैया भी जिम्मेवार है। वेतन विंसगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्श और पारदर्शी नियोक्ता की शर्तें पूरी नहीं करती हैं। नतीजतन, जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृति के बाद भी बकाए के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं। जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है। इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर न निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने के उपाय हैं। जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं, वह भटकता रहता है। इन मामलों से निजात पाई जा सकती है, मगर नौकरशाही ऐसे कानूनों को बनाए रखना चाहती है, क्योंकि इनके जरिए ही उनका रौब-रुतबा और आर्थिक हित सुनिश्चित रहते हैं।

कई बार गवाहों की अधिक संख्या भी मामले को लंबा खींचने में मदद करती है। ग्रामीण परिवेश और बलवों से जुड़े मामलों में ऐसा अक्सर देखा जाता है। इस तरह के एक ही मामले में गवाहों की संख्या पचास तक देखी गई है। जबकि घटना के सत्यापन के लिए दो-तीन गवाह पर्याप्त होते हैं। इसका लाभ फरियादी के बजाय अपराधी को मिलता है। इसी तरह चिकित्सा परीक्षण से संबंधित चिकित्सक को अदालत में साक्ष्य के रूप में उपस्थित होने से छूट दी जाए। फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं यानी एफएसएल रपट समय से न आने के कारण भी मामला लंबा खिंचता है।