मेले में आस्था का प्रवाह है। स्पष्ट है कि यह केवल समागम भर नहीं है – यहां आस्था, भक्ति की भव्यता का गगनचुंबी दर्शन है। करोड़ों लोग पवित्र स्नान करने के लिए हजारों एकड़ में फैले महाकुंभनगर में पहुंच रहे हैं। दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक समागम और हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक महाकुंभ मेला, हर 144 साल में एक बार आयोजित किया जाता है। यह उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में चल रहा है। तीन नदियों- गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती के संगम की ओर बढ़ते भक्तों का नजारा देखने लायक है – मीलों तक नंगे पांव चलते तीर्थयात्री, भस्म रमाए साधु। महाकुंभ मेला एक दुर्लभ और असाधारण आयोजन है जो प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के पवित्र संगम पर हर 144 साल में एक बार होता है।
महाकुंभ लाखों लोगों की जिंदगी में गहराई से जुड़ा हुआ है
महाकुंभ मेले में ग्रहों की विशेष स्थिति होती है, जो इसे भाग लेने वालों के लिए जीवन में एक बार मिलने वाला आध्यात्मिक अवसर बनाती है। दरअसल, महाकुंभ भक्ति की भव्यता के अलावा हमारे देश और सनातन की दिव्यता का प्राकाट्य भी है। बतौर भारतीय यह अपनी अध्यात्मिकता, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ने का मौका है। साफ दिखता है कि महाकुंभ लाखों लोगों की जिंदगी में गहराई से जुड़ा हुआ है। यह सिर्फ हिंदुओं का इतिहास नहीं है, भारत का भी इतिहास है। यह प्राचीन भारत की विरासत को आगे बढ़ाने की क्षमता का प्रमाण है।
धार्मिक पहलू से इतर, यह सदियों से चली आ रही परंपरा का परिचायक भी है। यही परंपरा भारत के विकसित होते सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ताने-बाने को आकार देती रही है। इसे सराहनीय बना रही है इसकी समावेशिता, जहां कोई भी अपनी पहचान की परवाह किए बिना भाग ले सकता है। प्रयागराज पहुंचने वाली और गंगा के तट पर डेरा डाले लाखों श्रद्धालु भोर में डुबकी लगा रहे हैं, जब तारे अभी भी टिमटिमा रहे होते हैं।
प्रयागराज इस बार महाकुंभ या पूर्ण कुंभ की मेजबानी कर रहा है। कुंभ मेले के बारे में कई मिथक हैं, इसकी सटीक उत्पत्ति के बारे में कई सिद्धांत हैं। कुछ लोगों का मानना है कि इसका उल्लेख वेदों और पुराणों में मिलता है। कुछ का कहना है कि यह हाल में शुरू हुआ है, बमुश्किल दो शताब्दियों पहले। लेकिन यह तो तय है कि यह आयोजन दुनिया में सबसे बड़े समागम वाले आयोजनों में शुमार है।
पौराणिक आख्यान
संस्कृत शब्द कुंभ का अर्थ है घड़ा या बर्तन। कथा यह है कि जब देवों और असुरों ने समुद्र मंथन किया, तो धन्वंतरि अमृत का घड़ा लेकर निकले। यह सुनिश्चित करने के लिए कि असुर इसे न पा लें, इंद्र के पुत्र जयंत घड़ा लेकर भाग गए। सूर्य, उनके पुत्र शनि, गुरु (ग्रह बृहस्पति), और चंद्रमा उनकी और घड़े की रक्षा करने के लिए साथ गए। जयंत के भागते समय अमृत छलक कर चार स्थानों पर गिरा : हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक-त्र्यंबकेश्वर। वे 12 दिनों तक भागते रहे। देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, इसलिए सूर्य, चंद्रमा और गुरु की सापेक्ष स्थिति के आधार पर हर 12 साल में इन स्थानों पर कुंभ लगता है।
प्रयागराज और हरिद्वार में भी हर छह साल में अर्ध-कुंभ ( अर्ध का मतलब आधा होता है) का आयोजन होता है। 12 साल बाद होने वाले इस उत्सव को पूर्ण कुंभ या महाकुंभ कहा जाता है। ये चारों स्थान नदियों के तट पर स्थित हैं – हरिद्वार में गंगा हैं, प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती का संगम है, उज्जैन में क्षिप्रा हैं, और नासिक-त्र्यंबकेश्वर में गोदावरी हैं। माना जाता है कि कुंभ के दौरान, आकाशीय पिंडों की विशिष्ट स्थिति के बीच इन नदियों में डुबकी लगाने से पाप धुल जाते हैं और पुण्य प्राप्त होता है।
कैसे तय होता है कुंभ का स्थान
यह ज्योतिषीय गणना पर निर्भर करता है। कुंभ मेले में 12 साल के अंतराल का एक और कारण यह है कि बृहस्पति को सूर्य के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में 12 साल लगते हैं। कुंभ मेले की वेबसाइट के अनुसार, जब बृहस्पति कुंभ राशि (जिसका प्रतीक जल वाहक है) में होता है, और सूर्य और चंद्रमा क्रमश: मेष और धनु राशि में होते हैं, तो हरिद्वार में कुंभ आयोजित किया जाता है। जब बृहस्पति वृषभ राशि में होता है और सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं (इस प्रकार, मकर संक्रांति भी इसी अवधि में होती है) तो कुंभ प्रयाग में आयोजित किया जाता है। जब गुरु सिंह राशि में होता है, तथा सूर्य और चंद्रमा कर्क राशि में होते हैं, तो कुंभ नासिक और त्र्यंबकेश्वर में आयोजित किया जाता है, यही कारण है कि इन्हें सिंहस्थ कुंभ भी कहा जाता है।
कुंभ मेले की ऐतिहासिकता
कुंभ मेले की प्राचीनता के प्रमाण के रूप में स्कंद पुराण का हवाला दिया जाता है। कुछ लोग चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा सातवीं शताब्दी में प्रयाग में आयोजित मेले का वर्णन करते हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के ज्योतिष विभाग के प्रमुख प्रोफेसर गिरिजा शंकर शास्त्री के मुताबिक, ‘आज हम जिस कुंभ मेले को जानते हैं, उसका कोई भी उल्लेख निश्चित रूप से किसी भी शास्त्र में नहीं है। समुद्र मंथन का वर्णन कई पुस्तकों में मिलता है, लेकिन चार स्थानों पर अमृत के छलकने का वर्णन नहीं मिलता। कुंभ मेले की उत्पत्ति को समझाने के लिए स्कंद पुराण का व्यापक रूप से हवाला दिया जाता है, लेकिन पुराण के मौजूदा संस्करणों में वे संदर्भ नहीं बचे हैं।’
हालांकि, गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक महाकुंभ पर्व में दावा किया गया है कि ऋग्वेद में ऐसे श्लोक हैं जिनमें कुंभ मेले में भाग लेने के लाभों का उल्लेख है। कई लोगों का मानना है कि यह आठवीं शताब्दी के आदि शंकराचार्य थे जिन्होंने इन चार आवधिक मेलों की स्थापना की थी, जहां हिंदू तपस्वी और विद्वान मिलते थे, चर्चा करते थे, विचारों का प्रसार करते थे और आम लोगों का मार्गदर्शन करते थे। एक तर्क यह भी है कि प्रयाग में माघ मेले (हिंदू महीने माघ में आयोजित होने वाला मेला) का एक प्राचीन स्नान उत्सव आयोजित किया जाता था, जिसे शहर के पंडितों ने 1857 के विद्रोह के कुछ समय बाद ‘कालातीत’ कुंभ के रूप में प्रतिष्ठित किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अंग्रेज इसमें हस्तक्षेप न करें।
हालांकि, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और सोसाइटी आफ पिलग्रिमेज स्टडीज के महासचिव प्रोफेसर डीपी दुबे के मुताबिक, हरिद्वार में होने वाले मेले को संभवत: सबसे पहले कुंभ मेला कहा गया होगा, क्योंकि इस मेले के समय बृहस्पति कुंभ राशि में होते हैं। कुंभ की उत्पत्ति उत्तरी मैदानों की महान जीवन शक्ति के रूप में गंगा की पूजा से जुड़ी हुई है। पवित्र नदियों के तट पर मेले वास्तव में एक प्राचीन हिंदू परंपरा है। कुंभ मेले का सबसे पहला उल्लेख हिंदू पुराणों और प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, जिसमें इसे ऐसे समय के रूप में वर्णित किया गया है जब देवता भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए पृथ्वी पर उतरते हैं। गुप्त काल (लगभग चौथी-छठी शताब्दी ई.) में, कुंभ मेले में बड़ी भीड़ उमड़ने लगी क्योंकि राजाओं और शासकों ने इस आयोजन का समर्थन किया, पवित्र नदियों के किनारे मंदिर और स्नान घाट बनवाए। यह काल इस आयोजन के स्थानीय उत्सव से अखिल भारतीय आध्यात्मिक उत्सव में बदलने की शुरुआत का प्रतीक है।
अखाड़े और शाही स्नान महत्त्वपूर्ण
आठवीं शताब्दी से ही विभिन्न अखाड़ों के साधु (भिक्षु) प्रयागराज में शाही स्नान या पवित्र स्नान करने के लिए शुभ दिनों पर एकत्रित होते हैं। इन अखाड़ों का नेतृत्व नागा साधु करते हैं और त्रिशूल, तलवार, भाले, डंडे और ढोल जैसे हथियार धारण करते हैं। नागा साधु विभिन्न अखाड़ों से पारंपरिक जुलूस निकालकर स्रान के लिए नदी तक जाते हैं। नौवीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक अखाड़े ही महीने भर चलने वाले कुंभ उत्सव का आयोजन करते थे और शाही स्नान का क्रम तय करते थे, जो बाद में विवाद का विषय बन गया। लेकिन अब शाही स्रान का क्रम संस्थागत हो गया है, हालांकि अखाड़ों का दबदबा अभी भी बना हुआ है। मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, मौनी अमावस्या, बसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के शुरुआती घंटों में रथों, पालकी या हाथियों पर बैठे अखाड़ों के प्रमुख साधु या महामंडलेश्वर शाही स्नान का नेतृत्व करते हैं।
स्वतंत्रता के बाद कुंभ
पहला कुंभ मेला जनवरी 1954 में भारतीय अधिकारियों द्वारा आयोजित किया गया था। 1966 में, सात लाख से अधिक श्रद्धालुओं ने माघ पूर्णिमा पर पवित्र स्रान किया। जब 1975 से पूरे देश में आपातकाल लागू था, वर्ष 1977 में 12 कुंभ मेले संपन्न हुए और दो धाराओं में गंगा के प्रवाह से दो ‘संगम’ बने। 1989 में कुंभ क्षेत्र का विस्तार 3,000 एकड़ तक कर दिया गया, जिसमें सेना द्वारा गंगा पर और अधिक पंटून पुल बनाए गए। प्रयागराज में पवित्र स्रान के लिए भीड़ 1.5 करोड़ तक पहुंच गई, और कुंभ मेले को दुनिया के सबसे बड़े लोगों के जमावड़े के रूप में गिनीज वर्ल्ड बुक आफ रेकार्ड्स में दर्ज किया गया। कुंभ मेले का प्रसारण 2001 से सरकारी मीडिया चैनल दूरदर्शन पर शुरू हुआ। भारत के रिमोट सेंसिंग उपग्रह (आइआरएस-आइडी) ने दो नदियों गंगा और यमुना के संगम सहित कुंभ क्षेत्र के परिदृश्य को कैद किया ।
वर्ष 2013 में सबसे बड़े स्रान दिवस- मौनी अमावस्या पर, संगम पर रेकार्ड तीन करोड़ तीर्थयात्री पहुंचे थे। सरकार ने 14 सेक्टरों में फैले 22 घाटों की व्यवस्था की थी, जो गंगा के तट पर 18,000 फीट तक फैले थे। वर्ष 2019 में प्रयागराज में अर्ध कुंभ में कई नई व्यवस्थाएं शुरू की गर्इं, जिनमें शाही स्नान में किन्नर अखाड़े को शामिल करना भी शामिल है। इसके अलावा, कुंभ परिसर को साफ रखने वाले 10,000 सफाई कर्मचारियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सम्मानित किया।
अब वैश्विक स्वरूप
इस बार कुंभ मेला एक धार्मिक आयोजन के अपने स्वरूप से कहीं ज्यादा विशाल हो गया है। यह अब एक वैश्विक आयोजन है जो आस्था, संस्कृति और मानव सभ्यता के विराट रूप का समायोजन है। महाकुंभ नवाचार का केंद्र बन गया है, यह यात्रा क्षेत्र में टिकाऊ पर्यटन उपादानों को विकसित करने, बुनियादी ढांचे को बढ़ाने और विविध वैश्विक जरूरतों को पूरा करने के अनुरूप सेवाएं देने की जरूरत पर जोर दे रहा है। इससे वैश्विक पर्यटन को आकार देने की नई राह खुली है। मेजबानी करने की भारत की क्षमता बढ़ी है। जैसे-जैसे दुनिया जुड़ती जाएगी, कुंभ मेला भविष्य में वैश्विक पर्यटकों को आकर्षित करना जारी रखेगा।
भगदड़ से उठ गए सवाल
प्रयागराज में महाकुंभ मेले में मौनी अमावस्या पर भगदड़ की त्रासदी से इंतजामों को लेकर सवाल उठ गए। पृथ्वी पर मानवता के सबसे बड़े समागम के प्रबंधन की जटिल चुनौतियां हावी हो गईं। आस्था के समुद्र में भक्तों की विशाल संख्या सुसंगत प्रबंधन की मांग करती है। लेकिन आलम यह है कि सरकार पर मरने वालों की संख्या छुपाने के आरोप लगे। बताया गया कि भगदड़ कई जगहों मचा, लेकिन खबरें दबा दी गर्इं। सरकार अब तक मरने वालों की सटीक संख्या नहीं बता सकी है। दूसरी तरफ, उच्च तकनीक से गिनती का दावा कर रोजाना शृद्धालुओं की संख्या जारी की जा रही है।
यह हर कोई जानता है कि जहां ज्यादा भीड़ हो, वहां ठहराव ठीक नहीं हुआ। भीड़ जितना ठहरी रहेगी, खतरा उतना ज्यादा होगा। इस लिहाज से भगदड़ की घटना भीड़ नियंत्रण रणनीतियों के क्रियान्वयन के बारे में गंभीर सवाल उठाती है। कुंभ मेला न केवल प्रशासनिक कौशल की परीक्षा है, बल्कि वैज्ञानिक योजना के साथ आस्था से प्रेरित सभाओं को सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता की भी परीक्षा है।
देश में आपदा नियंत्रण के लिए नीतियां तैयार करने वाली शीर्ष संस्था, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने 2014 में बड़े आयोजनों में भीड़ प्रबंधन और भगदड़ की रोकथाम पर रपट प्रकाशित की थी। इसमें कहा गया है कि भीड़ पर नियंत्रण बहुत जरूरी है। अपेक्षा से ज्यादा भीड़ का पहुंचना, क्षमता से ज्यादा लोगों को अनुमति, कतार को व्यवस्थित करने में चूक, इकट्ठी भीड़ को अलग करने के लिए क्षेत्रीय विभाजन की कमी आदि को मुख्य खामी माना गया है।
रपट में अतीत में हुई कई भगदड़ का जिक्र किया गया है। इनमें से एक अगस्त 2003 में नासिक कुंभ में हुई भगदड़ है, जिसमें 29 तीर्थयात्रियों की मौत हो गई थी। रपट के मुताबिक, भीड़ के व्यवहार को समझना भगदड़ रोकने का अहम पहलू है। शोध से पता चला है कि भीड़ के व्यवहार को समझने से बल आधारित नियंत्रण के बजाय भीड़ नियंत्रण के लिए समुदाय आधारित दृष्टिकोण को बढ़ावा मिला है। अहम सुझाव यह है कि प्रवेश के लिए अनिवार्य पंजीकरण प्रक्रिया लागू की जाए।
अखाड़ों की परंपरा
साधु-संतों के कई अखाड़े हैं। उनके बीच धार्मिक वर्चस्व के लिए जोर-आजमाइश दिखती रही है। शाही सवारी, रथ, हाथी-घोड़े की सजावट, घंटा-बाजे, नागा-अखाड़ों के करतब और तलवार एवं बंदूकों तक का प्रदर्शन होता है। महाकुंभ में करोड़ों की लक्जरी गाड़ियों पर कई संतों की सवारियां चर्चा का विषय बनीं। शुरू में केवल चार प्रमुख अखाड़े थे, लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उनका बंटवारा होता गया और आज 13 प्रमुख अखाड़े हैं। अखाड़े अपनी-अपनी परंपराओं में शिष्यों को दीक्षित करते हैं। श्रद्धालु पुण्य कमाने की इच्छा लिए संगम पहुंचते हैं।
माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने सदियों पहले बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार को रोकने के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी। सनातन की पुनर्स्थापना के लिए जो शास्त्र से नहीं माने, उन्हें शस्त्र से मनाया गया। हालांकि, आदि शंकराचार्य का जीवनकाल आठवीं और नवीं सदी में था, अखाड़ों की स्थापना के बारे में तरह-तरह की कहानियां और दावे हैं।
आवाहन अखाड़ा, अटल अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, निर्मोही अखाड़ा, दशनामी, निरंजनी और जूना अखाड़ों का कई सदियों का इतिहास है। सभी अखाड़ों के अपने-अपने विधि-विधान और नियम हैं। 13 अखाड़े तीन समूहों में बंटे हुए हैं – शैव अखाड़े जो शिव की भक्ति करते हैं, वैष्णव अखाड़े विष्णु के भक्तों के हैं और तीसरा संप्रदाय उदासीन पंथ कहलाता है। उदासीन पंथ के लोग गुरु नानक की वाणी से बहुत प्रेरित हैं, और पंचतत्व यानी धरती, अग्नि, वायु, जल और आकाश की उपासना करते हैं।
अखाड़े जहां खुद को हिंदू धर्म के रक्षक के तौर पर देखते हैं, उनमें अनेक बार आपस में हिंसक संघर्ष हुए हैं, यह संघर्ष अक्सर इस बात को लेकर होता है कि किसका तंबू कहां लगेगा, या कौन पहले स्रान करेगा। हालांकि, महाकुंभ में अखाड़ों को लेकर अब तक ऐसी अप्रिय वारदात सामने नहीं आई है। वर्ष 1954 के कुंभ में मची भगदड़ के बाद, टकराव और अव्यवस्था को टालने के लिए अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई, जिसमें सभी 13 मान्यता-प्राप्त अखाड़ों के दो-दो प्रतिनिधि होते हैं, और आपस में समन्वय का काम इसी परिषद के जरिए होता है। देश भर में बहुत सारे बाबा-संत-महंत और धर्मगुरु ऐसे हैं, जिन्हें अखाड़ा परिषद मान्यता नहीं देता। अखाड़ों के ठिकाने कई तीर्थों और शहरों में हैं, लेकिन जहां कहीं भी कुंभ लगता है वे एक साथ जुटते हैं।
अर्थव्यवस्था में चार लाख करोड़ का योगदान
यह दुनिया का सबसे बड़ा समागम है, जिसमें भाग लेने वाले श्रद्धुालुओं की संख्या 50 करोड़ की संख्या पार कर जाएगी। महाकुंभ के पहले ही दिन 13 जनवरी को पौष पूर्णिमा स्रान के अवसर पर 1.5 करोड़ लोगों ने संगम में डुबकी लगाई। मकर संक्रांति के अवसर पर 3.5 करोड़ लोगों ने पुण्य स्नान किया। मौनी अमावस्या पर संख्या कई गुनी बढ़ गई। इस बार प्रयागराज में मेला स्थान को 3,200 हेक्टेयर से बढ़ाकर 4,000 हेक्टेयर कर दिया गया। घाटों की लंबाई 12 किलोमीटर कर दी गई, जो 2009 में मात्र आठ किलोमीटर ही थी।
यह आयोजन आर्थिक गतिविधियों का समागम भी है। 45 दिनों तक चलने वाला महाकुंभ मेला देश के सकल घरेलू उत्पाद में एक फीसद तक की वृद्धि कर सकता है। मोटे तौर पर अनुमान है कि महाकुंभ में अपेक्षित 40 करोड़ लोग पांच हजार रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से खर्च करें, तो इससे दो लाख करोड़ रुपए का आर्थिक प्रभाव होगा। हालांकि माना जा रहा है कि प्रति व्यक्ति खर्च 10 हजार रुपए तक हो सकता है, जिसका अर्थ है चार लाख करोड़ रुपये का आर्थिक प्रभाव। वर्ष 2019 के कुंभ में 1.2 लाख करोड़ रुपए के अतिरिक्त जीडीपी का सृजन हुआ था। तब 24 करोड़ लोग पहुंचे थे, जो 2013 के मेला से दोगुना था। सरकार ने इस मेले में तैयारियों पर 7,500 करोड़ रुपए खर्च किया जाना है, जिसमें राज्य सरकार का हिस्सा 5,400 करोड़ और केंद्र सरकार का हिस्सा 2,100 करोड़ रुपए का है।
महाकुंभ में अमेरिका और कनाडा की संयुक्त आबादी से भी ज्यादा पर्यटक आएंगे। इस आयोजन से यात्रा, आतिथ्य, बुनियादी ढांचे और कई अन्य क्षेत्रों को बड़ा लाभ होगा। महाकुंभ के आयोजन के प्रबंधन और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए आधिकारिक आवंटन बजट ?6,382 करोड़ (800 मिलियन डालर) है, जो 2019 कुंभ बजट की तुलना में 72 फीसद अधिक है। कंफेडरेशन आफ आल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआइटी) के अनुसार, कुंभ मेले में 45 दिनों में कम से कम 2-2.5 लाख करोड़ रुपए का वित्तीय लेन-देन होने की उम्मीद है।