अभिषेक कुमार सिंह
यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि दुनिया में अब जो करिश्मे होने हैं, उनमें सबसे बड़ी भूमिका विज्ञान की ही होगी। वैज्ञानिक चमत्कारों का यह सिलसिला काफी पहले शुरू हुआ था और इसकी ताजा कड़ी में चीन में जीन में सुधार (एडिटिंग) की मदद से पैदा कराई गर्इं दो जुड़वां बच्चियों का किस्सा है। चीन के शेंझेन विश्वविद्यालय के एक शोधकर्ता ही-जियांकुई ने हाल में दावा किया कि नवंबर, 2018 की शुरुआत में उन्होंने इंसानी कोशिकाओं में घुसपैठ कर रोगाणु जीनों को अलग करते हुए दो बच्चियों का जन्म कराने का करिश्मा कर दिखाया है, जिसके बारे में अरसे से विचार चल रहा था। ये दोनों बच्चियां एक प्रकार की ‘डिजाइनर बेबी’ हैं। एचआइवी-एड्स के भावी संक्रमण से बचाने के लिए उनकी आनुवंशिक संरचना में फेरबदल (काट-छांट) कर दी गई। हालांकि जियांकुई के एलान के बाद जब पूरी दुनिया से इस करिश्मे के खिलाफ नैतिकता से जुड़े सवाल और विवाद उठे, तो 28 नवंबर को जियांकुई ने कहा कि फिलहाल उन्होंने यह प्रयोग रोक दिया है। विशेष रूप से तब तक के लिए, जब तक कि गुणसूत्रों में फेरबदल की तकनीक को लेकर दुनिया में कोई मतैक्य नहीं बन जाता है।
डिजाइनर शिशु को लेकर पैदा विवादों की चर्चा करने से पहले ही जियांकुई के प्रयोग का मकसद देखें तो लगता है कि उन्होंने ठीक वही काम किया है, जो विज्ञान सदियों से इंसानियत की भलाई के लिए करता रहा है। उन्होंने आइवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) की मदद से तीन से पांच दिन के जुड़वां बच्चियों के भ्रूण के जीनों में गुणसूत्रों के बदलाव की तकनीक से ऐसे फेरबदल कर दिए, जिससे उन्हें भविष्य में एचआइवी संक्रमण का खतरा नहीं रहेगा। लगभग लाइलाज बीमारी एचआइवी-एड्स की रोकथाम, खासकर उससे बचाव की दिशा में यह एक बड़ा कदम है।
हालांकि इस प्रयोग की विस्तृत जानकारी देते हुए ही जियांकुई ने बताया था कि उन्होंने प्रयोगशाला में इन दोनों में से एक बच्ची के जीन की दोनों प्रतियों में बदलाव किया गया है जिससे उस पर एचआइवी-एड्स वायरस का असर नहीं होगा। जबकि एक बच्ची के जीन की सिर्फ एक प्रति में तब्दीली की गई है, जिससे उसके एचआइवी से संक्रमित होने की आशंका बनी रहेगी। शोध में शामिल इन बच्चियों को जन्म देने के लिए जिन मां-बाप के अंडाणु और शुक्राणु लिए गए थे, उनमें से पुरुष एड्सग्रस्त थे (जिनसे रोगाणु जीन बच्चियों में आए), जबकि महिलाएं इससे सुरक्षित थीं। अपने प्रयोग की जानकारी देते हुए ही जियांकुई ने यह भी साफ किया था कि इससे वे किसी आनुवंशिक बीमारी का इलाज नहीं करना चाह रहे थे, बल्कि उद्देश्य यह था कि कुछ लोगों में ऐसी खासियतें पैदा की जा सकें जिससे कि उनमें एचआइवी-एड्स के खिलाफ प्रतिरोधी ताकत पैदा हो जाए।
इस प्रयोग के तकनीकी पहलुओं में जाएं तो पता चलता है कि मनुष्यों में एड्स के लिए सीसीआर-5 नामक जीन जिम्मेदार होता है जो एचआइवी वायरस को शरीर में संक्रमण फैलाने में मदद करता है। इससे यह वायरस कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है और पूरे शरीर को संक्रमित कर देता है। माता-पिता में से किसी को एड्स की बीमारी रही हो, तो भी इसकी आशंका रहती है कि उनके बच्चों में एचआइवी का वायरस चला जाए। जियांकुई ने जीन में बदलाव की एक खास तकनीक ‘क्रिस्पर- कैस 9’ का इस्तेमाल किया और कोशिका के स्तर तक जाकर डीएनए से रोगाणु वाली जीन को काट कर बाहर निकाल दिया। क्रिस्पर कैस 9 एक तरह की आणविक (एटमी) कैंची है, जिसका इस्तेमाल वैज्ञानिक बीमारी पैदा करने वाले जीन को हटाने के लिए करते हैं। इस प्रक्रिया में ‘कैस 9’ नामक एंजाइम के इस्तेमाल से गुणसूत्र (डीएनए) में से या तो अवांछित रोगी डीएनए संरचना को काट कर पूरी तरह निकाल दिया जाता है, या फिर नई डीएनए संरचनाओं की वहां प्रविष्टि करा दी जाती है, जिससे संक्रमित डीएनए का असर खत्म हो जाता है। ऊपर से जीन संपादन का काम बेहद सरल लगता है, लेकिन जब हमें पता चले कि मानव गुणसूत्र (क्रोमोसोम) में डीएनए के पच्चीस लाख के करीब जोड़े होते हैं, तो इसका अहसास होता है कि डीएनए के स्तर पर जाकर जींस की काट-छांट कतई आसान नहीं है।
वर्ष 2014 में चीनी वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि उन्होंने भ्रूण के स्तर पर जीन संवर्धित यानी डिजाइनर बंदर बना लिए हैं। इसके बाद अप्रैल 2015 में चीन के शोधकर्ताओं के एक अन्य दल ने एक अपने शोधपत्र में दावा किया था कि उन्होंने दुनिया में पहली बार मानव भ्रूण के जीन में बदलाव का प्रयास किया है। हालांकि उनका यह प्रयोग कामयाब नहीं रहा था, लेकिन इससे दुनिया में सनसनी फैल गई थी। इसके साल भर बाद अप्रैल 2016 चीनी शोधकर्ताओं ने मानव भ्रूण को एचआइवी संक्रमण के खिलाफ जीन एडिटिंग से प्रतिरोधी बना लेने का दावा किया था। जीन में बदलाव की तकनीक से पहले भी कुछ प्रयोग हो चुके हैं। जैसे अगस्त, 2017 में साइंस मैगजीन में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी और दक्षिण कोरियाई वैज्ञानिकों की टीमों ने हृदय की मांसपेशियों की मोटाई बढ़ाने वाले जीन को क्रिस्पर कैस 9 तकनीक से ही हटाया था, जिसके कारण हर पांच सौ में से एक व्यक्ति हाइपरट्रॉपिक कार्डियोमायोपैथी नामक बीमारी की चपेट में आकर अपनी जान गंवा देता है। इस बीमारी में हृदय की मांसपेशीय दीवारें मोटी हो जाती हैं। इस सफलता के बाद माना गया कि जीन में सुधार से वैज्ञानिक और डॉक्टर कैंसर जैसी बीमारियों को भी कोशिका के स्तर से ही गायब कर देंगे। इस कामयाबी के साथ दावा किया गया था कि जीन सुधार की तकनीक से करीब दस हजार आनुवंशिक गड़बड़ियों के इलाज का रास्ता भी खुलेगा, जिनमें से बहुत-सी बीमारियों को लाइलाज की श्रेणी में रखा जाता है और जो कई पीढ़ियों तक अपना असर डालती हैं।
इस कथित चमत्कार को लेकर दुनिया में कई एतराज हैं और इसके नैतिक पहलू भी हैं, क्योंकि इससे इंसान प्रकृति के काम में सीधे दखल की हैसियत में आ गया है। लेकिन पहले यह देखना होगा कि आखिर इससे सभ्यता को क्या फायदा होगा। असल में इस तकनीक का जो सबसे अहम लाभकारी पहलू है, वह यह कि इससे चिकित्सा विज्ञान में नई राह खुल गई है। यह रास्ता सिर्फ आनुवंशिक बीमारियों के इलाज का ही जरिया नहीं बनेगा, बल्कि बीमारियों की आशंकाओं और अंतहीन खर्च आदि तमाम मुश्किलों को एक झटके में हल कर देगा। कह सकते हैं कि यदि इंसान चाहे तो अब ऐसी संतानें दुनिया में लाई जा सकती हैं, जिनमें कैंसर, हार्ट अटैक, मोटापे से लेकर एड्स आदि किसी भी ज्ञात जटिल बीमारी का भय नहीं होगा।
चिकित्सा के नजरिए से इसमें नैतिकता के सवाल ज्यादा अड़चन डालते प्रतीत नहीं होते। पर इसके कुछ नैतिक पहलू हैं जो सवाल पैदा करते हैं। जैसे अगर कोई व्यक्ति यह चाहे कि जीन में बदलाव की तकनीक से उसकी संतान का रंग-रूप, बालों व आंखों का रंग, कद-काठी, हाव-भाव और लिंग आदि उसके तय किए मापदंडों के मुताबिक कर दिए जाएं, तो इस तकनीक पर नैतिक प्रश्न जरूर उठेंगे। ऐसे सवालों के रहते यह क्रांतिकारी पहल संदिग्ध हो जाती है। जिन बीमारियों का कोई दूसरा इलाज नहीं है, वहां इसकी इजाजत देना अप्रासंगिक नहीं कहलाएगा। लेकिन सवाल है कि क्या मानव समुदाय जीन संपादन के सिर्फ इसी पहलू तक सीमित रह सकता है, उसके बेजा फायदे उठाने की कोशिश नहीं करेगा। यही वजह है कि खुद चीन की सरकार भी जियांकुई के दावे से हैरान है (हालांकि वहां जीन एडिटिंग के शोध पर प्रतिबंध नहीं है), इसलिए उसने इस दावे की जांच का एलान कर दिया है।