सुशील कुमार सिंह

दशकों पहले मनो-सामाजिक और प्रशासनिक चिंतक पीटर ड्रकर ने कहा था कि आने वाले समय में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धी होगा। दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएंगे, किसी देश की समृद्धि इस बात से आंकी जाएगी कि वहां शिक्षा का स्तर कैसा है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें, तो तथ्य है कि बिना स्थानीय और मातृभाषा के, उच्च शिक्षा के स्तर को मजबूती देना संभव नहीं होगा।

शायद यही कारण है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) इस मामले में कहीं अधिक दृढ़संकल्प दिखाई देता है। यूजीसी ने विश्वविद्यालयों सहित देश के सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में स्थानीय या मातृभाषा में पाठ्यक्रम शुरू करने के निर्देश दिए हैं। गौरतलब है कि मौजूदा समय में सभी प्रकार के विश्वविद्यालयों की संख्या एक हजार से अधिक है, चालीस हजार से ज्यादा महाविद्यालय और कई निजी शिक्षण संस्थान हैं। उनमें अंग्रेजी भाषा के बजाय स्थानीय भाषा को वरीयता देने और बच्चों को अपनी मातृभाषा में स्वाभाविक रूप से सोचने के अवसर देने से उन्नति के अधिक अवसर उपलब्ध होंगे।

मातृभाषा से तात्पर्य किसी क्षेत्र विशेष की उस भाषा से है, जिसके माध्यम से व्यक्ति मौखिक और लिखित रूप में विचार-विनियम करते हैं। भारत में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा में वृद्धि हो रही है। आज उच्च शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी नहीं हो सकती, क्षेत्रीय भाषा भी होनी चाहिए। यूजीसी का मानना है कि मातृभाषा में पढ़ाने की पहल तभी आगे बढ़ पाएगी, जब शिक्षक भी मातृभाषा में पढ़ाने के लिए तैयार हों। नई शिक्षा नीति 2020 में स्कूली शिक्षा को इसी रूप में उतारने का प्रयास किया जा रहा है। जाहिर है, उच्च शिक्षा में भी स्थानीय और मातृभाषा को माध्यम बनाना अनिवार्य होगा, अन्यथा ज्ञान की पूंजी इकट्ठा करने में युवा पिछड़ जाएंगे।

उच्च शिक्षा में मातृभाषा को लेकर राष्ट्रीय नीतियों को ऐसे सूक्ष्म और स्थूल वातावरण का निर्माण करना चाहिए, जो किसी प्रकार की सहायता पर निर्भरता के बजाय सशक्तीकरण के माध्यम से युवाओं के लिए बेहतर शिक्षा और जीवन स्थितियों के अनुकूल हो। नागरिकों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम बनाना, उन्हें सशक्त बनाने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक मातृभाषा भी है। जिन विश्वविद्यालयों में स्थानीय भाषाओं के उपयोग को लेकर सजगता है, वहां आने वाले दिनों में शिक्षा और शोध की गुणवत्ता तुलनात्मक रूप से बेहतर होती है।

विश्वविद्यालय में शिक्षा की आधिकारिक भाषाओं के रूप में स्थानीय भाषाओं का उपयोग करने के संभावित निहितार्थों पर विश्वविद्यालय के छात्रों के प्रदर्शन, नवाचार, विश्वविद्यालयों से निकले स्नातकों की रोजगार क्षमता, विश्वविद्यालयों की क्षमता के संदर्भ में चर्चा स्वाभाविक है।
स्थानीय भाषा का चुनाव विद्यार्थियों की स्वतंत्रता और व्यक्तित्व विकास का बड़ा कारण बन सकता है।

स्वदेशी छात्र अंतरराष्ट्रीय भाषा सीखने से जुड़ी चुनौतियों के समाधान के बजाय विश्वविद्यालयों में स्थानीय भाषाओं का उपयोग करके अपनी शिक्षा को बड़ा कर सकेंगे। भारत और अन्य एशियाई देशों में कई विषयों में अंग्रेजी माध्यम के बजाय क्षेत्रीय भाषा का उपयोग करने वाले छात्रों के लिए सीखने के परिणामों पर सकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिला है।

मातृभाषा में शिक्षा सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में भागीदारी की दर को भी बढ़ावा देगी। यूजीसी स्थानीय भाषा को बढ़ावा देने के लिए बार काउंसिल आफ इंडिया जैसे विभिन्न नियामक निकायों के साथ बातचीत कर रहा है। इसके लिए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई है, जो यह देखेगी कि संस्थान स्थानीय भाषाओं में कानूनी शिक्षा कैसे प्रदान कर सकते हैं? भारतीय तकनीकी परिषद ने भी लगभग दर्जन भर कालेजों में क्षेत्रीय पाठ्यक्रम शुरू किए थे।

भारत की नई शिक्षा नीति के अंतर्गत उच्च शिक्षा में अब क्षेत्रीय भाषाओं को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर विशेष बल दिया जा रहा है। हाल ही में नए शैक्षणिक वर्ष के लिए दर्जन भर से अधिक इंजीनियरिंग कालेजों ने भारतीय भाषाओं में तकनीकी पाठ्यक्रम की शुरुआत कर दी है। अब उच्च शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी नहीं, बल्कि अन्य भाषाएं भी हैं। अंग्रेजी के अलावा क्षेत्रीय भाषा, जिनमें हिंदी, असमिया, बंगाली, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, ओड़िया, पंजाबी, तमिल, तेलुगु और उर्दू भी उच्च शिक्षा के माध्यम में शामिल हैं।

भाषा किसी की भी हो, कैसी भी हो, सबका अपना स्थान है, पर जब स्थानीय भाषा के क्रम में हिंदी की बात होती है, तो भारत के विशाल जनसमुदाय का इससे सीधा सरोकार होता है। हिंदी भाषा ने दुनिया के तमाम कोनों को छू लिया है। पूरी दुनिया में अस्सी करोड़ से ज्यादा हिंदी बोलने वाले लोग हैं। तेजी से बदलती दुनिया का सामना करने के लिए भारत को एक मजबूत भाषा की जरूरत है।

हिंदी के बढ़ते प्रभाव के मूल में गांधी की भाषा-दृष्टि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। केंद्रीय हिंदी संस्थान ने भी विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार और पाठ्यक्रमों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। हिंदी में ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी विषयों पर सरल और उपयोगी पुस्तकों का फिलहाल अभाव है, पर जिस कदर भारत में व्यापार और बाजार का तकनीकी पक्ष उभरा है, उससे यह संकेत मिलता है कि हिंदी बढ़त बना लेगी।

दक्षिण भारत के विश्वविद्यालयों में हिंदी विभागों की तादाद बढ़ रही है, पर यह भी सही है कि उत्तर दक्षिण का भाषाई विवाद अब भी बना हुआ है। जो बात हिंदी के लिए कही जा रही है, वही उच्च शिक्षा के मामले में अन्य भाषाओं पर भी लागू होती है, तभी राष्ट्रीय शिक्षा नीति और यूजीसी के इरादे सफल हो पाएंगे। विश्वविद्यालयी शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम होने का नुकसान देश के युवा बड़े पैमाने पर उठा रहे हैं। हालांकि जिस तरह राज्य सरकारें एमबीबीएस और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए स्थानीय भाषा को तवज्जो दे रही हैं, वह एक सुखद संकेत है।

कुछ वर्ष पहले सिविल सेवा परीक्षा के ग्यारह सौ परीक्षार्थियों के नतीजे में मात्र छब्बीस का हिंदी माध्यम में चयनित होना और कुल भारतीय भाषा में से मात्र तिरपन का चयनित होना देश के अंदर इसकी दयनीय स्थिति का वर्णन नहीं तो और क्या है। हालांकि अब इसमें भी सुधार हो रहा है। अंग्रेजी एक महत्त्वपूर्ण भाषा है, पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसे स्थानीय भाषा की चुनौती माना जाए या दूसरे शब्दों में स्थानीय भाषा को अंग्रेजी के सामने खड़ा करके उसे दूसरा दर्जा दिया जाए।

फिलहाल स्थानीय और मातृभाषा में अगर शिक्षा सभी स्तरों पर सफल होती है, तो यह भारत के लिए औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी से छुटकारा पाने का कुछ हद तक अवसर ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी के अभाव वाले युवा अपनी भाषा के साथ अपनी तरक्की और देश के विकास को भी चौड़ा रास्ता देंगे।