चाबहार बंदरगाह की रेल लिंक परियोजना से ईरान ने भारत को अलग कर दिया है और कहा है कि इस परियोजना पर वह खुद काम करेगा। भारतीय कंपनियों ने इस काम में देर लगा दी। लेकिन बात इतनी भर नहीं थी। ईरान में चीन से जबरदस्त पूंजी निवेश हुआ है। इसके बाद ईरान ने यह कदम उठाया है। जानकार यह समझने में जुटे हैं कि ईरान-चीन के इस नए गठबंधन में अमेरिकी कारक क्या हैं? दक्षिण चीन सागर बनाम खाड़ी क्षेत्र की कूटनीति के क्या सवाल हैं? इसमें भारत के आर्थिक और कूटनीतिक नफा-नुकसान क्या हैं?

ईरान- भारत दोस्ती में दीवार

चाबहार ईरान का तटीय शहर है, जो दक्षिण-पूर्व में मौजूद दूसरे सबसे बड़े प्रांत सिस्तान और बलूचिस्तान में ओमान की खाड़ी से सटा है। यहां एक बंदरगाह है, जो ईरान का एकमात्र बंदरगाह है। इस बंदरगाह के विकास के लिए भारत और ईरान के बीच 2003 में अहम सहमति हुई, लेकिन फिर ईरान पर उसके परमाणु कार्यक्रमों को लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों की वजह से रुकावटें आने लगीं। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में 2016 में समझौते को मंजूरी मिली।

इसी साल प्रधानमंत्री मोदी तेहरान गए, जहां उन्होंने ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी और अफगानिस्तान के साथ एक त्रिपक्षीय समझौते पर दस्तखत किए। इसके तहत भारत को बंदरगाह के कुछ हिस्सों के विकास के लिए 10 साल की लीज मिली। साथ ही, उसे जाहेदान तक रेलमार्ग बनाने के लिए भी बुलाया गया जो सिस्तान और बलूचिस्तान प्रांत की राजधानी है। जाहेदान से अफगानिस्तान की सीमा लगभग 40 किलोमीटर दूर है। इस रेल लिंक से मालगाड़ी से सामान को आसानी से पहुंचेगा। इस पांच सौ किलोमीटर लंबी रेल परियोजना से ईरान ने भारत को अलग कर दिया है। हालांकि, भारत के पास चाबहार बंदरगाह के एक टर्मिनल का संचालन है।

भारत के लिए कितना अहम
चाबहार को भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह इस क्षेत्र में पाकिस्तान और चीन के प्रभाव को संतुलित करने का जरिया है। इसी क्षेत्र में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के ग्वादर शहर में एक बंदरगाह है, जिसका संचालन चीन करता है। चाबहार से ग्वादर की दूरी सड़क के रास्ते से 400 किलोमीटर से कम और समुद्र से लगभग 100 किलोमीटर पड़ती है। चाबहार भारत के लिए आर्थिक रूप से भी अहमियत रखता है। ईरान तक भारत की पहुंच होने पर रूस, यूरोप और मध्य एशिया तक का रास्ता खुल सकता है, सामानों के आयात-निर्यात की एक नई राह तैयार हो सकती है।

चीन की कैसी पैठ
चीन ने ईरान में चार सौ अरब डॉलर का निवेश कर इस रास्ते को रोकने की कोशिश की है। पश्चिम एशिया की राजनीति में अपनी अतिवादी नीतियों के कारण ईरान अमेरिकी प्रतिबंधों का शिकार है। उसके विकल्प सीमित हैं। दूसरी बात यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य वापसी संबंधी अमेरिका-तालिबान समझौते के अनुसार अफगानिस्तान का तालिबानी नियंत्रण में पुन: आ जाना लगभग तय है। जिहादी तालिबान भारत के मित्र तो नहीं हो सकते। वे पाकिस्तान के निकट होंगे। पाकिस्तान के कराची, ग्वादर पोर्ट उनके लिए उपलब्ध रहेंगे।

बलूचिस्तान का लोभ
ईरान से सटा पाकिस्तान का बलूचिस्तान सूबा एशिया में सोने, तांबे और गैस के सबसे बड़े भंडारों में से एक है। चीन की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने के लिए खास जगह है। दो दशक पहले पाकिस्तान सरकार ने बलूचिस्तान के रेगिस्तान में ही परमाणु परीक्षण किए थे और पाकिस्तान को दुनिया की सातवीं परमाणु ताकत का दर्जा मिला था। बलूचिस्तान में चीन की दिलचस्पी नई नहीं है। उसकी नजर शीत युद्ध के जमाने से भी पहले से इस इलाके पर है।

चीन ने अपनी पश्चिमी सीमाओं पर रणनीतिक निगाह रखी है। यूरोप, ईरान और मध्य एशिया के दूसरे देशों तक पहुंचने के लिए ये अहम रहा है। चीन ने कारोबारी और अन्य रणनीतिक कारणों से हमेशा ही पश्चिमी सीमाओं के पार देखा है। लंबे समय से अमेरिका ने दक्षिण पूर्वी चीन में अपना नौसैनिक बेड़ा तैनात कर रखा है। चीन के लिए ये एक अहम कारोबारी रूट है। मलक्का जलडमरूमध्य में अमेरिका की इस मौजूदगी से चीन के व्यापारिक हितों पर असर पड़ता है। ऐसे में अगर चीन समंदर के रास्ते अपना माल बाहर भेजने के लिए कोई वैकल्पिक रास्ता चाहता है तो बलूचिस्तान उसके लिए सबसे बेहतर है।
ईरान इसके लिए जरूरी है।

चीन को लेकर वैश्विक धुरी
ईरान, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के अलावा कोई और देश चीन के साथ नहीं है। ऐसी स्थितियों में चाबहार-जाहेदान प्रोजेक्ट जैसे झटके में आ सकते हैं। आज दुनिया में ईरान, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के अलावा एक चीनी विरोध की धुरी आकार ले रही है। भारत ने पत्ते खुले रखे हैं। ऐसे में भारत नए बन रहे वैश्विक ध्रुवीकरण पर निगाह रखे हुए है। दरअसल भारत और ईरान की दोस्ती की बुनियाद रही है दोनों की तटस्थता। शीतयुद्ध के दौर में भी भारत ने हमेशा अमेरिका की अगुवाई वाली पश्चिमी ताकतों और तत्कालीन सोवियत संघ की अगवाई वाली कम्युनिस्ट शक्तियों से बराबर की दूरी बनाए रखी। विश्लेषक बताते हैं कि भारत की अमेरिका से नजदीकी ईरान को रास नहीं आ रही।

वर्ष 2016 के बाद से कठिनाइयों के बावजूद चाबहार पोर्ट परियोजना में काफी प्रगति हुई है। ईरान को कुछ तकनीकी और वित्तीय मुद्दों को अंतिम रूप देने के लिए किसी आधिकारिक नियुक्ति का इंतजार था और उसका अभी भी इंतजार हो रहा है।
– अनुराग श्रीवास्तव, प्रवक्ता, विदेश मंत्रालय

ईरान उम्मीद रखता था कि प्रतिबंधों के दौरान भारत उसकी कुछ ना कुछ मदद करेगा, लेकिन अमेरिका का दबाव भारत पर इतना ज्यादा हो गया है कि अब उन्हें लगता है कि भारत के साथ दोस्ती बनाए रखना उनके लिए फायदेमंद नहीं। अगर उनको चीन का पैसा मिल गया है, तो चीन के पैसे से परियोजना पूरी कर लेंगे।
– केसी सिंह, ईरान में भारत के पूर्व राजदूत