प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमण ने हाल में बार-बार न्यायपालिका के बुनियादी ढांचे की दुर्दशा का मुद्दा उठाया है। उनका जोर आमूल-चूल सुधार पर है। कुछ समय पूर्व बांबे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ की इमारत के उद्घाटन के मौके पर उन्होंने केंद्रीय विधि मंत्री किरेन रिजिजू की मौजूदगी में जो कहा, वह चर्चा में है। उन्होंने कहा, ‘भारत की अदालतों में बढ़िया बुनियादी ढांचे की आवश्यकता से जुड़ी बातें हमारे जेहन में हमेशा ही बाद में आती रही है। इसी मानसिकता की वजह से आज भी हमारे देश की अदालतें पुरानी और टूटी-फूटी इमारतों से चलाई जा रही हैं।

ऐसे में अदालतों को प्रभावी रूप से अपनी भूमिकाओं के निर्वाह में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है’। न्यायमूर्ति रमण के पहले भी कई प्रधान न्यायाधीशों ने इस मुद्दे की ओर सरकार का ध्यान खींचा। 2016 में भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर एक मौके पर अदालत में लंबित मामलों, खाली पड़े न्यायिक पदों और बुनियादी ढांचों से जुड़ी परेशानियों की चर्चा करते हुए भावुक हो उठे थे। देश की अदालतों में 4.4 करोड़ मामले अटके पड़े हैं।
क्या है हाल
देश में न्यायिक अधिकारियों की कुल स्वीकृत संख्या 24,280 है। फिलहाल केवल 20,143 अदालती कक्ष उपलब्ध हैं। इनमें से 620 हाल किराए के हैं। फिलहाल 2,423 कक्षों का निर्माण किया जा रहा है। रिहाइशी इकाइयों की बात करें तो न्यायिक अधिकारियों के लिए महज 17,800 इकाइयां ही उपलब्ध हैं, इनमें से 3988 किराए के हैं। करीब 26 फीसद जिला अदालतों में मौजूद महिला शौचालयों में पानी नहीं है। दिव्यांग नागरिकों के इस्तेमाल से जुड़ी सहूलियतें नहीं के बराबर हैं। सिर्फ दो फीसद अदालतों में दृष्टिहीन नागरिकों की सुविधा के लिए आने-जाने के खास रास्ते बने हैं। महज 20 फीसद अदालतों में ही दिशा-निर्देशक नक्शे लगाए गए हैं। जरूरी हेल्पडेस्क सिर्फ 45 फीसद अदालतों में उपलब्ध है। 68 फीसद अदालतों में दस्तावेज संभाल कर रखने के लिए अलग से रेकार्ड रूम नहीं हैं। 50 फीसद अदालतों में पुस्तकालय नहीं है।
जरूरत पर जोर
अदालती बुनियादी ढांचे में न्यायालयों, कचहरियों, पंचाटों और वकीलों के कक्षों से जुड़ी इमारतें और उनके परिसरों को शामिल किया जाता है। न्यायिक प्रक्रिया और न्याय व्यवस्था के नतीजे सही समय पर सुनिश्चित कराने में मददगार साबित होने वाले तमाम संसाधन इसी दायरे में आते हैं। इनमें डिजिटल और मानव संसाधनों से जुड़ा पूरा ढांचा शामिल है। पर्याप्त और गुणवत्तापूर्ण न्यायिक ढांचा जजों, वकीलों और न्यायिक अधिकारियों की बेहद बुनियादी और पहली जरूरतों में शामिल हैं। ‘नेशनल मिशन फार जस्टिस डिलिवरी एंड लीगल रिफार्म्स’ के मुताबिक, इंसाफ में देरी और लंबित मुकदमों की समस्या को कम करने के लिए न्यायिक बुनियादी ढांचे की पर्याप्त उपलब्धता पहली शर्त है। सुप्रीम कोर्ट लारा गठित ‘नेशनल कोर्ट मैनेजमेंट सिस्टम’ (एनसीएमएस) का विचार है कि न्यायिक तंत्र के भौतिक, कार्मिक और डिजिटल ढांचे का लंबित मुकदमों की तादाद के साथ सीधा संबंध है। देश में केवल एक तिहाई निचली अदालतों में ही डिजिटल सुविधाएं हैं। इस कारण मार्च 2020 से कोविड-19 को लेकर आई रुकावटों के चलते अदालतों में लंबित मामलों की संख्या में 19 फीसद की बढ़ोतरी हुई है।
बुनियादी ढांचा पीछे क्यों छूटा
न्याय व्यवस्था में बुनियादी ढांचे की समस्याओं को न्यायिक शाखाओं के लिए विशेष बजट के अभाव के संदर्भ में देखा जा रहा है। न्यायमूर्ति रमण कई मौकों पर कह चुके हैं कि कभी भी न्यायपालिका की ओर पर्याप्त संस्थागत ध्यान नहीं दिया गया। न्यायिक शाखा को होने वाले बजटीय आवंटन से ये बात सामने भी आती है। न्यायिक तंत्र के लिए केंद्र और राज्यों का बजटीय आवंटन जीडीपी के एक फीसद हिस्से से भी कम है। हाल ही में जारी ‘इंडिया जस्टिस’ रिपोर्ट के मुताबिक, 2011-12 से 2015-16 के बीच भारत में न्यायपालिका पर सालाना औसत खर्च जीडीपी का महज 0.08 फीसद रहा। हालांकि 13वें और 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद केंद्र सरकार ने थोड़ा आवंटन बढ़ाया। लेकिन वह ऊंट के मुंह में जीरा की तरह साबित हुआ।बाद में इसे घटा दिया गया। वर्ष 2019-20 में बजट आवंटन 990 करोड़ रुपए से घटाकर 762 करोड़ रुपए कर दिया गया।

राशि मिली, पर इस्तेमाल नहीं

मौजूदा संकट के लिए वित्त ही इकलौती वजह नहीं है। विशिष्ट बुनियादी योजनाओं के लिए आवंटित कोष का पूरा इस्तेमाल न होना भी एक वजह है। बीते कुछ साल में केंद्र प्रायोजित योजनाओं के तहत निचली अदालतों में बुनियादी ढांचे से जुड़ी समस्याओं के निपटारे के लिए केंद्र ने पूरी रकम मुहैया कराई। वर्ष 1993 से 2020 के बीच केंद्र ने जिला अदालतों के लिए राज्यों को 7460.24 करोड़ रुपए की रकम जारी की थी। ये रकम केंद्रीय योजना में राज्यों के 40 फीसद हिस्से से अलग है। आवंटित रकम का बड़ा हिस्सा बगैर इस्तेमाल के रह गया। वर्ष 2019-20 में राज्यों को आवंटित 981.98 करोड़ रु में से पांच राज्य साझा तौर पर सिर्फ 84.9 करोड़ ही खर्च कर पाए।

क्या कहते हैं जानकार

भारत में जज-आबादी अनुपात अंतरराष्ट्रीय मानक से कम है। वर्ष दो हजार में प्रति 10 लाख आबादी पर 14 जज थे। 2021 में बढ़कर 21 हुए। चीन में यह आंकड़ा 147 और अमेरिका में 102 है। अनुभव यही रहा है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने न्यायिक ढांचे को लेकर वित्तीय आवंटन की खानापूर्ति ही की है।

  • न्यायमूर्ति बीएस चौहान, अध्यक्ष, 21वां भारतीय विधि आयोग

ढांचागत काम के लिए सलाह-मशविरे और तालमेल की पूरी प्रक्रिया बेहद थकाऊ और समय खपाने वाली है। राज्य और केंद्र के बीच तालमेल का अभाव दिखता है। नेशनल ज्यूडिशियल इंफ्रास्ट्रक्चर कारपोरेशन स्थापित करने का प्रस्ताव आया है। इसके गठन के बाद हो सकता है, हालात सुधरे।

  • विक्रम सिंह, पूर्व पुलिस महानिदेशक, यूपी</li>