स्वतंत्र भारत में दिसंबर 1951 और फरवरी 1952 के बीच लोक सभा और राज्य विधान सभाओं दोनों के लिए पहले चुनाव हुए थे। 1960 के दशक के अंत तक साथ चुनाव का दौर जारी रहा। इस दौरान अस्थिर गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें गिरने लगीं। इसकी वजह से मध्यावधि चुनाव हुए और इस प्रकार लोकसभा और राज्यों के संयुक्त चुनावों का पैटर्न टूट गया।

तारीखों को पूरे एक साल पीछे करवा दी थीं पूर्व प्रधानमंत्री

हालांकि, यह 1971 का आम चुनाव था जिसने एक साथ चुनावों की पिछली परंपरा को पूरी तरह से तोड़ दिया। चुनाव मूल रूप से 1972 के लिए निर्धारित थे, लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चुनावों को अपने लोकलुभावन उपायों पर जनमत संग्रह बनाने के लिए उत्सुक थीं। उन्होंने तारीखों को पूरे एक साल के लिए पहले करने का फैसला किया। इसने राष्ट्रीय और राज्य चुनावों की तिथियों को अलग कर दिया क्योंकि कई विधान सभाओं के कार्यकाल अभी समाप्त नहीं हुए थे।

एक साथ चुनाव कराने के हालात पर भी विचार होना चाहिए

अब, जब सरकार अपने एक राष्ट्र, एक चुनाव प्रस्ताव के साथ एक बार फिर एक साथ चुनाव कराने का प्रयास कर रही है और पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक हाई लेवल कमिटी विभिन्न स्टेक होल्डरों से मुलाकात कर रही है, तब उन हालातों को भी देखना होगा, जिसमें देश में हर पांच साल में एक बड़ा चुनाव होने का सिलसिला रुक जा रहा है।

कांग्रेस का पतन

1971 में एशियन सर्वे जर्नल के एक पेपर में अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक मायरोन वेनर ने 1967 में कांग्रेस के प्रदर्शन में गिरावट के बारे में बताया। उन्होंने “सूखे की अवधि, बढ़ती कीमतें, दो युद्ध, दो प्रधानमंत्रियों (जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री) की मृत्यु, बढ़ते भ्रष्टाचार और रुपये के अवमूल्यन के अलोकप्रिय निर्णय को वजह बताई थी।”

एक अन्य कारक जिसने कांग्रेस की अजेयता की धारणा को चुनौती दी, वह 1963 के बाद से गैर-कांग्रेसी दलों और समूहों के बीच कुछ चतुर चुनावी व्यवस्थाएं थीं। 1967 में उत्तर प्रदेश में गोहत्या पर राष्ट्रीय प्रतिबंध की मांग को लेकर संसद तक साधुओं के मार्च के दम पर जनसंघ 98 सीटों तक पहुंच गया।

जल्द ही जनसंघ, समाजवादियों, स्वतंत्र पार्टी और कम्युनिस्टों जैसे विपक्षी दलों द्वारा गठित संयुक्त विधायक दल (SVD) की सरकारें यूपी और बिहार सहित कई राज्यों में आईं। लेकिन ये और अन्य अस्थिर सरकारें, अपने स्वयं के विरोधाभासों और कांग्रेस की ताकत के कारण जल्द ही गिरने लगीं, जिससे हरियाणा, बिहार, नागालैंड, पंजाब, यूपी और पश्चिम बंगाल में मध्यावधि चुनाव कराने के लिए मजबूर होना पड़ा।

हालांकि यह एक साथ चुनाव कार्यक्रम में पहली बाधा थी। 1971 में लोकसभा चुनाव कराने के इंदिरा गांधी के फैसले ने इस व्यवस्था को पूरी तरह से बाधित कर दिया।

1971 का आम चुनाव

जब नेहरू और शास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली, तो पार्टी में न केवल परंपराएं खत्म हो रही थी, बल्कि पुराने नेता उन्हें खुली छूट देने को तैयार नहीं थे। 1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को विभाजित कर दिया और कांग्रेसियों का एक बड़ा हिस्सा अपने पक्ष में करके और संसद में सीपीआई, डीएमके और अन्य के समर्थन से टिके रहकर पार्टी के भीतर गुटबाजी को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया।

उन्होंने लोकलुभावन रुख अपनाते हुए वामपंथ की ओर रुख कर लिया था, बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था और एक कार्यकारी आदेश द्वारा पूर्व राजकुमारों को मिलने वाले प्रिवी पर्स को खत्म कर दिया था। जब सुप्रीम कोर्ट ने प्रिवी पर्स खत्म करने के फैसले को रद्द कर दिया तो उन्होंने अपनी नीतियों के समर्थन के लिए लोगों के पास जाने का विकल्प चुनते हुए लोकसभा को भंग करने की मांग की।

पॉलिटिकल स्टडीज जर्नल में 2010 में प्रकाशित एक अकादमिक पेपर में कॉनकॉर्डिया विश्वविद्यालय के सीसाबा निकोलेनी लिखती हैं, “चूंकि कांग्रेस (ओ) में इंदिरा गांधी के विरोधियों ने कई प्रमुख राज्यों में पार्टी संगठनों को नियंत्रित किया… उन्हें एक चुनावी क्षेत्र बनाने की ज़रूरत थी, जहां राष्ट्रीय मुद्दे और उनका करिश्माई व्यक्तित्व स्थानीय पार्टी मशीनों पर भरोसा किए बिना सीधे चुनावी समर्थन जुटा सके।”

अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक और लेखक लॉयड रूडोल्फ ने दिसंबर 1971 में एशियाई सर्वेक्षण में लिखा था, “श्रीमती गांधी का तत्काल, असंबद्ध चुनाव आयोजित कराने का उद्देश्य उनकी नीतियों और नेतृत्व पर एक राष्ट्रीय जनमत संग्रह कराना था।।”

वेनर लिखते हैं, “विरोधाभासी रूप से विपक्षी दलों ने मतदाताओं को राष्ट्रीय मुद्दों की ओर मोड़ने के श्रीमती गांधी के प्रयासों में योगदान दिया।श्रीमती गांधी को मुख्य लक्ष्य के रूप में चुनकर (और विकल्प के रूप में किसी भी राष्ट्रीय नेता को पेश किए बिना), उन्होंने श्रीमती गांधी के समर्थकों के उन्हें राष्ट्रीय नेता बनाने के प्रयासों का समर्थन किया।” दरअसल 1971 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ विपक्षी दलों के महागठबंधन को हराकर 43 प्रतिशत वोटों के साथ 350 लोकसभा सीटें हासिल कीं।