सूरज वह अंतरिक्षीय पिंड है, जिससे हमारी पृथ्वी पर जीवन स्पंदित है। विज्ञान की गहराइयों में जाएं तो सूरज असल में एक डायनमो की तरह काम कर रहा है। जिस तरह डायनमो में यांत्रिक ऊर्जा बिजली में बदलती है, उसी तरह सूर्य की सतह पर भी ऊर्जा का एक रूप दूसरे रूप में बदलता रहता है। लेकिन करोड़ों मील दूर होने और अपने करीब पहुंचने वाली हर चीज को पिघला कर उसे भस्म करने की इसकी क्षमता के कारण इसके कई रहस्यों से हम आज तक परिचित नहीं हैं। सूर्य के अध्ययन के लिए हाल में ईएसए प्रोबा-3 मिशन, पांच दिसंबर 2024 को, भारत के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से इसरो के राकेट पीएसएलवी-सी 95 से कामयाबी के साथ प्रक्षेपित किया गया।

कहने के लिए ईएसए प्रोबा-3 मिशन एक यूरोपीय अभियान है। यूरोपीय अंतरिक्ष एजंसी (ईएसए) ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो की उपग्रह प्रक्षेपण क्षमता और कम लागत के मद्देनजर इसमें भारत का सहयोग लिया है। भारतीय राकेट पीएसएसवी-सी 95 से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किए गए अभियान प्रोबा-3 का उद्देश्य सूर्य के बाहरी हिस्से- कोरोना से फूटने वाले विकिरणों और सौर लपटों का अध्ययन करना है। सूरज के अध्ययन में खुद भारत की दिलचस्पी भी है। असल में, इसकी शुरूआत बीते साल सितंबर 2023 में देश के पहले सोलर मिशन- ‘आदित्य-एल1’ के साथ हो चुकी है। सफल प्रक्षेपण के करीब चार महीने बाद धरती से 15 लाख किलोमीटर की दूरी तय कर यह अंतरिक्ष यान जिस एल-1 प्वांइट पर पहुंचा हुआ है, वहां रह कर यह सौरमंडल के इकलौते तारे यानी सूर्य की तमाम बारीकियों का अध्ययन कर रहा है।

भारत के भविष्य की नई नींव

चंद्रयान की तरह आदित्य-एल1 मिशन से भी इसरो को तमाम वे जानकारियां मिलने की उम्मीद है, जिनके बल पर अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत खुद को मजबूती से स्थापित कर सकता है। कह सकते हैं कि चंद्रमा के साथ-साथ सूरज के आंगन में इसरो की यह दस्तक भारत के भविष्य की नई नींव रख रही है। भारत का सूर्य मिशन आदित्य-एल1 फ्रांसीसी गणितज्ञ जोसेफ लुईस लैगरेंज के नाम पर लैंगरेंज प्वाइंट (एल-1) कहे जाने वाले अंतरिक्ष के एक विशिष्ट बिंदु या स्थान पर है, जहां सूर्य और पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल संतुलित होता है। इस स्थान पर एक तरह का ‘न्यूट्रल प्वाइंट’ विकसित हो जाता है, जहां अंतरिक्ष यान के ईंधन की सबसे कम खपत होती है।

सड़क हादसों की जानलेवा रफ्तार, दुर्घटनाओं के सवाल पर लज्जित महसूस करते हैं नितिन गडकरी

जोसेफ लुईस लैगरेंज ने इस बिंदु की खोज अठारहवीं सदी में की थी। यह स्थान पृथ्वी से 15 लाख किलोमीटर दूर है। सूरज हमारी पृथ्वी से 15 करोड़ किलोमीटर दूर है। ऐसे में थोड़ा आगे जाकर आदित्य-एल1 से सूर्य के बारे में काफी कुछ ऐसा जानने की कोशिश हो रही है, जिसका अभी तक रहस्योद्घाटन नहीं हुआ है। जैसे सौर प्रवाह (सोलर विंड), सूर्य के कारण होने वाले विद्युत-चुंबकीय (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक) विचलन और सौर हलचलों की वजह से पृथ्वी के मौसम या कहें कि जलवायु पर पड़ने वाले असर का सही-सही आकलन और मापन करना एक चुनौती है।

आधुनिक तरीके से सौर लपटों के गहन अध्ययन के लिए किया गया डिजाइन

आदित्य-एल1 पर मौजूद इलेक्ट्रोमैग्नेटिक और ‘पार्टिकल फील्ड डिटेक्टरों’ की मदद से सूर्य की बाहरी सतह यानी फोटोस्फेयर और क्रोमोस्फेयर को जानने की कोशिश होगी और यह पता लगाया जाएगा कि इनकी पृथ्वी पर होने वाली ऊर्जा के संचरण तथा अंतरिक्ष की हलचलों में क्या भूमिका होती है। सौर विकिरण की करीबी टोह लेने की कोशिश भी आदित्य एल-1 पर मौजूद सात पैलोड के जरिए होगी। सूर्य के कई अन्य रहस्य हैं, जिन्हें आदित्य एल-1 से समझने के प्रयास होंगे। ‘कोरोनल मास इजेक्शन’, ‘सोलर फ्लेयर’ और इनकी विशिष्टताओं के बारे में अगले पांच साल तक अंतरिक्ष में सक्रिय रहने के दौरान आदित्य एल-1 से कई अहम जानकारियां मिलने की उम्मीद इसरो कर रहा है। इस काम में ईएसए का प्रोबा-3 भी एक विशिष्ट सहयोगी की भूमिका निभाएगा।

22 करोड़ से ज्यादा लाभार्थियों तक नहीं पहुंच रहा फ्री अनाज, भूख और कुपोषण की बढ़ती चुनौतियां

प्रोबा-3 को भी बड़े आधुनिक तरीके से सौर लपटों के गहन अध्ययन के लिए डिजाइन किया गया है। इस अभियान के तहत ईएसए ने अपने दो उपग्रहों- कोरोनाग्राफ और आक्यूल्टर को कृत्रिम रूप से सैकड़ों बार पूर्ण सूर्यग्रहण लगाने के लिए भेजा है। ऐसा कर वैज्ञानिक सूर्य के बाह्य वातावरण यानी कोरोना के रहस्यों को सुलझाने की कोशिश करेंगे। पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान सूरज के चारों ओर दिखने वाला चमकीला सफेद घेरा ही असल में कोरोना है, जो सामान्य अवस्था में नजर नहीं आता। अभी प्राकृतिक रूप से ऐसा होने का संयोग बेहद दुर्लभ है जो कई वर्षों में एकाध बार ही होता है। समस्या यह है कि पूर्ण सूर्यग्रहण की वह अवस्था कुछ ही पलों की होती है, जिसमें हीरे की तरह चमक बिखेरता कोरोना रूपी छल्ला नजर आता है। चंद पलों की इस अवधि में पर्याप्त वैज्ञानिक प्रेक्षण जमा कर पाना असंभव है। इसी असंभव काम को संभव करने की कोशिश प्रोबा-3 के माध्यम से हो रही है।

चंद्रमा की वजह से सूरज की रोशनी होती है बाधित

दरअसल, पृथ्वी की एक निश्चित कक्षा में स्थापित होने पर प्रोबा-3 के ये दोनों उपग्रह (कोरोनाग्राफ और आक्यूल्टर) एक दूसरे से लगभग 150 मीटर के फासले पर उड़ान भरते रहेंगे। इस तरह ये दोनों उपग्रह अगले दो साल की अवधि में सैकड़ों बार ऐसी स्थिति में होंगे जब वे परस्पर 492 फीट की दूरी पर आ जाएं, ताकि एक उपग्रह पर लगी डिस्क दूसरे उपग्रह पर स्थापित टेलीस्कोप को अपनी छाया में ले सके। ऐसी परछाई पड़ने पर वहां सटीक ढंग से कृत्रिम पूर्ण सूर्यग्रहण की स्थिति बनेगी। प्रोबा-3 के उपग्रह सैकड़ों बार जो कृत्रिम सूर्यग्रहण लगाएंगे, उनमें से प्रत्येक छह घंटे की अवधि वाला होगा। ऐसे में वैज्ञानिक अपने उपकरणों से व्यापक प्रेक्षण लेते हुए कोरोना की अच्छी तरह से पड़ताल करने में सफल हो सकते हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर विदेशी कर्ज का बोझ, विश्व बैंक की रिपोर्ट के बाद लगातार बन रहा दबाव

सूर्य के कोरोना में खगोलविदों की रुचि होने के कुछ ठोस कारण हैं। अध्ययनों से पता चला है कि प्राकृतिक ग्रहण के दौरान चंद्रमा की वजह से सूरज की रोशनी बाधित होती है, जो सूर्य की सतह की तुलना में कई गुना ज्यादा गर्म कोरोना अधिक तापमान होने के बावजूद कम रोशनी बिखेरता है। यह एक रहस्य है, जिसे वैज्ञानिक सुलझाना चाहते हैं। इसके अलावा एक विस्फोट के रूप में निकलने वाली सौर लपटों यानी ‘कोरोनल मास इजेक्शन्स’ (सीएमई) को समझने की कोशिश भी की जा रही है। चूंकि इस विस्फोट यानी सीएमई के दौरान कोरोना से अत्यधिक मात्रा में प्लाज्मा और चुंबकीय विकिरण सूरज की सतह से फूटता है, तो उससे हमारी पृथ्वी प्रभावित होती है। खासकर दूरसंचार नेटवर्कों, संचार उपग्रहों और पावरग्रिडों के संचालन में इस विकिरण के कारण व्यवधान पड़ता है। ऐसे में, अगर कोरोना और उससे होने वाले विस्फोटीय विकिरण के रहस्य को सुलझा लिया गया, तो सौर लपटों से बचाव के प्रभावी तरीकों की खोजबीन भी हो सकती है।