भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) की सलाह है कि भारत में शिक्षा खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का छह फीसद किया जाना चाहिए। सीआइआइ की यह सलाह ऐसे समय आई है, जब केंद्र सरकार यह दावा कर रही है कि आने वाले कुछ वर्षों में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन जाएगा। इसका आधार पर्याप्त विदेशी पूंजी, रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता, जीडीपी में बढ़ोतरी और कर संग्रह में सुधार है। मगर कोई देश दुनिया में सबसे ताकत वाला कब माना जाता है?

क्या केवल विदेशी पूंजी निवेश और रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की वजह से या और भी क्षेत्र हैं, जिनके आधार पर देश की प्रगति मापी जाती है? क्या शिक्षा के मामले में भारत की वही स्थिति है जो स्थिति उसकी आर्थिक क्षेत्र में है? यह सवाल महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि विकास और प्रगति का दारोमदार आर्थिक स्थिति के साथ शिक्षा पर आधारित हुआ करता है।

शिक्षा के बारे में केंद्र सरकार के दावे चाहे जो हों, मगर सच्चाई कुछ और ही कहती है। पिछले तीन वर्षों में केंद्र सरकार का शिक्षा पर निवेश तीन फीसद से भी कम रहा है। आंकड़े बताते हैं कि भारत का शिक्षा पर खर्च 2.7 फीसद से 2.9 के बीच स्थिर रहा है। फिर भी सरकार शिक्षा में क्रांति के दावे करती रही है। सवाल यह है कि क्या शिक्षा पर इतने कम निवेश से भारत विकास की उन ऊंचाइयों को छू पाएगा, जिसको छूने के लिए शिक्षा पर निवेश आबादी के मुताबिक जीडीपी का कम से कम छह फीसद होना चाहिए?

सीआइआइ का यह मानना उचित लगता है कि शिक्षा में वैश्विक मानकों को पूरा करने के लिए इस पर निवेश तुरंत बढ़ाया जाना चाहिए।

पिछले दिनों स्कूल शिक्षा प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन की एक रपट जारी की गई थी। उस अध्ययन में ब्रिटेन, अमेरिका, भारत, आस्ट्रेलिया, चीन, थाईलैंड, स्वीडन और इंडोनेशिया में शिक्षा पर उन देशों के खर्च का विवरण दिया गया है। इसमें 2018 से 2023 तक आठ देशों में शिक्षा पर हो रहे खर्च का विश्लेषण किया गया है। जिसमें भारत सबसे कम खर्च कर रहा है, जो विकसित देशों की कतार में आने के लिए जरूरी शिक्षा खर्च से बहुत कम है।

अध्ययन के मुताबिक, दुनिया में स्वीडन शिक्षा पर सबसे ज्यादा 6.7 से 6.9 फीसद खर्च करता है। यह वैश्विक मानक के अनुरूप है जो स्वीडन को विकसित देशों की कतार में खड़ा करता है। इसके बाद अमेरिका है जो अपने जीडीपी का 5.3 से 5.6 फीसद खर्च करता है।

थाईलैंड अपनी जीडीपी का चार से से 4.3 फीसद, आस्ट्रेलिया 5 से 5.50 फीसद, ब्रिटेन 5 से 5.50 फीसद, चीन 4.0 से 4.10 फीसद, इंडोनेशिया 3.7 से 4.3 फीसद और भारत लगातार तीन फीसद से भी कम खर्च करता आ रहा है।

भारत सरकार शिक्षा पर जीडीपी का जितना खर्च कर रही है, क्या उससे बेरोजगारी, आर्थिक हालात, गरीबी और मानव मूल्य सूचकांकों में सुधार किया जा सकता है? दुनिया के ज्यादातर देश प्राथमिक शिक्षा नामांकन में वैश्विक लक्ष्य हासिल कर चुके हैं। माध्यमिक स्तर पर मामूली अंतर है। वहीं भारत में माध्यमिक स्तर पर नामांकन की स्थिति विकसित देशों से कम है।

भारत को माध्यमिक नामांकन के स्तर को सुधारने की बहुत जरूरत है। इसके लिए जीडीपी का यदि शिक्षा पर व्यय छह या सात फीसद कर दिया जाए, तो माध्यमिक स्थिति (माध्यमिक स्कूल) सुधरने लगेगी। यदि विकसित देशों में माध्यमिक शिक्षा की स्थिति पर खर्च की बात करें, तो ब्रिटेन, स्वीडन 100 फीसद, अमेरिका 98 फीसद, चीन 92 फीसद, आस्ट्रेलिया 90 फीसद, इंडोनेशिया 82 फीसद और थाइलैंड 80 फीसद के साथ काफी अच्छी स्थिति में है।

भारत माध्यमिक विद्यालयों पर महज 79.6 फीसद ही खर्च कर रहा है। यह आंकड़ा बताता है कि भारत को प्राथमिक शिक्षा सहित सभी स्तरों की शिक्षा पर व्यय हर हाल में बढ़ाना होगा।

शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा पर होने वाला खर्च और भी कम है। पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण इलाकों में शिक्षा पर खर्च बढ़ाने की जगह घटाया गया और शहरों में बढ़ाया गया। केंद्र सरकार की ओर से हाल ही में जारी उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के मुताबिक, गांवों में वर्ष 2023-24 में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च में शिक्षा पर होने वाले खर्च की हिस्सेदारी घट कर 3.24 फीसद पर आ गई, जो वर्ष 2022-23 में 3.30 फीसद थी।

दूसरी तरफ शहरों में कुल खर्च में शिक्षा पर होने वाला व्यय 5.97 फीसद रहा, जो 2022-23 में 5.78 फीसद था। ये सभी आंकड़े तस्दीक करते हैं कि केंद्र सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा पर खर्च बढ़ाने की जरूरत है। यह इसलिए भी जरूरी है कि भारत में ग्रामीण इलाकों में शहरों की अपेक्षा शिक्षा खर्च का फीसद और शिक्षा का स्तर दोनों काफी कम है।

बीमारू राज्यों में तो हालात और ही खराब है। इसलिए ऐसे राज्यों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है जहां प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अभी काफी कुछ करना होगा।

शिक्षा के क्षेत्र में वर्ष 2020 में पाठ्यक्रमों में बदलाव कर उन्हें समसामयिक, उपयोगी और तर्कसंगत बनाया गया। यह प्रचारित किया गया कि इससे विद्यार्थियों को कई तरह के लाभ होंगे, जिससे उनके तनाव कम होंगे, लेकिन पिछले चार वर्षों में विद्यार्थियों में तनाव कई स्तरों पर देखा गया और उनमें आत्महत्या की प्रवृत्ति ऐसी बढ़ी कि यह एक बड़ी समस्या बन गई।

शिक्षा के सभी स्तरों पर स्थिति में सुधार लाने के लिए उन देशों से हमें सीखने की जरूरत है जो शिक्षा के क्षेत्र में सभी स्तरों पर दुनिया में सबसे आगे हैं। विद्यार्थियों का तनाव कम करने के लिए उसे चीन से सीखने की जरूरत है। इसी तरह स्वीडन से सीख कर प्रशिक्षण का विस्तार और विद्यालयों को बढ़ावा दिया जा सकता है।

आस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के तरीके से हाशिये पर पड़े समूहों को शामिल किया जा सकता है।

सभी देश एक दूसरे से विकास की गाड़ी को रफ्तार देने के लिए सीखते रहते हैं। भारत के शिक्षा, वाणिज्य और दूसरे तमाम क्षेत्रों के विशेषज्ञ दूसरे देशों में जाकर सीखते रहे हैं। शिक्षा व्यक्ति की प्रगति और उद्देश्य का आधार है। इस पर चिंतन, अध्ययन, सर्वेक्षण और समीक्षा होनी चाहिए। सभी स्तरों पर भारतीय शिक्षा का वह कौन-सा माडल हो सकता है, इस पर गहन विमर्श की जरूरत है।

इससे व्यक्ति, परिवार, समाज की सोच में साफ-साफ बदलाव दिखाई देगा। शिक्षा के क्षेत्र में जीडीपी का छह फीसद खर्च करने के साथ इसके सभी स्तरों पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। ऐसी शिक्षा देश के लिए वरदान साबित हो सकती है जो समाज के सभी वर्गों, जातियों और समुदायों का विकास सुनिश्चित करने में योगदान दे। वर्तमान सरकार से बुनियादी बदलाव और शिक्षा के बजट में बढ़ोतरी की हम उम्मीद कर सकते हैं।