राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में सत्रह फरवरी की सुबह भूकम्प के झटके आए। धमाके जैसी आवाज सुनी गईं। लोग दहशत में घरों से बाहर निकल आए। राष्ट्रीय भूकम्प विज्ञान केंद्र के अनुसार भूकम्प का केंद्र पांच किलोमीटर की गहराई में था। इसलिए इसकी तीव्रता भूगर्भ में ही कमजोर पड़ गई, सतह पर नहीं आ पाई। बिहार में भी भूकम्प के झटके महसूस किए गए। इसका केंद्र धरती की सतह से दस किलोमीटर नीचे था। इसलिए केवल अनुभव हुआ। मगर ताजा संकेत दिल्ली के लिए एक चेतावनी है। वैसे भी यहां हमेशा भूकम्प का खतरा बना रहता है। यह संकट इसलिए भी है, क्योंकि यमुना नदी के मैदानी क्षेत्र में भूमि की परत नरम है। हालांकि इस भूकम्प को विवर्तनिक परत (टेक्टोनिक्स प्लेट) में किसी बदलाव के कारण नहीं, बल्कि स्थानीय भूगर्भीय विविधता को माना जा रहा है।
गौरतलब है कि भारतीय सीमा के निकट तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने की चीन की योजना ने भारत और बांग्लादेश को चिंता में डाल दिया है। दरअसल, टेक्टोनिक प्लेटों में टकराव के कारण चीन के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से, नेपाल और उत्तर-भारत में अक्सर भूकम्प आते रहते हैं। इसकी चेतावनी संबंधी प्रणालियां अनेक देशों में संचालित हैं, लेकिन वह भूगर्भ में हो रही हलचलों की सटीक जानकारी समय पूर्व देने में ये लगभग असमर्थ हैं, क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले अमेरिका, जापान, चीन, भारत और अन्य देशों में भूकम्प आते ही रहते हैं।
पहले तेरह वर्षों में एक बार भूकम्प आने की रहती थी आशंका
इसलिए यहां बड़ा सवाल उठता है कि चांद और मंगल जैसे ग्रहों पर मानव बस्तियां बसाने का सपना देखने और पाताल की गहराइयों को नाप लेने का दावा करने वाले वैज्ञानिक आखिर पृथ्वी के नीचे उत्पात मचा रही हलचलों की जानकारी हासिल करने में क्यों विफल हैं? जबकि वैज्ञानिक इस दिशा में लंबे समय से कार्यरत हैं। अमेरिका और भारत सहित अनेक देश मौसम और भूगर्भीय हलचल की जानकारी देने वाले उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित कर चुके हैं।
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दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की मानें, तो सभी भूकम्प प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में मानवीय हस्तक्षेप का योगदान है। इसीलिए इस भूकम्प के लिए स्थानीय भू-गर्भीय विविधता को कारण माना गया है। दरअसल, प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकम्प की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। भविष्य में इन भूकम्पों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकम्पों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले तेरह वर्षों में एक बार भूकम्प आने की आशंका बनी रहती थी, लेकिन अब यह घट कर चार साल हो गई है।
25 अप्रैल, 2015 को नेपाल में जो भूकम्प आया था
यही नहीं, अब तक आए भूकम्पों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकम्पीय विस्फोट से निकलने वाली ऊर्जा की मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली हुई है। पच्चीस अप्रैल, 2015 को नेपाल में जो भूकम्प आया था, उनसे बीस थर्मोन्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहां हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा-नागासाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था। जापान और फिर क्योतो में आए सिलसिलेवार भूकम्पों से पता चला है कि धरती के गर्भ में भूकम्पीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी चल रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भूकम्प के मुहाने पर खड़े हैं।
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पूरी दुनिया भूकम्प का कहर झेलने को विवश होती रही है। हैरानी की बात है कि विज्ञान की तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में विफल रहे हैं, जिससे भूकम्प की जानकारी समय से पहले मिल जाए। भूकम्प के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्रित होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धांत से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ वर्ष पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया परत से जा टकराईं।
हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में आते रहते हैं भूकम्प
इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है, जहां पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकरा कर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकम्प आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में ज्यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकम्प आते हैं। भूकम्प की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किलोमीटर भीतर होती है। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकम्प की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किलोमीटर नीचे से चलती हैं। ये तरंगें जितनी कम गहराई से उठेंगी, उतनी तबाही भी ज्यादा होगी और भूकम्प का प्रभाव कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है, अब कम गहराई के भूकम्प का दौर चल पड़ा है। मैक्सिको में सितंबर 2017 में आया भूकम्प धरती की सतह से 40 किलोमीटर नीचे से उठा था। इसलिए इसने भयंकर तबाही मचाई थी। तिब्बत में आए भूकम्प की गहराई तो मात्र दस किलोमीटर आंकी गई है।
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दरअसल, सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने और कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं, तो भूकम्प आता है। कुछ भूकम्प धरती की सतह से 100 से 650 किलोमीटर के नीचे से भी आते हैं, लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है, इसलिए बड़े रूप में त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती। इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव रूप में बदल जाती है। इसलिए इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। इन भूकम्पों से ऊर्जा बड़ी मात्रा में निकलती है। एक बड़ा भूकम्प वर्ष 1994 में बोलिविया में दर्ज किया गया। पृथ्वी की सतह से 600 किलोमीटर भीतर दर्ज इस भूकम्प की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी।
प्राकृतिक आपदाएं अब व्यापक और विनाशकारी साबित हो रही हैं, क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमंडल भी परिवर्तित हो रहा है। अमेरिका और ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो शताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। उद्योगीकरण और शहरीकरण इसी अमीरी की उपज है। यह कथित विकासवादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन है। पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं, जो ब्रह्मांड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहे हैं। इस विकास के लिए पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन, जो कार्बन गैसें बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्रा में बनने लगी हैं। अब इन कारणों से प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। ऐसे में सीमेंट, लोहा और कंक्रीट के भवन जब गिरते हैं, तो त्रासदी भी अधिक व्यापक होती है।
