भारत और अमेरिका के बीच चल रही ट्रेड डील पर वार्ता अभी रुक गई है। 30 जुलाई 2025 को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25 फीसदी टैरिफ लगाया था। वहीं इसके बाद उन्होंने रूस से तेल खरीद का हवाला देते हुए 25 फीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगा दिया। पहले चरण में लगाया गया 25 फीसदी टैरिफ भारत पर लागू हो गया है। वहीं अगला 25 फीसदी 27 अगस्त से लागू होने वाला है। अमेरिकी टैरिफ के पीछे रूस के साथ तेल खरीद को वजह बताया जा रहा है। हालांकि स्थिति उससे अलग है। इसके लिए आपको 6 साल पीछे जाना पड़ेगा।

6 साल पहले मोदी सरकार ने क्या फैसला लिया था?

भारत ने नवंबर 2019 में भारत ने रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) में शामिल होने से पीछे हटने का निर्णय अंतिम समय में लिया था। ये भारत द्वारा अब तक किया गया सबसे व्यापक क्षेत्रीय व्यापार समझौता था लेकिन इसपर मुहर नहीं लग पाई। उस दौरान यह खबर मीडिया के सुर्खियों में थी लेकिन अब 6 साल बाद एक बार फिर से उसका जिक्र होने लगा है।

कृषि और डेयरी से समझौता नहीं

शेयरहोल्डर्स के भारी विरोध के बीच एनडीए सरकार ने ये फैसला लिया था। इसका कारण सहकारी संगठनों की महिलाओं द्वारा लिखे गए कई हज़ार पत्र थे। इनमें से अधिकतर पत्र गुजरात की डेयरी सहकारी समितियों से थे। इन पत्रों में सहकारी समितियों की महिलाओं ने कृषि क्षेत्र और अपनी आजीविका पर RCEP समझौते के संभावित हानिकारक प्रभाव के बारे में चिंता व्यक्त की। ये सभी पत्र साउथ ब्लॉक के पोस्टबॉक्स में भेजे गए थे। इसके कारण पॉलिसी मेकर्स की चिंताएं बढ़ गई थीं। चीन की मार्केट में मौजूदगी और सस्ते चीनी सामानों के भारत के बाजारों में अधिक मात्रा में लाने और घरेलू उद्योगों (खासकर कृषि, डेयरी और इस्पात जैसे क्षेत्रों में) को नुकसान पहुंचाने की संभावना थी। कुछ ही हफ्तों बाद भारत ने RCEP से बाहर निकलने के अपने फैसले की सूचना दे दी। यानी RCEP के दौरान भी कृषि और डेयरी के मुद्दे पर बात रुकी थी और अब भी वही स्थिति है।

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RCEP से भारत द्वारा आखिरी समय में पीछे हट जाने की कहानी अब साफ हो रही है। 50 प्रतिशत टैरिफ के खतरे के साथ भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता खतरे में तो है लेकिन एक बात साफ है कि डेयरी और कृषि का मुद्दा भारत के लिए सबसे अहम है और इसका उल्लंघन मोदी सरकार नहीं करेगी। अगर उल्लंघन हुआ तो इस फैसले की राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ेगी। हालांकि भारत-अमेरिका ट्रेड डील के लिए बातचीत अच्छी रही है और जून के अंत तक यह स्पष्ट हो गया था कि समझौता होने वाला है, लेकिन उसके बाद यह अटक गई।

द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार उभरे कूटनीतिक और गैर-व्यापारिक मुद्दों ने इस समझौते को अधर में धकेल दिया है। इस बीच अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दबाव बढ़ा दिया और ये इसलिए क्योंकि भारत का कृषि और डेयरी के मुद्दे पर कड़ा रुख दिखाई दे रहा है। ऐसा दिख रहा है कि भारत इन मुद्दों पर झुकेगा नहीं, जैसा कि कई अन्य देशों ने एक प्रमुख टैरिफ समझौता हासिल करने के लिए किया है। ट्रंप के कुछ दावों का भारत द्वारा खंडन जैसे डिप्लोमेटिक मुद्दों ने भी परेशानियां बढ़ाई हैं।

हाई टैरिफ लगाना ट्रंप की रणनीति

भारत पर हाई टैरिफ लगाना ट्रंप की रणनीति का हिस्सा है, जिसमें उन्होंने लगातार एक ही पैटर्न अपनाया है। इसमें वो दूसरे पक्ष को अस्थिर करने के लिए लगातार भारी टैरिफ लगाते हैं और फिर बातचीत की टेबल पर बढ़त हासिल करने की कोशिश करते हैं। चीन पर भी 145 फीसदी टैरिफ लगाया गया था जिसे बाद में घटाकर 30% कर दिया गया। ट्रंप ने शुरुआत में यूरोपियन यूनियन पर भी 30 फीसदी का टैरिफ लगाया था लेकिन बाद में 15 फीसदी कर दिया गया।

जब भी अन्य देशों के साथ बातचीत रुकी है, राष्ट्रपति ट्रंप लाभ उठाने की रणनीति के तहत मामले को और बढ़ा देते हैं। चीन के अलावा यूरोपियन यूनियन, दक्षिण कोरिया और जापान सहित अधिकांश अन्य देशों ने कुछ ही दिनों में ट्रेड डील फाइनल कर लिए।

केवल रूसी तेल हाई टैरिफ की वजह नहीं

स्पष्ट रूप से भारत में टैरिफ के प्रभाव को कम करने के लिए परदे के पीछे बातचीत जारी रखते हुए एक निर्णय लिया गया है। इसके अलावा ये सेकेंडरी टैरिफ यूक्रेन युद्ध के लिए रूसी तेल खरीद की आड़ में लगाए जा रहे हैं। हालांकि ये रूस से कम और भारत से ज़्यादा जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। कुछ लोग इसे रूस को घेरने की ट्रंप की कोशिशों के तौर पर देख रहे हैं, लेकिन अगर ऐसा होता तो वह चीन पर भी लगाते जो रूस से सबसे बड़ा तेल खरीदार है। विडंबना यह है कि यूरोप रूस से लगातार नॉन कोल मिनरल्स खरीद रहा है जबकि अमेरिका ने भी उस देश से यूरेनियम और पैलेडियम की ख़रीद बढ़ा दी है।