अतुल कनक

भारत में कृषि का इतिहास नव पाषाणकाल से शुरू होता है। राजस्थान के कालीबंगा में तो ताम्रयुगीन खेती के अवशेष भी मिले हैं। ऋग्वेद की ऋचाओं में भी खेती संबंधी अनेक गतिविधियों का जिक्र हुआ है। कहते हैं कि राज्य में अकाल पड़ने की संभावनाएं प्रबल होने लगीं तो राजा जनक ने स्वयं खेत में हल चलाया था और हल की नोंक से मिट्टी उखड़ने से उन्हें एक बेटी की प्राप्ति हुई थी, जिसे सीता नाम दिया गया। द्वापर युग में श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का तो चिरूद ही हलधर है। एक हल उनके कंधे पर बहुधा रहता था। ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि सिंघु घाटी सभ्यता में कपास और धान की खेती की जाती थी।

एक प्राचीन भारतीय संस्कृत पुस्तक में कृषि भूमि को बारह श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। ‘भूमिवर्गा’ नामक इस पुस्तक का सृजनकाल ढाई हजार साल पुराना माना जाता है। इस पुस्तक के अनुसार उर्वरा, उषारा, मरू, अपहृता, शादवला, पनकीकला, कच्चाहा, शरकारा, शरकारवती, नद्यमात्रुका, देवमात्रुका और जलपाया कृषि भूमि के प्रकार थे। यह श्रेणी विभाजन मिट्टी की प्रकृति और क्षेत्र में पानी की उपलब्धता के आधार पर किया जाता था।

विद्वानों का मानना है कि करीब दस हजार साल पहले उत्तर के उपजाऊ मैदानों से आगे भी भारतीय उपमहाद्वीप में व्यवस्थित खेती की जाती थी। तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में ऐसे बारह प्राचीन स्थानों का पता चला है, जहां दाल, बाजरा और गेहूं की खेती के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि भारतीय कृषि का प्राचीन इतिहास ईसा से करीब नौ हजार साल पहले यानी आज से करीब ग्यारह हजार साल पहले प्रारंभ हुआ है।

बहरहाल, यह सर्वज्ञात तथ्य है कि खेती के विकास के बाद ही मनुष्य ने बस्तियों की सुनियोजित, सुरक्षित बनावट और बसावट की ओर ध्यान दिया। यह शहरीकरण की दिशा में मानवता का पहला चरण था। बस्तियां बनीं तो मानव ने अपनी दूसरी जरूरतों के सामान भी वहां जुटाए। सुविधाओं के विकास ने अन्य लोगों को भी इन बस्तियों की ओर आकर्षित किया।

धीरे-धीरे ये बस्तियां राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक शक्ति की केंद्र हो गईं और निरंतर विस्तार पाती चली गईं । कुछ दशक पहले तक, जब इंसानी श्रम पर मशीनों की दक्षता हावी नहीं हुई थी, गांव आधुनिक विकास से कुछ हद तक वंचित रहने के बावजूद समाज की उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे, लेकिन पिछले कुछ दशकों में शहरीकरण ने गांवों से उनकी सबसे कीमती संपत्ति छीननी शुरू कर दी है। यह संपत्ति है, उनकी कृषि भूमि।

चूंकि शहरों में रहने वाली जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है और इस आबादी को आवास सहित विविध सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए निरंतर नए निर्माण की आवश्यकता होती है, इसलिए दुनिया भर में शहरी आबादी निकटवर्ती गांवों की ओर बढ़ रही है। भारत में भी पिछले तीन दशकों में कृषि भूमि को आवासीय भूमि में परिवर्तित करके उस पर नवनिर्माण कराए जाने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ी है।

होने तो यह भी लगा है कि जैसे ही किसी निकटवर्ती गांव के आसपास किसी विकास योजना की चर्चा शुरू होती है, कुछ सामर्थ्यवान शहरी लोग उस गांव विशेष की कृषि भूमि को लामबंद होकर खरीद लेते हैं और फिर अवसर पाकर उस जमीन पर कृषि कार्य के स्थान पर कोई अन्य कार्य शुरू कर देते हैं। इनमें होटल या मोटल, रेस्तरां या फार्महाउस बनवाने जैसे काम शामिल हैं।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन 1993 से 2000 के बीच 3856.2 हेक्टेयर कृषि भूमि को परिवर्तित करके उस पर निर्माण कार्य किए गए। तब से यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि सरकार के पास तो केवल उस जमीन के आंकड़े हैं, जिन्हें कृषि के अलावा अन्य कामों के लिए उपयोग में लेने के लिए परिवर्तित करवाया गया। मगर अवैध रूप से कृषि भूमि पर हुए निर्माण या कब्जाई गई कृषि भूमि तो इससे कई गुना अधिक है।

यह प्रवृत्ति दुनिया के अन्य देशों में भी देखने को मिल रही है। मसलन, चीन के हैंग-जिया-हू क्षेत्र में शहरीकरण के तहत रास्ता बनाने के लिए ही कुल कृषि भूमि का 28.5 फीसद हिस्सा कम कर दिया गया। यूरोप और अमेरिका में भी यह स्थिति नीति निर्धारकों के लिए चिंता का कारण बनती जा रही है। कनाडा में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि 1988 से 2010 के बीच जो शहरी और उपशहरी क्षेत्र बसे या बढ़े हैं, उनमें से साठ फीसद का निर्माण कृषि भूमि पर हुआ है। फ्रांस, पुर्तगाल, रोमानिया, इथोपिया, नाइजीरिया, माली के विभिन्न शहरों में भी नीतिनियंताओं ने कृषि भूमि के गैर-कृषि उपयोगों पर चिंता प्रकट की है।

दरअसल, दुनिया की आबादी तेजी से बढ़ रही है और बढ़ती हुई आबादी के भरण-पोषण के लिए दुनिया को अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। एक रिपोर्ट में कुछ वर्षों पहले कहा गया था कि अपनी आबादी का पेट भरने के लिए भारत को सन 2025 तक तीस करोड़ टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी, लेकिन पिछले कुछ दशकों के दौरान कृषि वृद्धि की दर अस्थिर रही है। कुछ संदर्भों में तो इसमें लगातार गिरावट देखी गई है।

सन 2005-06 में जहां भारत में कृषि की वृद्धि दर 5.8 फीसद थी, 2009-10 में यह यह घटकर 0.4 फीसद हो गई और 2014-15 में तो नकारात्मक यानी (-) 0.2 फीसद। अगर आबादी के अनुपात में कृषि वृद्धि दर नहीं बढ़ती है और ऊपर से कृषि भूमि का रूपांतरण अन्य कामों के लिए होता रहता है, तो ऐसा न हो कि देश को 1970 के दशक से पूर्व की उस स्थिति का सामना करना पड़े, जब हमें खाद्यान्न का आयात करना पड़ता था।

हालांकि मौजूदा आंकड़े कहते हैं कि स्थिति बिगड़ी नहीं है। कुछ नीतियों और कुछ कृषि शैली में परिवर्तन करके हम खाद्यान्न के क्षेत्र में अपनी आत्मनिर्भरता को बनाए रख सकते हैं। स्थिर मूल्यों पर भारत का खाद्यान्न उत्पादन बढ़ रहा है और हम गेहूं, चावल, दालों, गन्ना और कपास जैसी फसलों के उत्पादन में दुनिया में विशिष्ट स्थान रखते हैं।

लेकिन हमें इस तथ्य की ओर भी ध्यान देना होगा कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान लगातार घट रहा है। सन 1950 के दशक में यह पचास फीसद था, लेकिन सन 2015-16 में फिसलकर 15.4 फीसद पर आ गया। हालांकि इसके लिए तकनीक, औद्योगिकी और निर्माण जैसे क्षेत्रों का निरंतर बढ़ता हुआ योगदान भी एक प्रमुख कारण है, फिर भी हमें यह ध्यान रखना होगा कि भारत आज भी कृषि प्रधान देश है। कृषि पर देश की उम्मीदें टिकी हुई हैं। इन उम्मीदों को बचाने के लिए अन्नदाता की जमीन और उसके अन्य हितों के संरक्षण की दिशा में जिम्मेदार एजेंसियों का निरंतर प्रयास करना होगा।