देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च और तकनीकी शिक्षा तक शिक्षण पद्धति को लेकर अजीब भ्रम, विरोधाभास और दुविधा की स्थिति बनी हुई है। नतीजतन, इनसे उबरने के अब तक जितने भी उपाय सोचे गए, वे शिक्षा के निजीकरण और अंग्रेजीकरण पर जाकर सिमटते रहे हैं। हालांकि नई शिक्षा नीति में सुधार के अनेक उपाय किए गए हैं, लेकिन बीते तीन वर्षों में उनके अनुकूल परिणाम नहीं निकले।
इसे उच्च शिक्षण संस्थानों की विडंबना ही कहा जाएगा कि इनमें बड़ी संख्या में छात्र बीच में पढ़ाई छोड़ और खुदकुशी कर रहे हैं। केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री ने राज्यसभा में पूछे गए प्रश्नों के लिखित उत्तर में कहा कि 2019 से लेकर अभी तक 32 हजार छात्र उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई छोड़ चुके हैं। वहीं इन्हीं पांच वर्षों में 98 छात्रों ने खुदकुशी कर ली। 2023 में ही अब तक आत्महत्या की 20 घटनाएं घट चुकी हैं।
इनमें देश भर के केंद्रीय विश्वविद्यालय, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थान और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसे उच्च कोटि के शिक्षण संस्थान शामिल हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए इन आंकड़ों से पता चलता है कि शिक्षण संस्थान विद्यार्थियों में उम्मीदों की उड़ान पैदा करने के बजाय निराशा और अवसाद का माहौल रच रहे हैं। तीन साल पहले लागू हुई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उत्साहजनक असर इन संस्थानों पर पड़ा हो, ऐसा कहना मुश्किल है।
इक्कीसवीं सदी को ज्ञान की सदी कहा गया है। ज्ञान परंपरा और मातृभाषाओं में शिक्षा देने की बात भी खूब जोर-शोर से उठी है। शिक्षा की पूंजी से गरीब और वंचित के लिए उच्च पद, बड़ा उद्योगपति और विश्वस्तरीय तकनीकिशियन बनने के रास्ते भी खुले हैं। बावजूद इसके शिक्षण संस्थानों से पलायन और आत्महत्या के मामले सामने आ रहे हैं, तो यह चिंतनीय पहलू है।
ज्ञान की महिमा ने इस भ्रम को तोड़ा है कि शिक्षा पर जाति, नस्ल या रक्त विशेष समुदायों का ही अधिकार है। राजतंत्र में यह धारणा सदियों तक फलीभूत होती रही कि भारत समेत दुनिया का कुलीन वर्ग नियति की देन है। जबकि वाकई यह पक्षपाती व्यवस्था की उपज रही है। हालांकि भारतीय मनीषियों ने ज्ञान की इस शक्ति को हजारों साल पहले जान लिया था।
ज्ञानार्जन शक्ति की ही देन है कि आज दुनिया शिक्षा और अनुसंधान से आविष्कृत ऐसा तकनीकी संसार रच रही है, जिसमें सुविधाएं मुट्ठी में हैं और लक्ष्य अंतरिक्ष में मनुष्य को बसाने की संभावनाएं तलाश रहा है। संभावनाओं के इस द्वार पर शिक्षा परिसरों में छात्र निराशा के भंवर में मौत का लक्ष्य तय कर रहे हैं, तो यह समूची शिक्षा पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है।
कुछ साल पहले केंद्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद के छात्र रोहित वेमुला और फिर तमिलनाडु के प्राकृतिक शिक्षा एवं योग महाविद्यालय की तीन छात्राओं द्वारा एक साथ आत्महत्या किए जाने के मामले सामने आए थे। कोटा और इंदौर से कोचिंग ले रहे छात्रों की खुदकुशी के मामले निरंतर सामने आते रहते हैं। देश के युवाओं के मरने की ये घटनाएं संभावनाओं की मौत है। ये मौत अध्ययन-अध्यापन से उपजी परेशानियों के चलते सामने आ रही हैं। बावजूद इसके, राजनीतिक दल मौत की इन घटनाओं को राजनीतिक चश्मे से देखते हैं। समस्या के समाधान की दिशा में ठोस पहल होती नहीं दिख रही है।
देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च और तकनीकी शिक्षा तक शिक्षण पद्धति को लेकर अजीब भ्रम, विरोधाभास और दुविधा की स्थिति बनी हुई है। नतीजतन, इनसे उबरने के अब तक जितने भी उपाय सोचे गए, वे शिक्षा के निजीकरण और अंग्रेजीकरण पर जाकर सिमटते रहे हैं। हालांकि नई शिक्षा नीति में सुधार के अनेक उपाय किए गए हैं, लेकिन बीते तीन वर्षों में उनके अनुकूल परिणाम नहीं निकले।
इधर मध्यप्रदेश सरकार ने चिकित्सा और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिंदी मध्यम से शुरू करके उल्लेखनीय पहल की है। इस नीति के नए आयामों में व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा के साथ कौशल विकास भी जोड़ दिया गया है। अपनी-अपनी मातृभाषाओं में शिक्षा की पुरजोर पैरवी भी की गई है। मगर, शिक्षा प्रणाली में आदर्श और समावेशी शिक्षा को बुनियादी तत्त्वों में शामिल करने के बजाय, शिक्षा के निजीकरण और अंग्रेजीकरण की बाध्यकारी शर्तें थोपी जाती रहीं। नतीजतन, शिक्षा सफलता के ऐसे मंत्र में बदल गई है, जिसका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना रह गया है। दुश्चक्र में फंसी शिक्षा की यही बानगियां इन आत्महत्याओं में दिख रही हैं।
कोटा के कोचिंग संस्थानों में निरंतर छात्रों द्वारा की जा रही खुदकुशी की पड़ताल करने से पता चलता है कि छात्रों को अभिभावक अपनी इच्छा के अनुसार बड़ा बनाने की होड़ में लगे हैं। केरल के रहने वाले एक छात्र ने आत्महत्या पूर्व पत्र में लिखा था, ‘माफ करना मम्मी-पापा, आपने मुझे जीवन दिया, लेकिन मैंने इसकी कद्र नहीं की।’ यह पीड़ादायी कथन उस किशोर का था, जो आइआइटी की तैयारी में जुटा था। ये संस्थान प्रतिभाओं को निखारने का दावा अपने विज्ञापनों में खूब करते हैं। मगर युवाओं को महान और बड़ा बनाने का सपना दिखाने का इस उद्योग का दावा कितना खोखला है, इसका पता यहां बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति से चलता है। शिक्षा के इस उद्योग का गोरखधंधा देशव्यापी है।
यहां करीब एक लाख बच्चे हर साल कोचिंग लेने के अलावा दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं में नियमित छात्र के रूप में पढ़ने आते हैं। यहां विरोधाभास यह भी है कि नियमित छात्र के रूप में करीब पंद्रह हजार छात्रों को ही प्रवेश मिल पाता है, बाकी के छात्र जिन शहरों से आते हैं, वे उन्हीं शहरों के निजी विद्यालयों के नियमित छात्र होते हैं, लेकिन नीट और आइआइटी की कोचिंग कोटा में लेते हैं।
सवाल है कि ये छात्र एक साथ अलग-अलग शहरों की दो-दो संस्थाओं में अध्ययन कैसे कर पा रहे हैं? स्कूलों में पचहत्तर फीसद हाजिरी की अनिवार्य शर्त कैसे पूरी हो रही है? साफ है, परिजन शुल्क चुकाने की दोहरी मार झेल रहे हैं। कोचिंग संस्थानों को अपनी जगह फीस दे रहे हैं और जिन स्कूलों में छात्र का नाम नियमित विद्यार्थी के रूप में दर्ज है, वहां हाजिरी की खानापूर्ति के लिए अलग से धनराशि चुका रहे हैं। इस गोरखधंधे में देश के बड़े पब्लिक स्कूल शामिल हैं। साफ है, शिक्षा के निजीकरण का यह खेल कई स्तरों पर मुनाफे की बंदरबांट का मजबूत आधार बना हुआ है।
मौत की इन घटनाओं और शिक्षा संस्थानों से पलायन की जानकारी राज्यसभा में सामने आने के बाद होना तो यह चाहिए था कि शिक्षा में जातिगत और पूंजीगत विसंगतियों को दूर करने के उपाय किए जाते। मगर प्रश्न के उत्तर के साथ ही राजनीतिक कर्तव्य की इतिश्री मान ली गई। यहां यह भी सोचने की बात है कि जो छात्र पढ़ाई छोड़ और जो आत्महत्या कर रहे हैं, उनमें बड़ा प्रतिशत अनुसूचित जाति और जनजाति छात्रों का है।
ये शिक्षा में आरक्षण और छात्रवृत्ति के उपायों के चलते संस्थानों में प्रवेश तो पा जाते हैं, लेकिन अंग्रेजी की कमजोरी के चलते शिक्षकों की प्रताड़ना और सहपाठियों के बीच उपहास का पात्र बन जाते है। अंग्रेजी की अनिवार्यता के चलते उनकी स्वाभाविक योग्यता बौनी साबित होने लगती है। ऐसे में जन्मजात संस्कारों में शामिल जाति, धर्म और लैंगिक भेदों से जुड़े पूर्वाग्रह परेशानी, अवसाद और उत्पीड़न का सबब बन जाते हैं।
यह स्थिति तब और कठिन होती है, जब यह किसी को पता नहीं होता कि संस्थानों में कौन पढ़ा रहा है और क्या पढ़ाया जा रहा है। शिक्षकों की यही पर्देदारी स्वस्थ विचार देने के बजाय, अपवाद स्वरूप कुत्सित विचार भी परोसने लगती है। यह संस्थानों में अराजक हिंसा का कारण भी बनता है। अमेरिका और यूरोपीय देशों में पाठ्यक्रम के रूप में साहित्य, विषमता, गरीबी, जाति, धर्म, लैंगिक असमानता और मानवाधिकार शामिल हैं। मगर हमारे यहां मेडिकल, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर और तकनीकी शिक्षा से ये सभी मानविकी विषय लगभग नदारद हैं। अब तो हमने केवल व्यावसायिक शिक्षा को ही जीवन की सफलता की कुंजी मान लिया है।