गणेश नंदन तिवारी

मुंबई। महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे के सहारे बैठी है। राज्य के नेताओं को उम्मीद है कि मोदी के बल पर उन्हें राज्य विधानसभा चुनावों में बहुमत मिल जाएगा। चूंकि भाजपा ‘ब्रांड पॉलिटिक्स’ को अहम और सफल मान रही है, लिहाजा राज्य में मोदी के सामने दूसरे नेताओं का कद बौना नजर आ रहा है।

कांग्रेस ने देश में जिस व्यक्तिवादी राजनीति को प्रमुखता दी, भाजपा ने वैश्वीकरण के बाद उसके चेहरे में सुधार कर ‘ब्रांड पॉलिटिक्स’ में बदल दिया है। इस समय भाजपा में एक ही ब्रांड है-नरेंद्र मोदी और सब कुछ उन्हीं के इर्दगिर्द घूम रहा है।

भाजपा इसी रणनीति के दम पर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव लड़ रही है। महाराष्ट्र में उसने 50 से ऊपर ऐसे नेताओं को टिकट दिया है जो दूसरी पार्टी से जुड़े थे। इनमें डेढ़ दर्जन राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के, डेढ़ दर्जन कांग्रेस के और नौ शिवसेना के नेता शामिल हैं। जब वोट मोदी के नाम से चाहिए, तो इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कौन चुनाव में खड़ा है। उसकी उपलब्धियां क्या हैं। उसकी क्या विचारधारा है। उसका क्या अतीत है। वह विश्वसनीय है या नहीं।

नब्बे के दशक में महाराष्ट्र में शिवसेना के कांग्रेस विरोध और हिंदुत्व के मुद्दे ने भाजपा को उसके करीब ला दिया था। बाल ठाकरे, प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे की तिकड़ी बनी। इसके बाद ही भाजपा का मराठा, कुनबी, ओबीसी में जनाधार बढ़ना शुरू हुआ। मुंडे ने मराठा और ओबीसी में एक वर्ग तैयार किया। बीते विधानसभा चुनाव में 29 रिजर्व सीटों में भाजपा को सात सीटें मिली थीं। ब्राह्मण-बनियों की पार्टी के रूप में जानी जानेवाली भाजपा उत्साहित थी कि उसे समाज के अन्य वर्ग भी उसे स्वीकार कर रहे हैं। यही कारण है कि भाजपा ने राष्ट्रीय समाज पार्टी, शिव संग्राम और स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के साथ रामदास आठवले के साथ गठबंधन किया है क्योंकि वह मराठवाड़ा में अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है।

जनाधार तो भाजपा को शिवसेना के गढ़ कोकण, कांग्रेस और राकांपा के परंपरागत गढ़ पश्चिम महाराष्ट्र और विदर्भ में भी बढ़ाना है। पिछले चुनाव में कोकण की 37 सीटों में से उसने पांच सीटें जीती थी, तो उसकी सहयोगी शिवसेना ने दस। बीते विधानसभा चुनाव में मराठवाड़ा में उसे मात्र दो सीटें मिली थीं। विदर्भ में उसे कामयाबी मिल रही है। यहां की 62 सीटों में से 2009 के विधानसभा चुनावों में उसे 19 सीटें मिली थीं। भाजपा की रणनीति इस चुनाव में विदर्भ में अपनी सीटों को दुगनी करना है।

लोकसभा की तरह महाराष्ट्र विधानसभा में भी स्पष्ट बहुमत पाने की आकांक्षा के चलते धुआंधार प्रचार के जरिए मोदी को आगे किया गया। सार्वजनिक सभाओं में लगातार किया जानेवाला मोदी मोदी का उद््घोष नरेंद्र मोदी को एक ब्रांड के रूप में स्थापित करने में मददगार है इसलिए बार-बार और हर बार किया जाता है। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए उपचुनावों से जब यह धुआंधार प्रचार गायब हुआ तो उसका नतीजा सभी के सामने था। अगर मोदी महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में एक भी रैली नहीं करें, तो क्या राज्य में भाजपा की वैसी हवा बन सकती है, जैसी आज बनी हुई है?

मोदी विरोधियों के गले यह बात नहीं उतर रही है कि प्रधानमंत्री देश का सारा काम धाम छोड़ कर पार्टी के चुनाव प्रचार में लगा रहे। वे खुल कर मोदी की आलोचना कर रहे हैं कि भाजपा अवसरवादी है और उसने दूसरे दलों के बागियों और भ्रष्टाचारियों को अपनी पार्टी में जगह दी और मोदी अपने भाषणों में ईमानदार राजनीति की बात कर रहे हैं। सच यह है कि राजनीति से नैतिकता सभी दलों ने मिल कर दूर कर दी है। इसलिए आम जन के बीच मोदी की करनी और कथनी में भिन्नता साफ नजर नहीं आ रही है। जिस राष्ट्रवादी कांग्रेस और कांग्रेस को मोदी भ्रष्टाचारवादी कहते हैं, उन्हीं के तीन दर्जन नेताओं के साथ उनकी पार्टी चुनाव लड़ने जा रही है। शायद भाजपा को लगता है कि जिस तरह से उसके नेता गंगा को साफ कर लेंगे, उसी तरह भ्रष्ट नेताओं का चरित्र भी साफ कर लेंगे।

मोदी के औसत भाषण तक श्रेष्ठता पा रहे हैं। महाराष्ट्र चुनाव में अपनी अब तक की सभाओं में उन्होंने बार-बार यह बात दोहराई कि अगर राज्य की जनता ने उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं दिया और उनकी सरकार नहीं बनी, तो यहां के नेता उन्हें राज्य की मदद नहीं करने देंगे। यही मोदी भाजपा शासित प्रदेशों की तरक्की की बात बार-बार दोहराने से नहीं चूकते और यह बात भूल जाते हैं कि इन प्रदेशों ने केंद्र में कांग्रेस की सरकार के रहते तरक्की की है।