मनोज कुमार मिश्र
चुनाव जीतने के लिए जनता से किए जाने वाले मुफ्त रेवड़ियों (मुफ्त में चीजें देने की घोषणाओं) पर पिछले दिनों राजनीतिक बहस तेज हुई और मसला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। सीधे चुनाव से जुड़ा मामला होने पर भी चुनाव आयोग ने इस मसले पर हाथ खड़े कर दिए। सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश अभी नहीं आया है। संभव है देश की सबसे बड़ी अदालत देर- सबेर कोई ठोस हल निकाल दे। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगातार कई बार अपने भाषण में मुफ्त की रेवड़ी को देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक बताया।
चुनाव में मुफ्त बिजली-पानी देकर दिल्ली के बाद पंजाब की सत्ता पाने वाली आम आदमी पार्टी (आप) ने इस पर कड़ा विरोध करके विषय को नई दिशा में मोड़ने का प्रयास किया। इसी बीच में दिल्ली की आबकारी नीति में बदलाव के नाम पर हुए भ्रष्टाचार की सीबीआइ जांच शुरू होने और उसमें सीधे आबकारी मंत्री और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया पर कारवाई होने से मुद्दा ही बदल गया।
चुनााव जीतने के लिए चुनाव के समय तरह-तरह के वादे जनता से करने की तो परंपरा तो शुरू से रही है लेकिन साठ के दशक से चुनाव जीतने के लिए मुफ्त में सामान और सुविधा देने के वादे दक्षिण के राज्यों से शुरू हुए। बीच-बीच में चुनाव आयोग की सख्ती से उसके तरीकों में बदलाव होते रहे। सामान्य दिनों में प्राकृतिक आपदा के कारण सरकार मुफ्त में जनता को मदद करती रही है। इसके अलावा सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को विभिन्न तरीके से सबसिडी देने की भी परंपरा भी अभी तक जारी है।
सरकारी अस्पतालों के माध्यम से मुफ्त इलाज और सरकारी स्कूलों के माध्यम से मुफ्त शिक्षा भी शुरू से ही दी जा रही है। अनेक योजनाओं में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए छूट और सस्ते में राशन देने आदि की व्यवस्था पहले से चली आ रही। सरकार के बार-बार सफाई देने के बावजूद देश के अनेक अर्थशास्त्री नेपाल के आर्थिक संकट के बाद मुफ्त की रेवड़ियों पर अंकुश लगाने की सलाह दे रहे है। शायद इसी के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर वकील अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका को स्वीकार कर उसकी सुनवाई की।
यह बहस जरूरी है कि कौन सी घोषणा जनहित में जरूरी है और कौन सी मुफ्त की रेवड़ी। हर दल हर चुनाव में अपने हिसाब से जनता का वोट पाने के लिए वाय्दे करते ही है लेकिन आप ने उन सभी से आगे बढ़कर एक सीमा तक बिजली-पानी मुफ्त देने की घोषणा करके दिल्ली का चुनाव जीत लिया। यह प्रयोग उन्होंने कई राज्यों में किए लेकिन उन्हें सफलता केवल पंजाब में मिली।
दिल्ली जैसे छोटे राज्य गोवा में भी आप ने शुरुआती सफलता पाई है। आने वाले दिनों में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने हैं, आप वहां भी इस तरह के वादे कर रही है। दिल्ली की स्थिति अन्य राज्यों से भिन्न है। केन्द्रशासित प्रदेश होने के कारण दिल्ली को कई नुकसान हैं तो कई फायदे भी हैं। दिल्ली में शुरू से ही गैर योजना मद पर होने वाले खर्च से ज्यादा राजस्व मिलती रही है। इसका एक कारण को दिल्ली का वितरण चरित्र यानी दिल्ली में उत्पादन होने के बजाय दूसरे राज्यों से सामान आता है और दूसरे राज्यों में भेजा जाता है लेकिन कर उसे मिलता है।
लेकिन मुफ्त की राजनीति पंजाब जैसे राज्य के लिए तो आत्मघाती है, जहां हजारों करोड़ रुपए सरकार को कर्ज का ब्याज देना पड़ रहा है। इसलिए जनउपयोगी और मुफ्त की रेवड़ी में फर्क किया जाना जरूरी है। यह चुनावी भ्रष्टाचार रोकने के लिए भी जरूरी है। यह बार-बार साबित हो चुका है कि तमाम सुधारों के बावजूद देश में भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण चुनाव प्रणाली है। चुनाव में धन-बल को रोकने जैसा जरूरी सरकारी पैसे से चुनावी रेवड़ी बांटने पर रोक लगाना जरूरी है।
इसके लिए जनता को ही फैसला लेना होगा। केवल आप जैसी एक ही पार्टी को सारा दोष वहीं दिया जा सकता है, हर दल में इस तरह की घोषणा करने की होड़ लगी रहती है। साथ ही जनउपयोगी घोषणाओं और मुफ्त की रेवड़ियों में अंतर किए बिना यह संभव नहीं होगा। जनता के ही दबाव से राजनेता इस तरह का रेवड़ियों को बांटना रूकेगा और देश आर्थिक बदहाली से बच पाएगा।