सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब FIR दर्ज करने में देरी होती है तब अदालतों को सतर्क रहना चाहिए। कोर्ट को साक्ष्य सावधानी पूर्वक देखने चाहिए। शीर्ष अदालत ने 1989 में दर्ज हत्या के एक मामले में उन दो लोगों को बरी कर दिया जिनकी सजा को छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने कहा कि बिलासपुर जिले में 25 अगस्त 1989 को एक व्यक्ति की हत्या के मामले में आरोपियों पर मुकदमा चलाया गया। मामले में FIR अगले दिन दर्ज की गई थी। बेंच ने पांच सितंबर को दिए गए अपने फैसले में कहा कि जब उचित कारण के बगैर केस दर्ज करने में देरी होती है तो अदालतों को सतर्क रहना चाहिए। ऐसे में प्रासीक्यूशन की कहानी में चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जाने की संभावना होती है। इसको खत्म करने के लिए साक्ष्यों को सावधानी पूर्वक देखा जाना चाहिए।
दो दोषियों ने दी थी छत्तीसगढ़ HC 2010 के फैसले को चुनौती
सुप्रीम कोर्ट में ये मामले लेकर हरिलाल और परसराम पहुंचे थे। दोनों ने उच्च न्यायालय के फरवरी 2010 के फैसले को चुनौती दी गई थी। उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के जुलाई 1991 के आदेश को बरकरार रखा था। उन्हें हत्या के लिए दोषी ठहराकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीन लोगों पर हत्या के आरोप में मुकदमा चलाया गया और निचली अदालत ने उन सबको दोषी ठहराया था। सजा के खिलाफ अपील के लंबित रहने के दौरान एक आरोपी की मौत हो गई थी।
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने कहा कि खुद को घटना का चश्मदीद बताने वाले शख्स का बयान उसके पिछले बयान से मेल नहीं खाता। बेंच ने कहा कि आरोपियों को हत्या के अपराध के लिए दोषी ठहराने के वास्ते संबंधित व्यक्ति की गवाही पर भरोसा करना ठीक नहीं होगा। बेंच ने कहा कि प्रासीक्यूशन यह साबित नहीं कर पाया कि हत्या कैसे हुई और किसने की। फिर भी कोर्ट ने उम्र कैद की सजा दे डाली।