बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव के पहले जिस गठबंधन का सपना पाले हैं, उस पर उत्तर प्रदेश के दो क्षेत्रीय दलों के बीच की आपसी रार भारी पड़ती नजर आ रही है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को एक साथ लिए बगैर नीतीश उत्तर प्रदेश में कुछ खास कर पाएंगे… इस पर संदेह है। रही बात सपा और बसपा के एक साथ किसी भी गठबंधन का हिस्सा होने की, तो वह फिलहाल नामुमकिन नजर आ रहा है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के लिए 2024 में होने वाले लोकसभा में उत्तर प्रदेश के अपने अभेद्य किले को महफूज रखने में अधिक मशक्कत करनी पड़े, ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है।

बात सिर्फ तीन साल पहले की है। उत्तर प्रदेश में दो धुर विरोधी दलों समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने लोकसभा चुनाव के पहले गठबंधन कर सभी राजनीतिक दलों को चौंका दिया था। उस वक्त अखिलेश और मायावती की इस जोड़ी को बुआ-बबुआ की जोड़ी करार दिया गया था और कयास लगाए जा रहे थे कि इन दोनों दलों के साथ आने से उत्तर प्रदेश की 60 फीसद से अधिक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के साथ ही अन्य पिछड़ी जातियां साथ आ कर देश में सियासत की नई तदबीर गढ़ने जा रही हैं।

सपा-बसपा के इस अप्रत्याशित गठबंधन पर 20 अप्रैल 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुटकी ली थी। उन्होंने तब कहा था कि जनता खोखली दोस्ती करने वालों का सच जानती है। इन दोनों की दोस्ती टूटने की तारीख 23 मई तय हो चुकी है। हुआ ठीक वैसा जैसा नरेंद्र मोदी ने कहा था। 23 जून 2019 को बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने एलान किया कि लोकसभा चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी का व्यवहार ठीक नहीं था। इसलिए अब बहुजन समाज पार्टी आगे से सभी चुनाव अकेले ही लड़ेगी। अब तक मायावती अपने इस बयान पर कायम हैं और उन्होंने किसी भी राजनीतिक दल के साथ कोई समझौता नहीं किया है। इस समझौते में बसपा को दस और समाजवादी पार्टी को पांच सीटें मिली थीं।

उधर, समाजवादी पार्टी कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन के सभी प्रयोग करने के बाद भी ऐसा कुछ खास हासिल नहीं कर पाई है जिसपर उसे संतोष हो। हालांकि सपा के वरिष्ठ नेता राजेंद्र चौधरी जरूर कहते हैं कि विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को तीन करोड़ मत मिले हैं। ऐसा कह कर वे सपा की सियासी हैसियत का कागजी आंकड़ा पेश करने की कोशिश करते हैं।

समाजवादी पार्टी 2014 के लोकसभा चुनाव से लेकर इस वर्ष हुए विधानसभा चुनाव तक गठबंधन की शक्ल में किसी ऐसे सहयोगी की तलाश में है जिसके दम पर वह अपना खोया सियासी वजूद पुन: हासिल कर सके। लेकिन 2014 से अबतक उसे लगातार निराश ही होना पड़ा है। ऐसे में नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ी चुनौती सपा और बसपा को एक साथ लाने की है। उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटें दिल्ली की सल्तनत का रास्ता हैं। वहां तक तभी पहुंचा जा सकता है जब प्रदेश की अधिक से अधिक सीटों पर काबिज हुआ जा सके।

उधर, भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के अपने अभेद्य दुर्ग को और मजबूत करने में जुटी है। 2024 में लोकसभा चुनाव हैं। उसके पहले अयोध्या में राम मंदिर समेत तमाम मुद्दों पर वह अपने विरोधियों से बहुत आगे नजर आ रही है। या यूं कहें तो अब तक उत्तर प्रदेश में उसके मुकाबले कोई नजर नहीं आ रहा है। योगी आदित्यनाथ लगातार प्रदेश के दौरे पर हैं। वे 2024 के पहले प्रदेश में अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड और मजबूत करने में जुटे हैं। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश में संभावित गठबंधन से कोई कमाल कर भी पाते हैं या पिछले कई महागठबंधनों की तरह उनका ये प्रयास भी सिर्फ कागजी घोड़े दौड़ाने तक सीमित हो कर रह जाता है।