आटिज्म दरअसल विकास संबंधी एक दिक्कत है, जिसे चिकित्सीय भाषा में आटिज्म स्पेक्ट्रम डिसार्डर कहा जाता है। इससे पीड़ित व्यक्ति को आमतौर पर पढ़ने-लिखने, सहज होकर कुछ बोलने में परेशानी आती है। इसका असर अभिव्यक्ति पर पड़ता है। यों चिकित्सा जगत का ध्यान इस बीमारी के मसले पर देर से गया और यही वजह है कि फिलहाल इसका इलाज को लेकर शोध चल रहे हैं। मगर पहली कसौटी यह होती है कि समय पर इसकी पहचान की जाए और उसके कारणों पर गौर किया जाए।
पहचान के पायदान
अब तक विकसित पद्धतियों का सहारा लिया जाए तो इससे ग्रस्त व्यक्ति को नए कौशल को सीखने में मदद मिलती है, जिससे वे अपना जीवन अच्छे से जी पाते हैं। आटिज्म तीन तरह का होता है। पहला आटिस्टिक डिसार्डर, जिसमें व्यक्ति को अन्य लोगों से बातचीत करने में मुश्किलें पेश आती हैं। इनकी रुचियां भी असामान्य होती हैं। वे बोलते समय अटक यह हकला सकते हैं।
उनकी बौद्धिक क्षमता भी थोड़ी बाधित हो सकती है। दूसरा, अस्पेर्गेर सिंड्रोम, जिसमें पीड़ित व्यकि कभी-कभार अपने व्यवहार से अजीब लग सकता है, मगर उनका आम बर्ताव सामान्य रहता है। हालांकि कुछ खास विषयों इनकी दिलचस्पी ज्यादा हो सकती है। तीसरा, पर्वेसिव डेपलपमेंट डिसार्डर, जिसमें कुछ विशेष स्थितियों में लोगों को इससे पीड़ित माना जाता है।
लक्षणों पर गौर
कुछ खास शब्दों को बार-बार दोहराना या फिर बड़बड़ाना, किसी चीज की तरफ संकेत करना, मां की आवाज सुन कर उस पर प्रतिक्रिया देना, आंखों में आंखें न मिला पाना, दूसरों से घुलने-मिलने में दिलचस्पी न लेना, देर तक अकेले चुप बैठे रहना, किसी एक ही काम को बार-बार करना, गुस्से से भर कर अशांत व्यवहार करना, खुद को चोट पहुंचा लेना, सीखी हुई बातों को भूल जाना आदि।
कारण और कारक
अध्ययनों के मुताबिक यह गड़बड़ी कुछ आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारणों से होता है, जो गर्भ में पल रहे बच्चे के दिमाग के विकास को बाधित करते हैं। जैसे दिमाग के विकास को नियंत्रित करने वाली कोशिका में कोई गड़बड़ी होना, गर्भावस्था में संक्रमण आदि। जो बच्चे समय से पहले पैदा होते हैं, उनमें भी कई बार कुछ बाधाएं व्यक्तित्व का हिस्सा हो जाती हैं। कुछ दवाओं के दुष्परिणाम इसके मुख्य कारणों में एक माना जा सकता है।
निदान के रास्ते
विशेषज्ञों के परामर्श के मुताबिक इससे पीड़ित लोगों के व्यवहार और विकास पर ध्यान दिया जा सकता है। इससे संबंधित कुछ शैक्षिक कार्यक्रम और व्यवहार मनोविज्ञान के अनुसार दिए गए प्रशिक्षण से पढ़ने-लिखने और अन्य जरूरी कौशल को सीखने में मदद मिल सकती है। दवाओं के जरिए आटिज्म का इलाज एक सीमित नतीजे ही देगी, मगर उनके जरिए बेचैनी, अवसाद और आक्रामक बर्ताव को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है।
शिशु की सेहत गर्मी से राहत
जनसत्ता: अब गर्मी में उमस उतरने लगी है। इस मौसम में पसीना बहुत निकलता है, हर समय त्वचा पर चिपचिपाहट महसूस होती रहती है। ऐसे में शिशुओं की परेशानी बढ़ जाती है। एक तो वे ज्यादातर समय किसी न किसी की गोद में रहते हैं, इसलिए उनकी त्वचा का संपर्क उन्हें गोद में लेने वाले की त्वचा से भी होता है। दोनों के पसीने के मेल से शिशु की त्वचा पर घमौरियां निकल आती हैं, दाने उभर आते हैं। उनमें खुजली और जलन होती रहती है। इसलिए बच्चा बेचैनी महसूस करता है। इस समस्या से बचने के लिए कुछ एहतियाती उपाय अवश्य करने चाहिए।
हल्के कपड़े पहनाएं
गर्मी और बरसात के ऊमस भरे दिनों में वैसे तो शिशु को जहां तक संभव हो, बिना कपड़े के रखना चाहिए। पर कपड़े पहनाने जरूरी हों तो उन्हें हल्के, सूती और मुलायम कपड़े पहनाएं। शिशु की त्वचा नाजुक होती है, इसलिए ऐसे कपड़े पहनाने से बचना चाहिए, जिससे उनकी त्वचा छिल जाए या उन पर दाने उभरने लगें। पालिएस्टर से बने कपड़े उन्हें कभी नहीं पहनाने चाहिए। अगर धूप में भी उन्हें लेकर निकलना है, तो हल्के कपड़े पहनाएं और ऊपर से किसी मोटे कपड़े से ढंकें।
दिन में दो बार नहलाएं
शिशु की सफाई बहुत जरूरी होती है, नहीं तो उन पर बैक्टीरिया का संक्रमण बहुत जल्दी होता है। उनके शरीर की प्ररतिरोधक क्षमता कमजोर होती है, इसलिए उन्हें जीवाणुओं और विषाणुओं के संक्रमण से बचाने के लिए उनकी साफ-सफाई का अधिक ध्यान रखने की जरूरत होती है। शिशु को दिन में दो बार अवश्य नहलाएं। इससे उनके शरीर को ठंडक भी मिलेगी। एक बार सुबह और एक बार शाम को नहलाएंगे, तो उन्हें आराम मिलेगा। नहलाने से पहले तेल मालिश जरूर करें, इससे उनकी त्वचा को पोषण मिलता है।
हवादार जगह पर सुलाएं
शिशु को अंधेरी, ऊमसभरी जगहों पर न सुलाएं। हमेशा हवादार और रोशनी वाली जगहों पर ही सुलाना चाहिए। इससे मच्छर-मक्खी का खतरा कम रहता है। अगर इसका खतरा है, तो मच्छरदानी का उपयोग करना चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि शिशु को जहां सुलाएं वह बिस्तर सूखा हो, उसमें नमी न रहे। पंखा चला कर रखें। इससे शिशु की त्वचा पर घमौरियों, दानों के उभरने का खरता टल जाता है।
उबटन लगाएं
शिशु की त्वचा के लिए उबटन बहुत गुणकारी होता है। दिन में कम से कम एक बार शिशु की उबटन से मालिश जरूर करनी चाहिए। अगर रोज संभव न हो तो हफ्ते में दो बार जरूर उबटन लगाएं। उबटन बनाने के लिए राई, हल्दी और जौ के आटे को एक साथ मिला कर पीसें और थोड़ा-सा पानी या गुलाबजल डाल कर पेस्ट बना लें। इसे शिशु के पूरे शरीर में लगाएं और मलते हुए उसे उतार दें। फिर नहला दें। इससे शिशु की त्वचा मुलायम रहती और उस पर बैक्टीरिया के संक्रमण का खतरा टल जाता है।
(यह लेख सिर्फ सामान्य जानकारी और जागरूकता के लिए है। उपचार या स्वास्थ्य संबंधी सलाह के लिए विशेषज्ञ की मदद लें।)
