छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। जंगलों की कटाई के विरोध में हसदेव में लोग आंदोलन कर रहे हैं। इसको लेकर राजनीतिक बयानबाजी भी शुरू हो गई है। इन सबके बीच सच्चाई यह है कि हसदेव में जंगलों की कटाई जारी है।
छत्तीसगढ़ में पूरे देश में मौजूद कोयला भंडार का करीब 21 फीसद है। अकेले हसदेव अरण्य में छत्तीसगढ़ के कोयला भंडार का 10 फीसद हिस्सा माना जाता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अगले 100 वर्षों के लिए कोयला छत्तीसगढ़ में उपलब्ध है।
हसदेव के अरण्य में कोयला निकालने को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों ने समय-समय पर वैज्ञानिक शोध किए हैं। हसदेव का जंगल मध्य प्रदेश के कान्हा क्षेत्र से लेकर झारखंड के जंगलों तक जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि हसदेव का जंगल मौसम परिवर्तन में काफी अहम रोल अदा करता है। छत्तीसगढ़ के 184 कोयला खदानों में से 23 हसदेव के जंगलों में हैं।
1,70,000 हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य में गोंड, लोहार, ओरांव जैसी आदिवासी जातियों के 10,000 से ज्यादा लोगों के घर हैं। यहां 82 तरह के पक्षी, दुर्लभ प्रजाति की तितलियां और 167 प्रकार के वनस्पति जीव पाए जाते हैं। इनमें से 18 खतरे में हैं।
1880 वर्ग किमी में फैले हसदेव अरण्य कोल फील्ड (HACF) में 23 कोयला ब्लॉक शामिल हैं। साल 2010 के करीब जब छत्तीसगढ़ सरकार ने 1,898.328 हेक्टेयर वन भूमि को परसा ईस्ट एंड केंटे बसन (PEKB) कोलफील्डस के लिए इस्तेमाल की हरी झंडी दी तब इस इलाके में खनन की मांग बढ़ी। इसका आवंटन राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (आआरवीयूएनएल) को हुआ, लेकिन पीईकेबी कोयला ब्लॉक्स में माइन ऑपरेशन व डेवलप करने का काम अडानी एंटरप्राइजेज को मिला। हालांकि, इस कदम के बाद कई अदालती आदेश आए और सरकारी रिपोर्ट भी आईं। साथ ही वनवासियों द्वारा विरोध प्रदर्शन भी हुआ।
जून 2011 में, पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति ने वन भूमि को खनन के लिए बदलने के खिलाफ सिफारिश की। तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस फैसले को खारिज करते हुए कहा था कि घने जंगलों से दूर क्षेत्र में कोयला खनन किया जाएगा।
2012 में, पहले चरण में PEKB कोयला खदानों में खनन के लिए वन व पर्यावरण मंत्रालय द्वारा वन संबंधी मंजूरी दी गई थी। इसके मुताबिक 762 हेक्टेयर के एरिया में खनन होना था और इस दायरे में 137 मिलियन टन तक का कोयला भंडार था।
मार्च में छत्तीसगढ़ सरकार ने कहा कि उसने राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को पीईकेबी कोयला ब्लॉक के दूसरे चरण के तहत 1,136 हेक्टेयर क्षेत्र में कोयला खनन की अनुमति दी है।
हसदेव के जंगलों को लेकर भारतीय वन्यजीव संस्थान ने एक रिपोर्ट में कहा कि छत्तीसगढ़ के जंगलों में एक फीसद हाथी हैं। यहां के जंगल में हर साल 60 से ज्यादा लोग हाथियों के हमले में मारे जाते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, अगर हसदेव के जंगलों को काटा गया तो मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएं बढ़ सकती हैं। इतना ही नहीं, हसदेव के जंगलों के कटने से आदिवासियों की बसाहट भी कम होगी और मौसम के दुष्परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं।
कोयला खनन के लिए हसदेव के जंगलों की कटाई पुलिस की सुरक्षा के बीच होती रही है। स्थानीय आदिवासी और समाजसेवी हसदेव जंगल बचाओ अभियान के तहत इसका विरोध करते रहे हैं।
इस वन क्षेत्र में खनन की मंजूरी 2013 में ही दी गई थी। इसमें पेड़ों की कटाई की बात भी शामिल थी और पिछले नौ साल में करीब 75 हजार पेड़ कट चुके हैं। हसदेव अरण्य छत्तीसगढ़ के उत्तरी कोरबा, दक्षिणी सरगुजा और सूरजपुर जिले के बीच में स्थित एक समृद्ध जंगल है। करीब एक लाख 70 हजार हेक्टेयर में फैला यह जंगल अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है।
वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट आफ इंडिया की साल 2021 की रिपोर्ट बताती है कि इस क्षेत्र में 10 हजार आदिवासी हैं। इसी इलाके में राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम को कोयला खदान आवंटित है। इसके लिए 841 हेक्टेयर जंगल को काटा जाना है। कई गांवों को विस्थापित भी किया जाना है। स्थानीय ग्रामीण इसका विरोध कर रहे हैं।
भारत के मूल निवासी कहे जाने वाले गोंड आदिवासियों की अच्छी खासी संख्या हसदेव में रहती है। जंगल के बीच से हसदेव नाम की नदी गुजरती है। वहां शताब्दियों से चला आ रहा जंगली हाथियों का गलियारा भी है। छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार ने छह अप्रैल 2022 को एक प्रस्ताव को मंजूरी दी, जिसके तहत हसदेव क्षेत्र में स्थित परसा कोल ब्लाक परसा ईस्ट और केते बासन कोल ब्लाक का विस्तार होगा। इस विस्तार का सीधा अर्थ है जंगलों की कटाई। इस आशंका से एक बार फिर इलाके में विरोध तेज हो गया है।
उजड़ेंगे कई दर्जन आदिवासी गांव
सरकारी आंकड़े के अनुसार लगभग 95 हजार पेड़ और विरोध कर रहे लोगों के अनुसार लगभग दो लाख पेड़ों के कटाई की तैयारी है। कोई पेड़ से लिपटकर पेड़ों को बचाने में लगा है तो कोई लंबे समय से विरोध प्रदर्शन कर इसका विरोध कर रहा है। खदान के विस्तार के चलते लगभग आधा दर्जन गांव सीधे तौर पर और डेढ़ दर्जन गांव आंशिक तौर पर प्रभावित होंगे। लगभग 10 हजार आदिवासियों को अपना घर जाने का डर सता रहा है। वर्ष 2009 में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इसे नो-गो जोन की श्रेणी में डाल दिया था। इसके बावजूद, कई खनन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है।
खनन से जुड़े पक्ष की दलील
कोयला खनन से जुड़े पक्ष या इसके समर्थक कहते हैं कि बिजली की जरूरत बिना कोयले के पूरी नहीं हो सकती। विस्थापित होने वाले लोगों को पूरा मुआवजा दिया जाता है और पर्यावरण नुकसान कम करने के लिए काटे गए पेड़ों से कहीं ज्यादा संख्या में पेड़ लगाए जाते हैं।