सुरेश सेठ
तरक्की के आंकड़े ज्यों-ज्यों उज्ज्वल होते हैं, त्यों-त्यों मील के पत्थरों की तलाश में कर्त्तव्य पथ पर चलते लोग, लगता है, जैसे उल्टे चल रहे हैं। सफर घटने की बजाय लंबा होता चला गया। परियोजनाएं उद्घाटित हुई और अधर में लटक गई, लेकिन उद्घाटनों का घोषणा-निनाद सबको यही बताता है कि तरक्की हो रही है। चाहे यह तरक्की वापस लौटने का रास्ता पकड़ने लगी, लेकिन लोग खुश हैं।
यहां इस खुशी को बढ़ाने वाले बहुत से बाजार हैं। इन बाजारों में खुशी आम आदमी के लिए खुलकर रोती नजर आती है। शेयर बाजारों में सूचकांक कुलांचें भरता है और दिन काला कहलाता है। सरकार की पैसा लगाने वाली नीतियों के बारे में कोई और कर छूट या राहत की घोषणा के साथ शेयरधारकों का दिल बल्लियों उछलने लगता है।
ऐसे बाजारों की खबरें अखबारों में ऐसे छपती हैं कि रोज सुबह वे अगर आसमान छू लें, तो अट्टालिकाएं भी आकाश छूूने लगती हैं। गिर कर धराशायी हो जाएं तो इन प्रासादों की बत्तियां बुझ जाती हैं। मगर इन आंकड़ों का कोई संबंध फुटपाथी लोगों से नहीं होता। उनसे पूछने जाएं तो वे शायद इन शेयर प्रमाण-पत्रों को पहचानें भी नहीं। वे तो अपने राशन कार्डों को पहचानते हैं, जिनका रंग कभी बदल कर पीला और फिर बढ़ती भीड़ के कारण न चलने पर काला हो जाता है।
इन लोगों की जिंदगी आधार कार्ड की पहचान और खैराती कार्ड के अहसास के बीच लटकी रहती है। उन्हें भला इन शेयर प्रमाण-पत्रों से क्या लेना? पता नहीं किस प्रमाण पत्र के अभाव में एक शहर से दूसरे शहर में जाना कठिन हो जाए। लेकिन एक शहर से दूसरे शहर में जाकर करेंगे भी क्या? किन्हीं हालात में गांवों से शहरों में पेट की आग बुझाने और अपने परिवारों को जिंदा रखने के लिए आए कामगारों के हुजूम वापस अपने गांवों का रुख करते हैं, दूसरे शहरों का नहीं।
वही कामगार जो अच्छे भविष्य की तलाश में कभी इन शहरों में आए थे कि यहां उन्हें भरा हुआ टिफिन मिलेगा, और उनके बच्चे को पुस्तकों से भरा बस्ता। यही उनका ‘अच्छा भविष्य’ था, जिनका वादा उनसे हर वर्ष किया जाता रहा था। आंकड़ा-शास्त्रियों ने सदा अच्छे भाषणों को प्यार दिया। कहा गया कि कोरोना काल के आर्थिक तोड़फोड़ के दिन खत्म हुए। धर्म स्थानों के उत्सव, पहाड़ों पर जुटती भीड़ और बाजारों से लेकर होटलों तक लौटे लोग आज महीनों बाद मिली मुक्ति का स्वागत करते हैं।
हमें बताया जाता है कि देश जागरूकता और विकास की राह पर लौट गया है। शेयर बाजारों के सूचकांक उछल कर नए शिखर छूने लगे हैं। सूचकांक कहते हैं कि विकास दर की उछाल संपन्न पुराने दिनों को वापस ला रही है। इंटरनेट के रोजगारों को देखा जाए, नौकरियां अधिक और काम करने वाले कम हैं। कार बाजारों में जाकर देख लिया जाए, छोटी कारों की बिक्री आशातीत बढ़ रही है। बेकारी की वृद्धि दर में कमी आई है। महंगाई का शोर मचाने वालों को देखना चाहिए कि अब न तो परचून कीमतों के सूचकांक और न ही थोक कीमतों का उछाल इतना भयावह लगता है।
लगता है, तरक्की के आंकड़े भी गिरावट मुक्त हो गए। स्वप्नजीवी लोग उत्सवधर्मी हो रहे हैं। त्योहारों का मौसम आने वाला है, खुले पवित्र दिनों की आमद को प्रणाम करने के लिए लाखों की भीड़ आस्था और धर्म के दरबारों में जुटेगी। और इसके साथ अपनी तरक्की के सपने देखना भी अच्छा लगेगा।
मगर विश्व में प्रसारित हुए उस नए भुखमरी सूचकांक का क्या किया जाए, जो यह बताता है कि दुनिया में भूख से मरने वालों की सूची में अपना देश कुछ सीढ़ियां और नीचे उतर गया। बताया जाता है कि कीमतों पर नियंत्रण हो रहा है, खाद्य पदार्थों के और सस्ता हो जाने की उम्मीद है और उधर इन खाद्य पदार्थों को ढोने वाले वाहनों में डलने वाला पेट्रोल और डीजल नित्य महंगा हो जाता है।
हर नई सुबह उसकी एक और छलांग की खबर ले आती है। सरकार भी क्या करे? कर्ज और उसके ब्याज का भुगतान मुंह चिढ़ाता हुआ राजस्व का खाली खजाना और पेट्रोल कंपनियां। पहले कोरोना में उनका तेल नहीं बिका, अब बढ़ती कीमतों ने इसकी बिक्री के हाथ बांध दिए। इनकी सुध कौन लेगा! इसलिए पेट्रोल उत्पाद की कीमतें घटा कर उद्योगों को नुकसान कैसे पहुंचाया जाए!
हां, शहरों से गांवों की ओर पलायन करते हुए कामगारों को मुश्किल झेलना है, उनके लड़खड़ाते खेत उन्हें संभालते नहीं। मध्यम, लघु और कुटीर उद्योगों की घोषणाएं केवल नाम पट्टों तक सीमित रहती हैं, उनकी जिंदगी में उतरती नहीं, लेकिन इसमें विसंगति क्या? अगर लौटता है देश में चलाने के लिए साइकिल युग और जलाने के लिए उपला युग तो यह अच्छा ही है! इस तरह की तरक्की से जुड़े रहना अच्छा होता है, क्योंकि अतीत में धुंधलाती सांस्कृतिक गरिमा की फिर तलाश हो जाती है, ऐसा हमारे बड़े-बुजुर्गों ने भी हमें सिखाया है।