महाराष्ट्र के सीएम एकनाथ शिंदे ने कुछ दिनों पहले ही कहा था कि वे जल्द ही सदियों पुरानी हाजी मलंग दरगाह को मुक्त कराएंगे। दक्षिणपंथी समूह यह दावा करते हैं कि यह दरगाह असल में मंदिर है। जो समुद्र तल से 3000 फीट ऊपर माथेरान की पहाड़ियों पर मलंगगढ़ किले के पास है। यह दरगाह यमन के 12वीं शताब्दी के सूफी संत हाजी अब्द-उल-रहमान की है। आस-पास रहने वाले लोग इस दरगाह को हाजी मलंग बाबा के नाम से जानते हैं। हमारे सहयोगी इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 20 फरवरी को हाजी मलंग की जयंती है। जिसके लिए खास तैयारियां की जा रही हैं।

कैसे पहुंचे यहां?

यह दरगाह कल्याण में स्थित है। सूफी संत के अंतिम विश्राम स्थल तक पहुंचने के लिए लगभग दो घंटे की चढ़ाई करनी पड़ती है। दरगाह के मंदिर होने के दावे पर दरगाह के ट्रस्टी ने कहा कि जो कोई भी यह दावा कर रहा है कि हाजी मलंग दरगाह एक मंदिर है, वह ऐसा राजनीतिक लाभ के लिए कर रहा है। केतकर का परिवार पिछली 14 पीढ़ियों से इस दरगाह की देखभाल कर रहा है। दरअसल, 1980 में शिवसेना नेता आनंद दिघे ने इस दरगाह को नाथ पंथ से संबंधित एक प्राचीन हिंदू मंदिर बताया था। हालंकि 1990 के दशक में सत्ता में आने पर इस मुद्दे को शिव सेना ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था। शिंदे ने अब इस मुद्दे को फिर से उठाने का फैसला किया है।

रिपोर्ट के अनुसार, 1954 में हाजी मलंग के प्रबंधन पर अभिजीत केतकर परिवार नियंत्रण से संबंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए टिप्पणी की थी कि दरगाह एक समग्र संरचना थी, जिसे हिंदू या मुस्लिम कानून द्वारा शासित नहीं किया जा सकता है। इसे सिर्फ अपने खास रीति-रिवाजों द्वारा ही शासित किया जा सकता है। केतकर ने आगे कहा “नेता अब सिर्फ अपने वोट बैंक को रिझाने के लिए मुद्दा बना रहे हैं।” अभिजीत केतकर ने आगे कहा कि यहां हर साल हजारों भक्त अपनी “मन्नत” को पूरा करने के लिए आते हैं।

द गजेटियर्स ऑफ बॉम्बे प्रेसीडेंसी में भी है जिक्र

दरगाह के बारे में कई ऐतिहासिक लेखों में मिलता है। 1882 में प्रकाशित द गजेटियर्स ऑफ बॉम्बे प्रेसीडेंसी में भी इस दरगाह के बारे में लिखा गया है। इस पवित्र स्थल के बारे में जिक्र करते हुए यह कहा गया है कि यह जगह एक अरब मिशनरी, हाजी अब्द-उल-रहमान के सम्मान में बनाया गया था, जो हाजी मलंग के नाम से लोकप्रिय थे। कहा जाता है कि स्थानीय राजा नल राजा के शासनकाल के दौरान सूफी संत यमन से कई अनुयायियों के साथ आए थे और पहाड़ी के निचले पठार पर बस गए थे।

इस दरगाह के बारे में कई पौराणिक कथाओं हैं। दावा कि नल राजा ने अपनी बेटी की शादी सूफी संत से की थी। हाजी मलंग और मां फातिमा दोनों की कब्रें दरगाह के अंदर स्थित हैं। बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गजेटियर्स में कहा गया है कि संरचना और कब्रें 12वीं शताब्दी से अस्तित्व में हैं और पवित्र मानी जाती हैं।

गजट में कहा गया है कि 18वीं शताब्दी में तत्कालीन मराठा संघ ने कल्याण के एक ब्राह्मण काशीनाथ पंत खेतकर के नेतृत्व में दरगाह में प्रसाद भेजा था क्योंकि ऐसा माना गया था कि संत की शक्ति के कारण अंग्रेज यहां से चले गए थे।

18वीं शताब्दी में भी हुआ था विवाद

दरगाह पर पहली बार 18वीं शताब्दी में विवाद हुआ था। जब मंदिर के वंशानुगत संरक्षक कुछ स्थानीय मुसलमानों ने इसकी देखरेख एक ब्राह्मण द्वारा किए जाने पर आपत्ति जताई थी। यह संघर्ष इसलिए नहीं था कि यह मंदिर है या दरगाह बल्कि इसलिए था कि इसकी देखरेख ब्राह्मण कर रहे हैं। इसके बात यह बात सामने आई थी कि ट्रस्ट में हिंदू और मुस्लिम धर्म के लोग थे जो सौहार्द से साथ इसकी देखरेख करते थे।

ट्रस्टी चंद्रहास केतकर ने कहा कि हमारे ट्रस्ट बोर्ड में पारसी, मुस्लिम और हिंदू समुदायों के साथ-साथ आस-पास के किसान भी शामिल थे। हालांकि, 2008 के बाद से ट्रस्ट में हमारी कोई नई नियुक्ति नहीं हुई है। फिलहाल ट्रस्ट में तीन सदस्य हैं क्योंकि बाकी या तो रिटायर हो गए या उनका निधन हो गया। फिलहाल दरगाह की देखरेख ब्राह्मण परिवार करता है। यहां दोनों धर्मों के लोग आते हैं। इसकी बनावत एक दरगाह की तरह है। हालांकि पूर्णिमा के दिन यहां हिंदू लोग भी आते हैं और आऱती करते हैं।

संयोग से शिंदे ने फरवरी 2023 में दरगाह का दौरा किया था। उन्होंने आरती की थी और दरगाह के अंदर भगवा चादर चढ़ाई थी। अब इस दरगाह को लेकर विवाद गहराने वाला है। हालांकि इस दरगाह के आस-पास रहने वाले लोगों के ऊफर इस बात को अधिक फर्क नहीं पड़ता।

प्रभात सुगवेकर का परिवार सदियों से इस दरगाह के पास छोटी सी पहाड़ी पर चाय बेच रहा है। उनका कहना है कि अधिक मुस्लिम श्रद्धालु दरगाह को हाजी मलंग बाबा के नाम से जानते हैं। वहीं आनंद दिघे के यहां आने के बाद से इसे श्री मलंग गाड के नाम से जानते हैं। मेरे लिए बाबा और श्री मलंग दोनों एक ही भगवान हैं। उन्हीं की वजह से मेरा घर चल रहा है।’ यह मंदिर है या दरगाह, यह मेरे लिए ज्यादा मायने नहीं रखता। अब देखना है कि इस दरगाह को लेकर विवाद कहां तक गहराता है।